Wednesday, March 4, 2015

वसीयत

महफूज़ करता हूँ
तुम्हें पाक अहसासों में
रिहा करता हूँ
तुम्हें उम्मीद की बंदिशों से
तसल्ली देता हूँ खुद को
कुछ बोझिल वादों से
तुम यहीं कहीं हो
फ़कत इतनी गुजारिश है
गुजिश्ता बीतें लम्हों का सूरमा बना
लगाते रहना चश्म ए तर में
मेरे ख़ुलूस की तबीयत
इनदिनों जरा नरम है
तुम्हारी धड़कनों के पैबन्द
लगाए है खुद के जिस्म पर
रूह अब सवाली नही है
तुम्हारे लबों के अनकहे अलफ़ाज़
अब मेरी रूह में पनाह लिए है
उन्हें वापिस मांगने की
गुजारिश कभी मत करना
दिल की स्याह गलियों में
उन्ही से हौसला अता होता है
और थोड़ी रोशनी भी
वजूद की गुमशुदगी
और तुम्हारी बेखबरी के इस दौर में
इन दिनों खुद के कद की
कब्र में आराम फरमां हूँ
यकीन न हो तो
मेरे बदन की खुशबू को छू कर देखना
जो तुम्हारे रोशन दान से गुजर
रोज तुम्हारे तकिए के नीचे छुप जाती है
उसमें उस मिट्टी की गर्द मिलेगी
जिसे तुम्हारे मौजे पहचानते है
वक्त बेवक्त उस अकेले कंगन से भी
पूछ सकती हो
जो तुम्हारी कलाई में तन्हा
मेरी छुअन का गवाह है
उसे मेरा पता नही मालूम
मगर वो इतना जरूर बता सकता है
अनमना हो कितनी दफा उसे घुमाया था मैनें
तुम्हारे सख़्त सवालों के बीच
जरूरत एक स्याह चश्मा है
हकीकत तजरबें की उतरन
और मैं...!
मुझसे बेहतर तुम बता सकती हो
क्योंकि तुम्हारा दावा था
मेरे मन की गिरह को गिनने का
उन पर ज़ज्बात की इस्त्री करने का
मगर ये फासलों के
कैसे सिलसिले निकलें
जो खत्म ही नही होते
किसी एक का बढ़ना
दुसरे का घटना क्यों है
यह महज एक सवाल नही
एक मुकम्मल जवाब भी है
जिसे पढ़नें के लिए
आओं अपनी पलकें
मेरी पलकों से मिला दो
फिर थोड़ी देर खामोशी की धुन सुनों
और लौट जाओं
अपनी उस दुनिया में
जिसमें सही गलत की
तुम अकेली पैगम्बर हो
तुम्हारी एक फूंक से
मेरी रूह पर मिट्टी आ जाएगी
ये मेरी कब्र की आख़िरी
वसीयत है।

© डॉ. अजीत

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