Monday, March 9, 2015

ऋषि सूक्त

अभी निपट खाली बैठा सोच रहा हूँ
तुम क्या सोचती होगी
अपनें खालीपन में
फिर ख्याल आता है
तुम खाली ही कब होती हो
सोचनें के लिए
इश्क फरेब के साथ वक्त भी मांगता है
ये एक अजीब बात है
अजीब तो ये बात सोचना भी है।
***
अह्म पर जितनी
चोट तुमनें की
उतना ही आसक्त होता गया मैं
विरक्ति के लिए
तुम्हारा प्रेम पर्याप्त था
समीकरण सब उलट गए
इसलिए
आज दोनों निराश है।
***
मैं संबोधित करता था
तुम्हारे मन को
सुनती थी तुम्हारी नाक
और जवाब देता था
दिमाग
ऐसे में मेरी बात का भटकना
स्वाभाविक था
जिसकी बात ही भटक जाए
उसका भटकना तय होता है
अपनत्व के छद्म जंगल में।
***
स्त्रीत्व का एक अर्थ
व्यापकता समझ बैठा
स्त्रीत्व का अर्थ
विकसित करना
मेरी सबसे बड़ी अज्ञानता थी
स्त्री विमर्श नही
जीवन का विमर्श स्त्री से
मिलता जुलता है।
***
नही समझ पाता
तमाम बुद्धिमान होने के दावे के बीच
तुम्हारा सच मेरे सच से अलग था
फिर भी
झूठ सच से प्रिय क्यों लगता था
माया
शायद इसी को कहते होंगे
ऋषि।
***
उम्मीद के पाँव भारी थे
मगर पीठ बांझ
कान लगाए सुनता था
तुम्हारी धड़कन
जो कहती थी
कूट ध्वनि में
कुछ मौत खुशी से तो
कुछ गलतफहमी से भी होती है ।
***
कप में बची हुई चाय सा
अपराधबोध
बचता रहा हर बार तुम्हारे कप में
बहता रहा जो मन की गलियों में
जल्दबाजी में छूट गया जो
वही प्रेम था मेरा।

© डॉ.अजीत

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