Monday, April 13, 2015

अनुपस्थिति

तुम्हारी अनुपस्थिति में यह जाना
दो जमा दो चार नही होता हर बार
तुम्हारी अनुपस्थिति में देख पाया
सपनें की यथार्थ के दर पर आत्महत्या
तुम्हारी अनुपस्थिति में समझा
भावुकता और सम्वेदनशीलता में फर्क
तुम्हारी अनुपस्थिति में उलट गई थी
काल गणना
दिन और रात थे छब्बीस घण्टें के
ये दो अतिरिक्त घंटे कहां से लाता था
तुम्हें समझनें के लिए
नही जानता हूँ
दरअसल तुम्हारी अनुपस्थिति
इतनी घनीभूत रूप से मनोवैज्ञानिक किस्म की थी कि
मैं घटना वस्तु समय सबमें तुम्हें तलाशता था
और तुम्हारी अनुपस्थिति
मुझे खारिज करती जाती
तुम्हारी अनुपस्थिति मुझे चाट रही थी घुन की तरह
और मैं अपनी तयशुदा हार
स्थगित करनें में असमर्थ था
तुम्हारी अनुपस्थिति ने चिपका दिए थे कुछ सवाल
मेरी नाक,माथें और पीठ पर
कुछ को मैं पढ़ता था
कुछ को दोस्त पढ़कर सुनाते थे
तुम्हारी अनुपस्थिति में
भूल गया था अपनी तमाम वाग्मिता
सन्देह होता था खुद के स्पर्शों पर
तुम्हारी अनुपस्थिति
ठीक उतना अकेला कर रही थी मुझे
जितना अकेला जन्म के वक्त होता है
मुस्कानों के बीच विस्मय से भरा
एक नवजात शिशु
तुम्हारी अनुपस्थिति मुझ पर इसलिए भी
इतनी हावी थी
क्योंकि पहली बार
तुम्हारी अनुपस्थिति में
तुम उतनी उपस्थित नही थी
जितना उपस्थित था मैं।

© डॉ. अजीत

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