Saturday, April 11, 2015

धूमकेतु

सुबह
उठता हूं
मगर जागता नही हूं

दोपहर
करवट बदलता हूं
मगर सोता नही हूं

शाम
टहलता हूं
मगर
चलता नही हूं

रात
आधा सोता हूं
ज्यादा खोता हूं
चुप होकर रोता हूं

...एक ख्वाब

रोज अधूरा रह जाता है
पलकों पर कुछ ग्राम बोझ बढ जाता है
बंद आंखों में बारिशें होती है
मुस्कानों के पीछे झांकता है
थोडा दीवानापन
थोडा पागलपन

सुबह शाम रात और दिन के बीच
ठीक उतने ही फांसले नजर आते है
जितने दो नक्षत्रों के मध्य होते है
देह,चित्त और चेतना के ब्रह्मांड का
धूमकेतु बन जीता हूं
सम्बंधों के गुरुत्वाकर्षण से मुक्त
एक खगोलीय जिन्दगी।

© डॉ.अजीत 

1 comment:

  1. ऐसा तो अक्सर प्यार में ही होता है। सुंदर प्रस्तुति।

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