Monday, April 20, 2015

जरूरतें

बेहद मामूली थी मेरी जरूरतें
एक अदद मुस्कान से
धुल जाते थे सारे रंज
जब तुम खुद को
करेक्ट करने की मुद्रा में पूछती
डबल एक्स एल नम्बर ही ना शर्ट का
लगता मेरे सुख दुःख का नम्बर
रख रही हो पर्स में
कभी तो ऐसा भी हुआ
तुमसे गलती से कॉल हो गई
और मिस्स कॉल से मुझे लगा
याद किया है तुमनें
तुम्हारे रहतें जरूरतें बेहद सिमट जाती थी
मैं खुश हो सकता था
जूतों में जूराब देखकर
या फिर बाथरूम में नया साबुन देखकर
तुम उस वक्त की सबसे बड़ी जरूरत थी
इसलिए दुसरी जरूरतें लगभग समाप्त हो गई थी
बेख्याली का ऐसा दौर था
भूल जाता था बाइक में चाबी
जेब में कलम
दराज़ में बटुआ
जैसे तुम्हारी बातें करता हुआ
अभी अभी भूल गया हूँ
तुम अब नहीं हो
अब जरूरतें तंग करती है
खासकर तुम्हारी आदत
क्योंकि
आदतें वैसे भी
यूं ही नही जाती।
© डॉ. अजीत


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