Monday, June 1, 2015

सवाल

वो जब भी मिलती
सवालों के साथ मिलती
उसके लिए जिज्ञासा का विस्तार था
मेरा होना
उसकी बातों में होता
कुछ दशमलव कौतुहल
कुछ अक्षांश दूरी का पैमाना
और मेरे देशान्तर को परखनें की जिद
प्रश्न-प्रतिप्रश्न और सन्देह का एक ऐसा
त्रियामी मानचित्र बनाती कि
मैं भूल जाता अपनी दिशा
उसकी उपकल्पनाओं में
मेरा दर्शन भीड़ से अलग दिखनें का
एक वितंडा भर था
वो सिद्ध करना चाहती थी
मेरा बेहद मामूली होना
उसके खुद के बनाए हेत्वाभास
मुझे घेरते चक्रव्यूह की तरह
वो देखना चाहती थी मुझे
कर्ण की भाँति निशस्त्र
मेरा अस्तित्व जब एक चुनौति बन गया
तब उसनें निर्णय किया मुझसे प्रेम न करनें का
क्योंकि अपनी तमाम बुद्धिमानी के बीच
वो जान गई थी ये सच
यदि एकबार भी
मुझसे प्रेम किया उसनें
तो फिर उसके पास नही बचेगा
किसी के लिए भी लेशमात्र प्रेम
प्रेम के इस संस्करण को
सबसे बेहतर ढंग से
उसी के जरिए समझ पाया मैं।

© डॉ. अजीत


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