Monday, June 15, 2015

स्मृतियाँ

काश स्मृतियों के पाँव नही
कान होते
उनको सुना पाता मैं
तुम्हारे साथ होने की खनक
वो यूं दबें पाँव न आती फिर
उठा लाता उन्हें गोद में
उनके कान को चूमता हुआ
जिस तरह आती है
बीतें पल की स्मृतियाँ
मुझे नही पसन्द
उनका इस तरह आना
चाहता हूँ वो जब भी आएं
कुछ इस तरह आएं
जैसे पानी पर आती है काई
उन पर फिसलकर
चोट नही लगें
बस लड़खड़ाऊ
और गिरनें से पहलें
थाम लो तुम मेरा हाथ।

© डॉ.अजित

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