Saturday, June 27, 2015

सिद्ध

जिन दिनों मुझसे
बेहद नाराज़ थी तुम
उन दिनों
हवाओं से पूछता था मंत्र
नदियों से मांगता था रेत
जंगल से मांगता था समिधा
तुम्हारे डर से तीनों कर देते थे साफ़ मना
फिर थककर
बनाता था सपनों का हवन कुंड
वादों की सामग्री
और अपनत्व की समिधा
ब्रह्म महूर्त में रोज करता था यज्ञ
उन्ही दिनों मैनें कुछ नए मंत्र सीखें
प्रेम के तंत्र के
प्रत्येक स्वाहा में जलाता था खुद को
ताकि इस नाराज़गी का उच्चाटन कर सकूं
तुम्हारी नाराज़गी
खतम होते होते सिद्ध बन गया था मैं
फिर भी कहता हूँ
हो सके तो फिर कभी
नाराज़ मत होना
क्योंकि अब मैं भूल गया हूँ
सब मंत्र तंत्र
सिर्फ याद है
तुम्हारा नाराज़ होना
और खुद का मजबूर होना
और दोनों ही यादें अच्छी नही है
यकीनन।
©डॉ. अजित

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