Monday, July 27, 2015

दरख़्त

कुछ दरख्तों के साए में
छांव के साथ
नमी भी मिलती है
छनकर आती धूप का
बढ़ा होता है तापमान
कुछ घनें दरख्त
इतनें खामोश किस्म के होते है
उन्हें नही बोल पातें हम
सुप्रभात या शुभ रात्रि
इन दरख्तों की पत्तियां होती है
बेहद अनुशासित
वो हवा को भी घूमा कर बना देती
थोड़ी भारी हवा
इन दरख्तों को छूने का साहस
बमुश्किल जुट पाता हैं
ये खड़े है बरसों से एक जगह
यह देखकर बस एक आश्वस्ति मिलती है
जिसके सहारें
इन दरख्तों को हम घोषित करते है
अपना सबसे परिपक्व और समझदार मित्र
आश्वस्ति जड़ता का चयन करती है
और गम्भीरता रहस्य का
दरख्तों के बीच जीतें आदमी
कभी कभी दरख्त लगने लगते है
और कभी कभी दरख्त आदमी
ये दरख्त हमारे साथ रहते हुए भी
हमसे इतने ही अजनबी है
जितने इनके साथ रहते हुए
हम इनसे
इसलिए कहना पड़ता है
साथ का मतलब
हमेशा साथी नही होता।

© डॉ. अजित

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