Wednesday, September 23, 2015

नियति का राजपत्र

उन दिनों जब तुम मेरे लिए
खुद से खूबसूरत और मेरी हमउम्र
प्रेमिका तलाश रही थी
तुम्हें व्यस्त देख
मैं निकल आया था बहुत दूर
तुम्हारे उत्साह में कंकर मार
मन की तरल सतह पर
वलय नही बनाना चाहता था
इसलिए मैंने स्मृति में मार्ग को नही रखा
मैंने रास्ते में देखे कुछ बेजान पौधे
धूल के कुछ छोटे पहाड़
और एक आधी अधूरी पगडंडी
उन दिनों
तुम्हारे सुझाए विकल्पों पर
मैं केवल मुस्कुरा सकता था
मगर तुम मुझे प्रेम में
हंसते हुए देखने की जिद में थी
इसलिए भी मैं निकल आया था
चुपचाप
सम्भव है तुम्हें लगा हो यह पलायन
या फिर मेरी पुरुषोचित्त कायरता
अधूरी पगडंडी पर चलता हुआ
आ गया हूँ उस दिशा में
जहां से मेरी ध्वनि समाप्त होती है अब
तुम्हारे विकल्पों को अनाथ छोड़ने पर
मैं थोड़ा सा शर्मिंदा भी हूँ
दरअसल
तुम और तुम्हारे विकल्प के मध्य
चुनने की सुविधा तुमनें दी नही थी
और मैं खुद समय का एक विकल्प था
मेरा निकलना तय था
क्योंकि ठहरने का एक अर्थ
तुम्हें खोना था
नियति के राजपत्र पर
यह बात प्रकाशित की थी
मैंने,तुमनें और समय ने
एक साथ मिलकर
किसी षड्यंत्र की तरह।

© डॉ. अजित


1 comment:

  1. शब्द और सोच ..कहाँ से लाते हैं? मैं तो सोच में भी ऐसा नही सोच पाती....अतिउत्तम

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