Sunday, September 27, 2015

प्रतिक्षा

तुम्हारी प्रतिक्षा में
मैंने मृत्यु स्थगित कर रखी है
शब्दों को अर्थ के घर
सुला आया हूँ
घर का सबसे उपेक्षित कोना
साफ किया है तुम्हारे लिए
नही चाहता जब तुम आओ
हवा को भी इसी खबर लगे
तुम्हारी प्रतिक्षा में
प्रार्थना को बांध दिया है
अनुराग की दहलीज़ पर
और खुद खड़ा हूँ
धरती से कुछ दशमलव ऊपर
तुम्हारी प्रतिक्षा में
व्याकुल या आतुर नही हूँ
बस मैं ठहर गया हूँ
समय के एक अधूरे समकोण पर
जब तुम आओगी
उस क्षण की कल्पना में
धकेल रहा हूँ अवसाद को सदियों पीछे
देख रहा हूँ एक युग आगे
भटक रहा हूँ आवारा दर ब दर
मेरे पास आश्वस्ति की बांसुरी है
जिस पर बजा रहा हूँ एक उदास धुन
यह सोचते हुए
एक बार रास्ता भूल भी गई तो भी
इस धुन के सहारे मुझे तक पहुँच जाओगी तुम
तुम्हारी प्रतिक्षा में
खुद को प्रतिक्षारत रख
मैं समय को साध रहा हूँ
ताकि तुमसे ठीक वैसा ही मिलूँ
जैसा कभी मिला था पहली बार।

© डॉ. अजित

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