Sunday, February 28, 2016

याददाश्त

कभी याददाश्त बहुत अच्छी थी मेरी
घर का जरूरी सामान मुझसे रखवाया जाता
ताकि वक्त पड़ने पर मैं तुरन्त बता सकूँ
धीरे धीरे मैंने महसूस किया
यह कोई बढ़िया योग्यता नही
क्योंकि इसकी वजह से
तकलीफें बढ़ने लगी थी मेरी
अब मेरी याददाश्त बेहद कमजोर है
भूल जाता हूँ कि
सुबह का लौटा शाम को घर लौट आए तो
उसे भूला नही कहते
मैं कब से घर से निकला हूँ
मुझे याद नही आता
बहुत बार जोर देकर सोचा भी तो
इतना ही याद आया
निकलते वक्त भूल गया था मैं कि
शाम को घर लौटना है
धीरे धीरे भूल रहा हूँ मैं सबके
जन्मदिन,शादी की सालगिरह और नया साल
अब मेरे पास बस
इतनी याददाश्त बची है कि
खुद की कलाई पर बंधी घड़ी में
एक बार ठीक से टाइम देख सकता हूँ
समय कुछ कुछ अंतरालों में बैठा है
बनकर पहरेदार
मेरी स्मृतियों का हरा भरा जंगल
धीरे धीरे सूख रहा है
बावजूद इसके कि इसके बीचो बीच
एक मीठे पानी की नदी बहती है
एकदिन इस नदी के किनारे
पानी पीने को झुका मैं
तो खुद की शक्ल देख डर गया
पहचान नही पाया खुद को
उस दिन से ये बात समझ आ गई
याददाश्त अब नही बची मेरे पास
मेरा पास बची है
नदी जंगल पानी और रिश्तों की कुछ असंगत कहानियां
जिन्हें कविता की शक्ल में याद करके
खुद को याद करता हूँ मैं
सारी बातचीत में कितनी बार 'मैं' कहता हूँ
इतना भी नही रहता याद
मेरे हिसाब से यह एक मात्र
अच्छी बात है
जो याददाश्त की कमजोरी के कारण
घटित हो रही है मेरे साथ।


©डॉ.अजित

Saturday, February 27, 2016

औसत

कभी कभी उकता कर एक औसत आदमी
करता है कोशिश
एट पार जाने की
एक्सीलेंस उसे इस कदर डराती रहती है
नही सो पाता वो रात भर एक करवट
दरअसल औसत होना एक बड़ी असुविधा है
इस दौर में
तब तो और भी अधिक जब
क्या तो सब उच्च है
या फिर सब निम्न
कुछ औसत लोग इन दोनों के बीच
फंसे रहते है ताउम्र
उनके लिए नीचे और ऊपर जाने के
दोनों ही रास्ते होते है बन्द
इसलिए वो रेंगते रहते है
अपने ही वृत्त में एक नियत गति से
औसत लोग सबसे ज्यादा सन्देहास्पद समझे गए
इतिहास यही बताता है
औसत होना ठीक वैसा अपराध रहा है
जैसे मनुष्य होकर गरीब होना
औसत आदमी सबसे बड़ा खतरा है
क्योंकि उससे प्रभावित नही हुआ जा सकता
उसको छद्म मान लेना है सबसे आसान
औसत आदमी अक्सर कहता है एक बात
दरअसल बात यह नही थी
उसके औचित्य के सारे तर्क होते है अर्थहीन
वो जीता है एक आदमकद जिंदगी
इस भारहीन अर्थहीन पृथ्वी पर
औसत होना निर्वासित होना भी है
एक ऐसा निर्वासन
जिसकी कभी कोई राजाज्ञा जारी नही होती
मगर जिसे भोगना पड़ता है
अंतिम सांस तक।

© डॉ.अजित

Friday, February 26, 2016

पिता

कभी कभी खीझकर
पिताजी मुझे कहते थे
सियासती
खासकर जब मैं तटस्थ हो जाता
या फिर उनका पक्ष नही लेता था
उनके एकाधिकार को चुनौति देने वाली व्यूह रचना का
वो मुझे मानते थे सूत्रधार
उन्हें लगता मैं अपने भाईयों को संगठित कर
उनके विरोध की नीति का केंद्र हूँ
गर्मा गरम बातचीत में उन्हें लगता
मिलकर उनको घेर रहा हूँ
उनको जीवन और निर्णयों को अप्रासंगिक बताने के लिए
सबको करता हूँ दीक्षित
बावजूद ऐसे गुस्से भरे आरोपों के
एक मैं ही था
जिसकी बात मानते थे वो
क्यों, ये आजतक नही जान पाया
मैंने देखा उनको धीरे धीरे ढल जाना
बिना किसी मजबूरी के
तमाम असहमतियों के बावजूद
पिता बचे मेरे जीवन में बेहद आदर के साथ
कुछ क्षमा प्रार्थनाओं की शक्ल में
और मैं पता नही किस रूप में बचा
उनके चले जाने के बाद
तमाम सियासत के बावजूद मैं हार गया एक दिन
तमाम विरोध के बावजूद वो जीत गए उस दिन
हमेशा की तरह।

©डॉ.अजित

दूरी

दो शब्दों के मध्य होता है
जितना एकांत
ठीक उतना एकांत हो सकता है
दो लोगो के मध्य
वाक्यों और संवाद के मध्य
पसरा होता है अव्यक्त का निर्वात
बोली भाषा लिपि सबकी है अपनी सीमाएं
एक बात से दूसरी बात की दूरी बताने के लिए
कोई मानक तय नही हुआ अभी
कुछ अनुमान जरूर है
प्रेम भी एक ऐसा ही अनुमान है
जो लगभग समाप्त कर देता है
कहे और अनकहे का भेद
वो भी एक ख़ास अनुपात में।

© डॉ.अजित

Sunday, February 14, 2016

प्रेम

प्रेम एक त्रिकोण है
जिसके अंशो में होती है एक मानक त्रुटि
इसलिए कोई गणना नही होती पूर्णतः सटीक

प्रेम में गणित तलाशना
एक उपचारिक प्रयास है

ताकि सम विषम को स्वीकार कर
सीखा जाए समीकरण साधना

तो क्या प्रेम एक समीकरण है
नही प्रेम समीकरण नही
प्रेम ज्यामिति भी नही

प्रेम एक त्रिकोण है
जिसकी भुजाएं समान प्रतीत जरूर होती है
मगर होती नही है।

©डॉ.अजित

Tuesday, February 9, 2016

याद

स्त्री किसी को
किस तरह करती है याद
कुछ कुछ वैसे ही
जैसे पतझड़ को याद करता है बसंत।
***
पुरुष किसी को
कैसे भूलता है
कुछ कुछ वैसे ही
जैसे सड़क को भुला देता है दोराहा।
***
स्त्री किसी को
कैसे भूलती है
कुछ कुछ वैसे ही
जैसे बूंदे भूल जाती है बादल को।
***
पुरुष किसी को
कैसे याद करता है
कुछ कुछ वैसे ही
जैसे नदी को याद करता है समन्दर।
***
स्त्री पुरुष
एक दुसरे को कैसे करते है याद
कुछ कुछ वैसे ही
जैसे सफर को याद करता है बदन।
***
स्त्री पुरुष
एक दुसरे को कैसे भूलते है
कुछ कुछ वैसे ही
जैसे साल को भूल जातें है
दिन और महीने।
© डॉ.अजित