Friday, April 22, 2016

कामना

ये बात मैं कतई नही चाहता
कमरें की चारदीवारी में
अरुचि भरी तीमारदारी में
बच्चों के चेहरे पर पुती समझदारी में
निकलें मेरे प्राण

मैं चाहता हूँ
मेरे दोनों कदम ज़मीं पर हो
दोनों की गति हो एक समान
चलतें फिरतें चप्पल चटकातें हुए
निकलें मेरे प्राण

बह जाऊं मैं धरती पर जल की तरह

मुझे यूं टूटता देख
आसमान पर तारें का बच्चा मांगे कोई कामना
मेरे संचित कर्मों के प्रतिफल से हो जाए वो पूरी
ईश्वर से इतनी भर है मेरी प्रार्थना

धीरे धीरे विस्मृत होता जाऊं मैं
किसी उल्का पिंड की तरह

सूखते जलाशय की तरह
धरती के सबसे निर्वासित कोने में हो
मेरी उपयोगिता का पाठ

आने और जाने के बीच
चाहता हूँ बची रहें बस इतनी गुमनामी
किसी को आए यकीन
कोई भूल जाए अंतिम निशानी।

© डॉ.अजित

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