Tuesday, April 19, 2016

ऊब

ऊबकर एकदिन
हटा दिया मैंने चश्मा

आँखें बहुत दिन से कर रही थी
शिकायत

वो देखना चाहती थी बिना किसी मदद के

मदद की निर्भरता कमजोर करती है इंसान को
ये बात मुझे कान ने तब बताई
जब सो रहा था मैं

जागते ही आँख मलकर मैंने देखा दर्पण
आँखों का नम्र निवेदन झलक रहा था

चश्मा एक असुविधा था
जिसे नाक पर चढ़ा रखा था बेवजह
बिना आँख की इच्छा जानें
कान भी बोझ के सताए हुए थे
उन्होंने कहा धन्यवाद
और आश्वस्त किया मुझे
कुछ दिन अफवाह न सुनने के लिए
कान की इस सदाशयता के लिए
मैंने कृतज्ञता ज्ञापित की
अपनें ही कानों को ठीक वैसे छूकर
जैसे उस्ताद का जिक्र करते हुए छूता है
कोई फनकार

चश्मा उतारने के बाद

भले ही अब कम दिखे मुझे
मगर दिखेगा उतना ही
जितना जरूरी है मेरे लिए
अपनी मात्रा और दूरी की पूर्णता के साथ।

©डॉ. अजित 

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