Thursday, April 14, 2016

काश !

यदि मैं होता नगर नियोजक
तुम्हारे शहर की कुछ सड़के नही ले जाता
चौराहे तक
चौराहें की भूलभूलैय्या तक नही छोड़ कर आता
कोई भी दोराहा
सिविल लाइन्स से लेकर कलेक्ट्रेट तक
सड़को का ऐसा जाल न बुना होता
तुम्हारे कालोनी को जाते कई रास्तें
मगर वापिस आता केवल एक
शहर का मानचित्र कुछ ऐसा होता
अजनबी कोई अकेला न पड़ता आकर
हवाओं को होती भरपूर आजादी
धूप तुम्हारे हिस्से न आती आधी
तब तुम्हारा शहर कुछ कुछ ऐसा होता
जैसा कोई पहाड़ी कस्बा
छोटी होती सबकी जरूरतें
मगर दिल होता सबका बड़ा
भीड़ और कोलाहल में
निर्जन अकेले न होते चौक
उदास देख किसी को बच्चे लेते उसका रास्ता रोक
यदि मैं होता नगर नियोजक
तुम शहर की भीड़ में न होती इतनी अकेली
बतिया लेती हवाओं से मान उन्हें घनी सहेली
कह पाती मन की वो सारी बातें
जिन्हें सुन सुन कर बूढ़ी हो गई रातें
फिर शहर तुम्हारा कुछ कुछ मेरे जैसा होता
न मिलता न साथ चलता
मगर रिश्ता एक गहरा होता
यदि मैं होता नगर नियोजक...!

© डॉ.अजित

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