Wednesday, April 13, 2016

लिल्लाह

तुम्हें देख एक ही लफ्ज़ निकला
लिल्लाह !
लबों पर खामोश सी एक इल्तज़ा थी
मुन्तज़िर हो देख सकूँ वो बेफिक्र अंगड़ाई
हया ने रफू किए जब जिस्म
चाहतों ने अदब से पनाह मांगी
पोशीदा किस्सों के कुछ गुमशुदा खत
तुम्हारी कानिश पर छूट गए थे
उन्हें पढ़ना आहिस्ता आहिस्ता
तुम्हारे कान के पीछे एक बोसा टंगा है
उसका पता तुम्हारी ऊंगलियों पर छपा है
जुल्फों के सायें में उसका अक़्स बना करेगा
एक तहरीर
तुम्हारे काज़ल से लिखी है
जिसे पोस्ट किया है तुम्हारे पलकों के डाकखाने में
ख़्वाबों में उस पर कोई अमल होगा
इसकी उम्मीद नही
फिर भी इस बात की उम्मीद है
देर सबेर तुम तलक सब पहुँचेंगे
हिस्सों और किस्सों में
लबों की तलाशी में दुआओं के हरफ मिलेंगे
तुम्हारी ज़बां की मिठास से
वो अब महज अल्फ़ाज़ नही बचें है
वली बन गई हो तुम
इश्क के समन्दर में जो उड़कर पार करने का
हुनर अता करती है
तुम्हारी सोहबत में तैरना नही
उड़ना सीख रहा हूँ इनदिनों।

©डॉ.अजित

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