Wednesday, April 13, 2016

भरोसा

जानता हूँ
लोगो के जीवन में इतना प्रेम नही बचा है
जितना लिखता और कहता हूँ मैं
कई बार ऊब भी होती है
एक ही बात को अलग अलग ढंग से सुनकर/पढ़कर
कई दोस्तों को लगता है
किसी एक एंगल पर जाकर अटक गया हूँ मैं
प्रेम के सन्दर्भ और प्रसंग की पुनरावृत्ति का दोषी हूँ मैं
चाहे तो इसके लिए
शुष्कता में जीतें संघर्षरत लोग
प्रेम में पराजित और रिक्त लोग
मुझे दें दे मृत्युदंड
मगर मेरे पास बात करने के लिए
मुद्दत से कोई और विषय नही है
भूल गया हूँ मैं
लिपि का अन्यत्र प्रयोग
शब्दों का वैचारिक उपयोग
दिमाग छोड़
दिल के सहारे जिन्दा हूँ
प्रेम सिखाता है मुझे सहारे पर जिन्दा रहना
दिमाग की बिलकुल नही सुनता मैं
अगर जरा भी सुनता
तो तमाम अरुचि और अप्रासंगिकता के मध्य
जिन्दा न होता आज
प्रेम केवल मरना ही नही
जीना भी सिखा देता है
हां ! महज एक छोटी सी बात के सहारे
जिन्दा रहना
प्रेम के भरोसे सीख पाया मैं।

© डॉ.अजित

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