Thursday, September 8, 2016

दुनिया

दरअसल
मैं ही गैर हाजिर होता जाता हूँ
दृश्य से ओझल सा
निकलता जाता हूँ दृष्टि की सीमा से बाहर

छोड़ता जाता हूँ
मील के पत्थर
जिन पर लिखी है
मंजिल की संदिग्ध दूरी

कहता हूँ मौन की भाषा में
सम्प्रेषण के सिद्धांतों को देता हुआ चुनौति
बात का अटक जाना नियति नही
बात का भटक जाना शायद प्रारब्ध है

जाता हूँ दक्षिण दिशा
छोड़ता हूँ लिपि का अधिकार
बनाता हूँ ध्वनि की नाव
और उतर जाता हूँ
समय के समन्दर में

प्रतिक्षा के कौतुहल मे
स्मृतियों के आंगन में
जम गई है थोड़ी काई
फिसलता हूँ उस पर
खिसियाता हूँ खुद पर
छिपाता हूँ छिली हुई कोहनी
हंसता हूँ तुम्हें देखकर

कुछ भी नही हुआ है
मेरी देह कहती है

लगाता हूँ एक छलांग मन के वितान से
न डूबता हूँ
न तैरता हूँ

बस देखता हूँ किनारे पर खड़ी दुनिया
जो थोड़ी टेढ़ी हो गई है देखते देखतें।

© डॉ.अजित 

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