सोकर उठा तो लगा कि
धरती के सबसे निर्वासित कोने पर
अकेला बैठा हूँ
नींद की थकान के बाद
देख रहा रहा हूँ
जागे हुए चेहरों की उदासी
धरती घूम रही है अपनी गति से
इसका अनुमान लगाने के लिए मैं थम गया हूँ
मेरी गति अब पुराण की गति के बराबर है
जिसे दुर्गति, निर्गति, सद्गति
कुछ भी समझा जा सकता है
अपनी अपनी समझ के हिसाब से
जिस जगह मैं हूँ
वहां से एक रास्ता दुनिया की तरफ जाता है
एक रास्ता दुनिया की तरफ से आता है
मगर मैं जिस पगडंडी पर खड़ा हूँ
वहां से दोनों रास्ते अलग नही दिखते है
इसलिए मैं देखने की ऊब से
आसमान की तरफ देखने लगता हूँ
आसमान मुझसे पूछता है
धरती के इस कोने का तापमान
मगर मेरे पास मात्र अनुमान है
इसलिए छूने से डरता हूँ धरती के कान
जब से सोकर उठा हूँ
मैं नींद को देख रहा हूँ बड़ी हिकारत से
दोबारा सोने से पहले मेरे कुछ डर है
मसलन अगर
इस बार आसमान ने पूछ लिया
मेरा ही द्रव्यमान
तो क्या कहूँगा उसे
फिलहाल जिस कोने पर बैठा हूँ मैं
वहां से कुछ भी नापा जाना सम्भव नही
मैनें आसमान की तरफ कर ली है पीठ
और धरती की आंखों में देख रहा हूँ
अपनी नींद में डूबी आंखें
शायद देखते-देखते फिर आ जाए नींद
और मैं सोते हुए बच सकूं सवालों से
लेकर कुछ अधूरे सपनों की ओट
नींद और जागने के मध्य
मैं तलाश रहा हूँ वो कोना
जहां मैं खुश हूँ ये बताना न पड़े किसी को
और मैं उदास हूँ छिपाना न पड़े किसी से।
©डॉ. अजित
धरती के सबसे निर्वासित कोने पर
अकेला बैठा हूँ
नींद की थकान के बाद
देख रहा रहा हूँ
जागे हुए चेहरों की उदासी
धरती घूम रही है अपनी गति से
इसका अनुमान लगाने के लिए मैं थम गया हूँ
मेरी गति अब पुराण की गति के बराबर है
जिसे दुर्गति, निर्गति, सद्गति
कुछ भी समझा जा सकता है
अपनी अपनी समझ के हिसाब से
जिस जगह मैं हूँ
वहां से एक रास्ता दुनिया की तरफ जाता है
एक रास्ता दुनिया की तरफ से आता है
मगर मैं जिस पगडंडी पर खड़ा हूँ
वहां से दोनों रास्ते अलग नही दिखते है
इसलिए मैं देखने की ऊब से
आसमान की तरफ देखने लगता हूँ
आसमान मुझसे पूछता है
धरती के इस कोने का तापमान
मगर मेरे पास मात्र अनुमान है
इसलिए छूने से डरता हूँ धरती के कान
जब से सोकर उठा हूँ
मैं नींद को देख रहा हूँ बड़ी हिकारत से
दोबारा सोने से पहले मेरे कुछ डर है
मसलन अगर
इस बार आसमान ने पूछ लिया
मेरा ही द्रव्यमान
तो क्या कहूँगा उसे
फिलहाल जिस कोने पर बैठा हूँ मैं
वहां से कुछ भी नापा जाना सम्भव नही
मैनें आसमान की तरफ कर ली है पीठ
और धरती की आंखों में देख रहा हूँ
अपनी नींद में डूबी आंखें
शायद देखते-देखते फिर आ जाए नींद
और मैं सोते हुए बच सकूं सवालों से
लेकर कुछ अधूरे सपनों की ओट
नींद और जागने के मध्य
मैं तलाश रहा हूँ वो कोना
जहां मैं खुश हूँ ये बताना न पड़े किसी को
और मैं उदास हूँ छिपाना न पड़े किसी से।
©डॉ. अजित
हमेशा की तरह लाजवाब।
ReplyDeleteसुन्दर रचना
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