Thursday, March 22, 2018

प्रसंगवश


जब तुम हंसती हो
तब नदी को पहली दफा आता है
समन्दर पर प्यार
वो बादलों से लेती है काला टीका उधार
नदी नही बताती दूसरी नदी को तुम्हारा पता
इसलिए केवल एक नदी के पास है
तुम्हारी हंसी का सही-सही अनुवाद

जब तुम रोती हो अकेले
सबसे छिपकर
रात भूल जाती है अपना समय चक्र
जल्दी आने के लिए
वो भेजती है भोर के घर हरकारा
इसलिए रात के पास नही
भोर के पास है
तुम्हारें आंसूओं की प्रतिलिपि

जब तुम करती हो कोई समझौता
तब झरना उतर आता है
अपने तल पर
वो लगाता है धरती की पीठ पर
अपने हाथ से मरहम
देखता है वेग की हिंसा
मगर लौट जाता है
बिना किसी आश्वासन के  

जब तुम करती हो कोई जिद
तब आसमान तोलता है हवा को
और तय कर देता है उसका मार्ग
इस तरह से धरती का एक हिस्सा
सुलगता है और एक होता है ठंडा एकसाथ 

जब तुम होती हो नाराज़
तब जंगल की तरफ
भागने लगता है शहर
हड़ताल पर बैठ जाते है चौराहे
मनुष्य को पहली बार वास्तव में
महसूस होता है भीड़ का अकेलापन

जब तुम मुस्कुराती हो बिन बात
तब फसल खत्म करती है
अपने कटने का शोक
वो नाचती है अन्न के पहन नुपूर
इस तरह से बिखरती है
धरती पर पहली मांगलिकता

© डॉ. अजित





4 comments: