एक
दीगर बातचीत में
तुमनें
मुझे
एक
बार मेरे नाम से पुकारा
एक
बार व्याकरण का सहारा लेकर
छुपा
लिया मेरा नाम
और
अंत में हँसते हुए कहा दुष्ट
मैं
तुम्हारा नाम लेने की
मन
ही मन भूमिका बनाता रह गया हर बार
अधूरे
रहें मेरे सारे सम्बोधन
ऐसा
नही कि तुम्हारे नाम पुकारनें का
आत्मविश्वास
नही था मेरे पास
बस
मैं पुकार नही पाया कभी
तुम्हें
तुम्हारे नाम से
जब
तुमने दुष्ट कहा मुझे
यकीन
करना दोस्त !
ठीक
उस वक्त मुझे हुआ यह अहसास
कि
सच में कितना बड़ा हूँ मैं.
©
डॉ. अजित
वाह
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