Friday, August 27, 2010

अंजाम

अब जीने का रोजाना अन्दाज बदलना पडता है

भीगें पर वाले परीन्दे को परवाज़ बदलना पडता है

जवाब उनसे मांगू क्या अपनी हसरत का

रिश्तों का लिहाज करके सवाल बदलना पडता है

अंजाम का अब डर ज्यादा है पहले से

ख्याल आने पर आगाज़ बदलना पडता है

मिलकर खो जाने का डर वो कब कह पाया

अब कहता है तो ज़ज्बात बदलना पडता है

महफिल मे जान आ जाती थी जिसके आने से

अब मिलने पर उसको नाम बदलना पडता है

वक्त के फिकरे जब कस जातें है

बिकना है तो अपना दाम बदलना पडता है

डा.अजीत

Thursday, August 26, 2010

किस्सा

तवज़्जो का तालिब दिल निकला

तकसीम होकर भी

हासिल सिफर निकला

वो ठहर कर प्यासा रह गया

मुनासिब दिल के वतन नही निकला

मुजरिम भी वो मुंसिफ भी वो

गवाह सच बोलकर बच निकला

दोस्त यारी के किस्सो मे रह गये

पुरानी डायरी से आज उनका खत निकला

हाजिरजवाबी दगा दे गई

वक्त इतना संगदिल निकला

तन्हा खडा था जो भीड मे

वो ही बडा गाफिल निकला

उम्मीद-ए-वफा जुर्म से कम नही इस दौर मे

अदावत जिससे थी वो ही दोस्त निकला

चलो भीड मे फिर से खो जाए

मिलने का यही सबब निकला...।

डा.अजीत

Wednesday, August 25, 2010

एक ख्याल

कुछ बेतरतीब ख्याल

और बेफिक्री की फिक्र मे

गुजरता वक्त

स्याह होती रात से

ज्यादा डरावना होता

आधी रात का अधूरा सपना

और पुराने रिश्तों को बुनती

नई सलाई

उस अहसास को

चाट रही है रात दिन

जिस पर नुक्कड के नाई की दुकान

पर अपनी बारी का इंतजार करना बुरा

नही लगता था

अब बहुत जल्दी बहुत कुछ बुरा लग जाता है

और अदरवायिज़ भी

पुराने दोस्त का तंज नही चुभता

कहकहो की हँसी चीर देती है बहुत कुछ

वक्त बदला

या वक्त ने मिज़ाज बदला

पता नही कुछ

पर कुछ तो बदला है

क्योंकि अब

उदासी बेवजह नही होती

पहले की तरह

लेकिन मेरे होने की वजह

सुबह का सवाल बन कर

घिर आयी है शाम को....

पुराने दरख्त की और लौटते

पंछियों को देखकर एक नम

हँसी लौट आई और कहा

छोड ये देश

चल परदेश

बदलकर भेष...।
डा.अजीत

Tuesday, August 17, 2010

उदास

वो दो शब्द थे

और एक बात

जिस पर हम मिले

और जुदा हुए

बेसबब उदासी की वजह

इतनी बेसबब भी नही थी

कुछ मेरे और कुछ तुम्हारे

ज़ज्बात हसीन अहसास के

गवाह न बन सके

स्याह रात की खामोशी

उस खामोशी से थोडी कम ही होगी

जब हमने तय किया

कुछ दूर तक साथ चलना

साथ चलना नसीब था

चल कर बदलना हकीकत

कुछ कदम सुस्त से

कुछ मे रफ्तार

सोचता हूं आज भी वो

रास्ते किस्से सुनाते होंगे आपस मे

जब दो मुसाफिर

साथ चले थे चार मील

कभी जरुरत पडी तो उन पेडों

की गवाही ली जा सकती है

जिसकी पत्तियां

तुमने मसलते हुए कहा था

ऐसे कैसे जीया जा सकता है

मै बदला

तुम बदली

हम दोनो बदल गये

लेकिन नही बदले वो रास्ते

जो गवाह है

हमारी खामोश रातों के

कभी आपस मे बतियाते होंगे

तो वो भी उदास हो जाते होंगे

मेरी तरह

जैसे मै आज उदास बैठा हूं

तुम्हारे बिना

और तुम्हारी मुस्कान पर

कही कविता लिखी जा रही है...।

डा.अजीत

Saturday, August 7, 2010

सफर

मौसम का मिज़ाज हादसों से क्या कहते

गुनाहगार बन कर हमराह कैसे रहते

वजूद बेख्याली मे बिखर गया

किनारे कब तक नदी के साथ बहते

हिम्मत पे तनकीद सब्र का इम्तिहान थी

तजरबे पर सवाल कैसे सहते

मै बिखरा हूं अपनी कमजोरियों से

तुम संवरने से पहले अपना हाल कहते

मंजिल ही न तय कर सका वो मुसाफिर

मील के पत्थर सफर की क्या दास्तां कहते

लौट आए हो तो ये मशविरा करके जाना

तन्हा मुसाफिर के इंतजार मे रस्ते नही रहते

दुआ उस फकीर की महफूज रखना

अंधेरा जब ज्यादा हो

जरा सी हवा चराग नही सहते..।

डा.अजीत