तेरी इस बात पर सोच कर हैरान हूं
दोस्त के घर लगता है मेहमान हूं
वक्त के आईने से छिपता फिरा
चेहरे से अपने अंजान हूं
नज़र ने नज़र से राज ये कह दिया
अब मै कहाँ उनकी पहचान हूं
काफिर को यकीन कैसे आता
मै सहर की अजान हूं
सब्र मेरा टूटने पर हुआ यकीन
देवता नही मै भी इंसान हूं
शराफत जहाँ बिकती है बेमौल
ज़ज्बात की मै वो दूकान हूं
डा.अजीत
सब्र मेरा टूटने पर हुआ यकीन देवता नही मै भी इंसान हूं शराफत जहाँ बिकती है बेमौल ज़ज्बात की मै वो दूकान
ReplyDeleteडॉक्टर साहब ..बहुत ही अच्छी बात आपने लिखी है
पढ़कर अच्छा लगा .
खूबसूरत रचना ..
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है। आभार।
ReplyDelete.
ReplyDeleteसब्र मेरा टूटने पर हुआ यकीन
देवता नही मै भी इंसान हूं
शराफत जहाँ बिकती है बेमौल
ज़ज्बात की मै वो दूकान हूं
lovely lines...mesmerizing indeed !
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सब्र मेरा टूटने पर हुआ यकीन
ReplyDeleteदेवता नही मै भी इंसान हूं !!!
बहुत सुन्दर रचना.....