चलो !
एक शाम
उस अहसास से
रोशन करें
जिसके वादामाफ गवाह
हम दोनो बन
कर अपनी-अपनी
मंजिलो के लिए रवाना
हुए थे
एक दूसरे की मजबूरी
साथ लिए
वो तमाम सवालात
जिनके जवाब जेहन मे
अल्फाज़ के मौत मरते देखा है हमने
उनको फिर से
जिन्दा करें
एक तसदीक बाकी है
अपने वजूद की
जिस पर कोई
जिरह न हो
बस कुछ अधुरे ख्वाबों
को गिरवी रख कर
एक इंच मुस्कान के साथ
एक ऐसा मशविरा करें
जिससे मेरे हमराह
इन रास्तों की दुश्वारियां
कुछ कम हो जाए
ठीक हमारी तरह से
जैसे हमारा मिलना-जुलना
कभी कम हुआ था....।
डा.अजीत
डा.अजीत जी
ReplyDeleteनमस्कार !
बहुत समय बाद आपके यहां पहुंचा हूं , पुरानी कई पोस्ट्स भी पढ़ी हैं अभी । निरंतर अच्छे सृजन-प्रयासों के लिए साधुवाद !
… प्रस्तुत कविता भी बहुत भावनात्मक संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है …
आप स्वस्थ , सुखी , प्रसन्न और दीर्घायु हों , हार्दिक शुभकामनाएं हैं …
संजय भास्कर
बहुत सुन्दर अहसास्।
ReplyDeletezindgi ka safar aapsi samjhauton aur haqikat ka samna karte huye hi
ReplyDeletetay kiya ja sakta hai!
bhavabhivyati ati sunder.
अधूरे ख्वोबों को गिरवी रखने का तरीका अच्छा है...
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत कविता...
जिस पर
ReplyDeleteकोई जिरह न हो
बस कुछ
अधुरे ख्वाबों को
गिरवी रख कर
एक इंच मुस्कान के साथ
बहुत खूबसूरत बात कही है ...बहुत पसंद आई यह रचना