Thursday, May 15, 2014

नज्म

एक
तकसीम ख्याल
दो रूह
एक जिस्म
ढेरों शिकवे
अधूरे सपनें
कच्ची ख्वाहिशें
उलझे सवाल
और एक मुकम्मल ताल्लुक
को किस्तों में
तुम्हे लौटा रहा हूँ
उदासी की शक्ल में
ये जो मेरी बातों में
सिलवटें है
दरअसल
वो मेरे वजूद का
कतरा कतरा
बिखरा हुआ अक्स है
जिसकी तुरपाई
में तुम्हारी बिनाई कमजोर
हो गई  है
और अंगुली जख्मी
जिन जख्मों की दर्द
दवा न बन सके
जिन गमों को मुहब्बत
महफूज़ न रख सके
ऐसी बेवा मुहब्बत को
हिज्र के हवाले कर
अपने रास्ते अख्तियार करने का
हक आज तुम्हे देता हूँ
किस हक से
यह तुम्हें तय करना है
हो सके तो जल्दी करना
क्योंकि
ये तुम्हें भी पता है
मुझे मुकरने की आदत है।

© डॉ. अजीत




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