Monday, August 11, 2014

मशविरा

अल्फाज़ धूल से बिखरे हुए थे
जब तुमने मुहब्बत में तंज किया
और रंज करते हुए कहा
मुझे तुम्हारी फ़िक्र नही
फ़िक्र दरअसल अंग्रेजी चश्मा है
विलायत जैसा झूठा
इसके बाहर एक सख्त दुनिया है हकीकत की
तुम सहर की अजान की तरह बेपरवाह हो
ये अलग बात है तुम्हारी इबादत
मेरे हिस्से में आयी है
तुम्हारे मलाल को रफू करते करते
मेरी अंगुली जख्मी हो गई है
मेरी आस्तीन पर तुमने जो
भरोसे का बटन लगाया था
वो आधा लटका हुआ है टूटकर
इसी डर से कमीज धोई नही मुद्दत से
मेरी फ़िक्र तुम्हे वक्त के इस स्याह चश्में
में शायद ही दिखाई देगी
खुद की जिन्दगी में हाशिए पर पड़ा
तुम्हे रोज़ जमा-नफ़ी करता हूँ
हासिल सिफर आने पर डरता हूँ
मेरे चेहरें पर ये जो किस्तों में पुती हंसी है
दरअसल ये तुम्हारी हसीन यादों का सूद है
जिसके सहारे मै
तमाशबीनों का मजमा लगाए बैठा हूँ
दुनिया मुझे मदारी समझती है
और तुम मतलबी
रंज ओ' मलाल से गर मिले फुरसत
तो देखना शाम के अँधेरे में
कोई भटका हुआ परिंदा
कोई पुराना खत
शायद मेरा सही पता मिल जाए
इल्म की यह आख़िरी कोशिस
तुम्हें एक बार जरुर करनी चाहिए
यह मशविरा है मेरा
मानों न मानों
तुम्हारी मर्जी।

© अजीत

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