Wednesday, August 13, 2014

मझधार

कविताएँ उतरोत्तर
अपने पाठक खोती गई
और गज़लें शामीन
कहानी लिख न सका
अलोचना से खुद घिर गया
गद्य-पद्य सौतेले भाई निकले
विचार और सम्वेदना
उथल गई साहिल पर
उसने बिन पतवार की
नाव  खोली
और उसमें लेट दोनों हाथों से
पतवार का काम लेता
आसमान से देख बुदबुदाता
दरिया के बीच चला आया
उसे नींद आ रही थी
कविता ने तुला दान किया
प्रज्ञा ने महामृत्युंजय मन्त्र पढ़ा
और उसने अपने पाठकों से
माफी मांग
मृत्यु को जीवन का महाकाव्य कहा
एक नगमें की मौत पर
नदी आज भी रोती है
उसके लिए
मगर उसके आंसु
कौन देख पाता है
वो बूढ़ी नाव आज भी
यदा कदा नदी में दिख जाती है
उसे अफ़सोस  है
किसी को मझधार में
छोड़ने का।

© अजीत


1 comment: