Saturday, August 23, 2014

साथ

मै परवाह कर रहा था उन दरख्तों की
जो झुंड में अकेले पड़ गए थे
पतझड़ में हरे रहने की कीमत उन्होंने
दरख्तों की बेरुखी से चुकाई थी
उनके तने खुरदरे नही थे
मगर शाखाएं इस कदर उलझी हुई थी कि
उन दरख्तों की पत्ते अपना आकर्षण खो बैठे
उन दरख्तों की छाँव घनी थी
मगर लू को ठंडा करने में वो असमर्थ थी
ये दरख्त किसी ने लगाए नही थे
निष्प्रयोज्य समझे गए बीजों की जिद की
उपज थे ये तन्हा दरख्त
दरख्तों के बड़े समूहों ने
उन्हें हमेशा अवैध ही समझा जबकि
उनका कद उनसे बड़ा था
इस परवाह में एक कौतुहल छिपा था कि
आखिर बहिष्कार का दर्द झेलते हुए भी
इन दरख्तों को कभी शिकायत करते नही देखा
बड़े चक्रवातों में इन दरख्तों को
झुकते देखा मगर उखड़ते नही
इन दरख्तों की परवाह में
समझदारी का पाठ भी था
जिसे मै रोज पढ़ रहा था
जंगल के मनोविज्ञान में
इन दरख्तों की दोस्ती ने मुझे
एकांत के जंगल में उन तन्हा वनस्पतियों से भी मिलवाया
जिनका वैज्ञानिक नाम
वनस्पतिविज्ञानी भी नही खोज पाए थे
आज भी मेरी जेब में मिल सकते है उनके कोमल तने
उनका साथ होना
लगभग ऐसा अहसास देता कि
कोई सतत साथ है फ़िक्र के साथ
दरअसल सच तो यह है कि
परवाह और देखभाल करना
मै इन तन्हा दरख्तों से सीख पाया।

© अजीत

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