Saturday, June 6, 2015

खेत और कविता

तुम्हें अचानक से सामनें देख
ठीक उतनी खुशी होती है
जितनी धान की निकली बाली को
पहली बार देख कर होती है
मुरझानें के डर से
उसकी तरफ उंगली नही करता
और तुम्हारी तरफ नजर।
***
तुम्हारे अंदर
पड़ा रहना चाहता हूँ
अनुपचारित बीज की तरह
शायद कभी तुम्हारे एकांत की  नमी में
अकुंरित हो जाऊं
और छाया दे सकूं
तुम्हारे तपते मन को।
***
देह की मिट्टी पर
उगतें है कुछ खरपतवार
जिनकी कोमलता पर
मुग्ध हो
हम खो बैठतें
सम्बंधों की उत्पादकता।
***
बदलती जलवायु ने
बदल दिया है
फसलों के पकनें का समय
ठीक वैसे ही
जैसे तुम्हारी अनायास उदासीनता ने
बदल दिया है
खुश रहनें का वक्त।
***
खेत पर मेढ़ जाती है
जिस पर चलता हूँ
बड़ा सन्तुलन साध कर
वरना गिर सकता हूँ
लड़खड़ाकर
तुम्हारे घर सीधी सड़क जाती है
नही उठा पाता एक कदम
तमाम साधन संतुलन के बाद भी
यहां गिरनें का नही
पहूंचने का भय है।
***
जलस्तर देख
पौधा कर लेता है समझौता
सीमित कर लेता है जरूरतें
सहन कर लेता है ताप
समझता है धरती की मजबूरी
और खुद की सीमा
तुम उखाड़ देती हो मुझे
कांट-छाँट के नाम पर
मन की बालकनी से
अपनी कोमल ऊंगलियों से
बिना मुझे बताए।

© डॉ.अजित

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