Wednesday, October 21, 2015

फर्क

उसनें कहा
तुम खुश होना भूल गए हो
तुम्हारी ध्वनियां अनुशासित है बहुत
बेवजह की एक चीज है तुम्हारे पास
वो है उदासी
तुम प्रशंसा की खुराक पर जीवित हो
मगर उसका भी उपयोग नही जानते
विलम्ब और अनिच्छा से मध्य सो रहे हो
न जाने कब से
मैंने कहा सब का सब सच कहा तुमनें
फिर वो उखड़ गई
मेरे आत्म समपर्ण पर और बोली
सच कहूँ या झूठ
तुम्हें क्या फर्क पड़ता है
मैंने कहा फर्क पड़े न पड़े
इस बहाने तुम्हारी अरुचि पढ़ लेता हूँ मैं
और खुश हो जाता हूँ
अपनें ऐसा होने पर
वैसे एक बात यह भी है
हम एक दुसरे को बदलनें के लिए नही
एक दुसरे के लिए जीने के लिए बनें हैं।

© डॉ. अजित 

Sunday, October 18, 2015

जोखिम

सन्नाटें के मध्य
चुपचाप पड़ी है कुछ ध्वनियां

एक रूमानी गीत के मध्य
उपस्थित है बेसबब बिछड़ने का सबब

रात और दिन
सुबह और शाम के मध्य
जिन्दा है समय का मिला-जुला प्रभाव

ऐसे में यह तय करना
सबसे मुश्किल था
कौन निकट है कौन दूर

फिर भी
मैं सतत् चलता रहा एक ही दिशा में अनवरत्

उम्मीद थी पहूंच जाऊँगा तुम तक एकदिन

उम्मीद को परखना
जीवन का सबसे बड़ा ज्ञात जोखिम था।

© डॉ.अजित

दफ्तरी प्रेम

किसी पुरानी फाइल में
बसी नमी सा था मेरा प्रेम
जिसकी गोद में
हाशिए पर दर्ज थी
टिप्पणियाँ संस्तुस्तियाँ अग्रसारण
और अस्वीकृतियाँ
मेरा अस्तित्व बचा था
एक अनुपयोगी दस्तावेज़ की शक्ल में
जिसे इन्तजार था
अवशिष्ट निस्तारण की एक
आधिकारिक निविदा का
मन के सरकारी दफ्तर में
एक निर्जन कोने में पड़े करना था
मुझे एक उपयुक्त समय का इन्तजार
ताकि अनिच्छाओं के टैग से निकाल
कर दिया जाए मुझे
आग और हवा के हवाले।
***
एक परिपक्व प्रेम सम्बन्ध में
मेरे हिस्से आई थी
कुछ सीएल कुछ ईएल
मैं जी रहा था प्रेम
पूर्व स्वीकृत डीएल की तरह
अवकाश के हिस्सों में
प्रेम का विस्तार उगा था
बेहद ऊबड़ खाबड़
वित्तीय वर्ष की समाप्ति पर
अफ़सोस की शक्ल में
मेरी यादें काउंट हुई
उसके बाद से
मैं एम एल पर था
निरन्तर...!
***
क्यों न आपके खिलाफ
अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाए की
तर्ज़ पर एकदिन मुझे मिला था नोटिस
क्यों न आपको विस्मृत कर
आगे बढ़ा जाए
मैं जवाब में व्याख्या पत्र बना ही रहा था कि
एकपक्षीय निर्णय लेते हुए
कर दिया गया मुझे बर्खास्त
खेद इस बात का है
इसके बाद किसी भी न्यायालय ने
नही की स्वीकार
मेरी दया याचिका।
***
मेरे उत्साह पर
रख दिया तुमनें एक दिन
अपने ज्ञान का पेपरवेट
मैं फड़फड़ा नही
बल्कि अस्त व्यस्त घूम रहा था
तुम्हारी दुनिया में
कागज़ की तरह दब गया मैं
तुम खुश थी
खुद के अनुशासन पर।
***
डस्टबिन के तल
पर विश्राम कर रही थी
मेरी मुलाकात की कुछ अर्जियां
खिन्नता से तुमनें
जैसे ही खाली करने का आदेश दिया
सेवक को
मैं समझ गया
असली निर्वाण का
समय आ गया है अब
उन अर्जियों को जला
ताप रहे थे दफ्तर के लोग
मैं धुआं बन उड़ रहा था
तुम्हारे रोशनदान की ओर
मोह की माया इसी को कहते शायद।

© डॉ.अजित

(प्रेम में दफ्तरी हो जाना)

Friday, October 16, 2015

आदमी

दिखनें में होता है
बेहद सामान्य
या फिर औसत से थोड़ा बेहतर
वाग्मिता में निपुण
और औचित्य सिद्ध में दीक्षित
अंदर से मरा हुआ आदमी
मौत एक ही बार नही आती
यह उपस्थित रहती है टुकड़ो में भी
अंदर से मरे हुए आदमी को
कुछ ही जिन्दा लोग पहचान पातें है
ये शिनाख्त करने का कौशल
लगभग जीवनपर्यन्त उपलब्धि जैसा है
और उनके जिन्दा होने का प्रमाण भी
अंदर से मरा हुआ आदमी
कम हंसता है
वो जानता है हंसी की कीमत
कम बोलता है
उसे होता है मृत्यु के सार्वजनिक होने का भय
वो तलाशता है एकांत
ताकि अंदर की मौत को बाहर विदा कर सके
मगर हर बार
मौत लौट कर आती है उस तक चुपचाप
अंदर से मरे हुए आदमी को
अनिच्छा से होता है प्रेम
वो करता जाता है विलम्बित
पंचांग के तमाम शुभ महूर्तों को
अंदर से मरा हुआ आदमी
जिन्दा लोगो के बीच सबसे खतरनाक जीव है
क्योंकि वो बार बार याद दिलाता है
जिन्दा और मरे हुए का फर्क
जिंदा रहने के लिए
इस फर्क को भूलना अनिवार्य योग्यता है
इसलिए अंदर से मरा हुआ आदमी
बाहर जिन्दा रहता है
ताकि जिंदा रहें बाहर के लोग।

© डॉ.अजित


Wednesday, October 14, 2015

एक डिप्रेश सी शाम में
याद आता है
सबसे उदास गीत
जिसके एक अन्तरे में
तुम्हारा जिक्र मिलता है
उसी जिक्र के सहारे
मैं लौट आता हूँ
खुद के गैर जरूरी
होने की वसीयत पर
अफ़सोस
वो अमल करने लायक
तभी होगी
जब रफ्ता रफ्ता खतम हो जाऊँगा मैं
जैसे खतम हो जाती
नए कलम में पुरानी स्याही।
©डॉ. अजित

Thursday, October 8, 2015

भविष्यवाणी

तुम्हारा विस्मय समझता हूँ
तुम्हें अचरज है
मेरे तुम पर अटक जाने पर
पात्र अपात्र की धूरी को भूल
तुम्हारे केंद्र की परिक्रमा करने पर
तुम थोड़ी सशंकित भी हो
मगर एक बात है
जो तुम भूल रही हो
मैं अपनी ही कक्षा के चक्कर लगा रहा हूँ
उपग्रह की भाँति
एक दिन नष्ट हो जाऊँगा
टकरा कर किसी धूमकेतु से
इसलिए आश्वस्त रहो
मुझसे कोई खतरा नही है तुम्हें
अवशेष तक को
तुम्हारी भूमि न मिलेगी
इसकी प्रत्याभूति देता हूँ मैं
मेरी भूमिका फिलहाल
अंतर्मन को कुछ छूटे चित्र भेजनें भर की है
ताकि मन के मौसम की जीते जी
कुछ सटीक भविष्यवाणी की जा सके
जिसे कुछ लोग
मेरी कविता भी समझतें है।
© डॉ.अजित 

Wednesday, October 7, 2015

स्मृतियां

एक दिन केवल बच जाएंगे
स्मृतियों के भोजपत्र
जिन पर यंत्र की भाषा में लिखी होंगी
तुम्हारी हितकामनाएं
मैं भूल चूका हूँगा तब तक
उसकी प्राण प्रतिष्ठा के बीज मंत्र
उन्हें उड़ा देना होगा हवा में या फिर
बहा देना होगा बहते जल में
स्मृतियों की ऐसी गति देख
समय हंसेगा मुझ पर
और मैं खड़ा रहूंगा
थोड़ा निष्प्रभ थोड़ा अवाक्
मैं उस दिन की प्रतिक्षा में नही हूँ
इसलिए मुझमें उत्साह की मात्रा
कुछ प्रतिशत कम नजर आती है
स्मृतियों के औचित्य सिद्ध करने के
सूत्र नही मिलते किसी किताब में
ज्ञात अज्ञात के मध्य
ये रेंगती है अपने हिसाब से
स्मृतियों का उपयोग करना नही आता मुझे
इसलिए भी दुविधा में हूँ
तुम्हारे बिना
तुम्हारी स्मृतियों का क्या करूँगा मैं।

© डॉ. अजित

Monday, October 5, 2015

प्रेम का विमर्श

उसनें सच्चाई से कहा एक दिन
प्रेम नही करती तुमसे मैं
मैंने धन्यवाद कहा
प्रेम करने से बचता नही है
प्रेम को जीना पड़ता है
अपने अपने हिसाब से।
***
तुम भी मुझसे प्रेम नही करते
मेरे बारें ये उसकी आम राय थी
मैंने कहा हां नही करता तुमसे प्रेम
मैं वो हर काम करने से बचता हूँ
जिसमें मूलयांकन अनिवार्य हो
मैं जीता हूँ बस तुम्हें सोचते हुए
बिना शर्त बन्धन मुक्त।
***
प्रेम में उड़ान भूल जाते है पंछी
भटक जाते है वो नीड़ से
यह कहते हुए
तुम उपदेशक की भूमिका में थी
मैंने कहा
भटकना भी जरूरी होता है प्रेम में
बंधकर नही किया जाता कभी प्रेम
भटकन प्रेम का शाश्वत सच है।
***
प्रेम बंधन में बांधता है या मुक्त करता है
अचानक तुमनें ये दार्शनिक प्रश्न किया
प्रेम न बांधता है
न मुक्त ही करता है
प्रेम विस्तारित करता है
हमारे अस्तित्व का सच
सच प्रिय अप्रिय हो सकता है
फिर तुमनें प्रतिप्रश्न नही किया।

© डॉ. अजित