Thursday, December 8, 2011

कयास

अपने वहम औ कयास रहने दो

मुझे अपने आस-पास रहने दो


थक गया है अब किरदार मेरा

कुछ दिन इसे बेलिबास रहने दो


दोस्त फनकार बन गए है सब

नाचीज़ को बस खाकसार रहने दो


हंसने मे जो शख्स माहिर था

उसे कुछ दिन उदास रहने दो


नज़रो से जो गिर गया हो बेवजह

उसे अब बस मयख्वार रहने दो


डॉ.अजीत

Wednesday, December 7, 2011

गज़ल

यूँ ही वहम औ कयास लगाते रहिए

जख्मों से आदतन पट्टी हटाते रहिए


फिक्रमंद होना तहजीब की बात है

हक जताने पर ऐतराज़ जताते रहिए


इंसान को खुदा कहने वाले बहुत मिले

गुजारिश है आईना मुझे दिखाते रहिए


बेसबब दुनिया से जब जी भर जाए

हम से दिल अपना बहलाते रहिए


मुमकिन है भीड मे पहचान न पाउँ

हम कब क्यों कैसे मिले बताते रहिए


मेरा अक्स मुकम्मल नही हैं कतरा-कतरा

अधूरेपन मे दिलचस्पी हो तो आते रहिए


बोझिल आँखों पर तब्सरा क्यों करुँ

आप फकत बस यूँ ही मुस्कुराते रहिए


डॉ.अजीत

Tuesday, November 29, 2011

अदा

जख्मों को इस तरह सीना चाहता हूँ

बस अपनी शर्तों पर जीना चाहता हूँ


आप जिद कर ही बैठे है सुनने की

तो फिर पहले थोडी पीना चाहता हूँ


वो वक्त भी अजीब था जब शौक था

आजकल लोगो की फरमाईश पर गाता हूँ


दर्द जिसके साथ बांटे वो बेकद्र निकला

अब अक्सर हँसकर जख्म छुपाता हूँ


अपनी फकीरी का ये अन्दाज़ भी अजीब है

जो दर बेआस है उस पर अलख जगाता हूँ


मुझसा कोई न मिला होगा अब से पहले

चलिए ये फैसला आप पर ही छोड जाता हूँ


डॉ.अजीत

Friday, November 25, 2011

बहाना

अक्सर शाम होते ही उदास हो गये

झुठा बहाना सुनकर बच्चे सो गये


दुनिया के लिए जो था मशहूर बहुत

किस्से उसके कहानियों में खो गये


महफिल की तन्हाई देखकर शेख बोले

इतने लोगो कैसे खुदा पसंद हो गये


रोज जीना रोज़ मरना खेल नही है

ऐसे बेअदब हम यूँ ही नही हो गये


नज़र ब्याँ कर गयी दिलों के फांसले

अपनों के अन्दाज़ अजनबी हो गये


उदासी का लुत्फ अजीब ही निकाला

मुस्कुराने की बात पर भी रो गये


डॉ.अजीत

Thursday, November 3, 2011

दौर

आपकी तकलीफ काबिल-ए-गौर है

ये इंसानो को जल्दी भुला देने का दौर है


पहले अक्सर उदास हो जाता था मै भी

आजकल अपनी याददाश्त कमजोर है


उदास आंखो में चमक नही फबती

ऐसा नही है मेरा ध्यान कही और है


दो आँसू छलक जातें जिसकी याद में

वो समझता है बंदा दिल का कमजोर है


मंजिल मुबारक तुम्हे ए हमराह

अपने काफिले का रास्तों पर ठौर है


महफिल मे आदाब सीख कर जाना

वहाँ सभी कहते है एक जाम और है


डॉ.अजीत

Sunday, September 4, 2011

इन दिनों...

इन दिनों

मै बेबात नाराज़

हो जाता हूँ

मिलने हमेशा देर से

जाता हूँ

जीने के लिए

रोज़ाना एक नई कहानी बनाता हूँ

इन दिनों

बहुत पुराने दोस्तों से मन

भर गया है

कुछ दुश्मन शिद्दत से याद आ रहें है

वैसे एकदम खाली हूँ

लेकिन व्यस्त होने का

बढिया नाटक कर रहा हूँ

अप्रासंगिक होकर भी

अपने होने को जस्टीफाई करने

के तमाम तर्क गढ लिए है मैने

इन दिनों

ऐसा अक्सर होता है कि

फोन जानबूझ कर बंद कर देता हूँ

ताकि मिलने/पूछने पर

लोग फोन न मिलने की शिकायत कर सकें

और मै खिसिया कर महान बन सकूँ

इन दिनों

दिन मे सोना,रात मे खोना

और मन ही मन रोना

अच्छा लगने लगा है

इन दिनों

मुझे यह भी लगने लगा है कि

जल्दी ही सबसे मन ऊब रहा है

चाहे वो पुराने-नये दोस्त हों

या कोई शगल

ऐसा भी लगता है जैसे

रोज़ सफर पर हूँ

लेकिन जाना कहीं नही

ज़िन्दगी से आकर्षण बिछड

गया है

न ये अवसाद है

न तनाव

न अस्थाई होने की कुंठा

फिर कुछ तो है

जो इन दिनों

मुझे रोज़ ज़िन्दा करती है

और रोज़ मार देती है

वैसे इस तमाम उधेडबुन में

एक बात अच्छी है

इन दिनों

मै अपने साथ हूँ....!

डॉ.अजीत

Friday, August 26, 2011

शून्य

दोस्तों से शेयर

करने के लिए

उपलब्धि या दुख

का होना जरुरी है

लेकिन क्या

दोस्ती के व्याकरण

मे ऐसा भी कोई

नियम है कि

जब मन के उस

विराट शून्य को

जहाँ न कोई

उपलब्धि हो

न कोई दुख

बस एक निर्वात हो

और उसे बिना

कहे शेयर किया जा सके

जहाँ न किन्तु हो न परंतु

बस अबोला संवाद हो

सुख-दुख हार-जीत

अपेक्षा से परे एक ऐसा भाव

जिसमे ठहराव है जन्मजात

बैचेनी है

और शून्य मे विलीन होने

की एक मूकबधिर सी अभिलाषा

अफसोस!

ऐसे दोस्त संविदा पर नही मिलते

होते है किसी-किसी के पास

फिर वहाँ ऐसा शून्य

आधार बनता है किसी

नए आत्मीय संवाद का....!

डॉ.अजीत

Saturday, August 13, 2011

बात-बेबात

सवालों की ज़बान मे जवाबों की बातें करें

मिलने की आरज़ू मे खो जाने की बातें करें


मुडकर भी जिसने देखा न हो एक बार

हम फिर क्यों उसके जाने की बातें करें


जब कशिस खो गई गुलदानों की

फिर कैसे उनके सजाने की बातें करें


मौत तो मारेगी एक बार ये तय है

आज कुछ जीने के बहानों की बातें करें


हौसला उससे उधार मिल ही नही सकता

जो महफिल से बेबात जाने की बातें करें


माना कि वो बदनाम है बहुत महफिलों में

फिर भी सभी उसी को बुलानें की बातें करें


डॉ.अजीत

Thursday, August 4, 2011

एनसीआर

अपने कामयाब

दोस्तों से मिलने

के लिए एनसीआर

से बढिया जगह कुछ और

हो ही नही सकती

अपने वक्त के कुछ बेहद सफल समझे गए

दोस्तों से मिलने के लिए

एनसीआर में एक जगह

की तलाश जारी है

रिंग रोड की तरह

खुद पर घुमकर आ जाता हूँ

और पाता हूँ कि

अपने-पराये रिश्तों के समकोणों

के बीच का सफर

कितना जोखिम भरा हो सकता है

लेकिन मिलना भी जरुरी है

आग्रह है कि दिल्ली से जब भी

गुजरो कम से कम

एक मिस्स कॉल ही कर दिया करों

अपने करीबी दोस्तों को मिस्स

करते हुए ये ख्याल आता है

कि एनसीआर की हवा पानी में

ऐसा क्या है कि

जो आदमी को बदलने की जिद पर

उतर आती है

प्रेक्टिकल होने का रोज सबक सिखाती है

खामोशी खुद ब खुद गुनगुनाती है

तभी तो न जाने क्यूँ

अपने करीबी दोस्तों से

एनसीआर मे मिलनें

की ख्वाहिश

एक हफ्ता और खिसक जाती है....!

डॉ.अजीत

Tuesday, June 14, 2011

मुखबिर

परेशान दोस्तों के लिए एक कविता



चला जाऊँगा एक दिन
जैसे हर दिन चला जाता है कभी न लौटने के लिए
चला जाऊँगा जैसे चला जाता है सभा के बीच से उठाकर कोई
जैसे उम्र के साथ जिंदगी से चले जाते हैं सपने तमाम
जैसे किसी के होठों पर एक प्यास रख उम्र चली जाती है

इतने परेशान न हो मेरे दोस्तों
कभी सोचा था बस तुम ही होगे साथ और चलते रहेंगे क़दम खुद ब खुद
बहुत चाहा था तुम्हारे कदमो से चलना
किसी पीछे छूट गए सा चला जाऊँगा एक दिन दृश्य से
बस कुछ दिन और मेरे ये कड़वे बोल
बस कुछ दिन और मेरी ये छटपटाहट
बस कुछ दिन और मेरे ये बेहूदा सवालात
फिर सब कुछ हो जाएगा सामान्य
खत्म हो जाऊँगा किसी मुश्किल किताब सा
कितने दिन जलेगी दोनों सिरों से जलती यह अशक्त मोमबत्ती
भभक कर बुझ जाऊँगा एक दिन सौंपकर तुम्हें तुम्हारे हिस्से का अन्धेरा

उम्र का क्या है खत्म ही हो जाती है एक दिन
सिर्फ साँसों के खत्म होने से ही तो नहीं होता खत्म कोई इंसान
एक दिन खत्म हो जाऊँगा जैसे खत्म हो जाती है बहुत दिन बाद मिले दोस्तों की बातें
एक दिन रीत जाउंगा जैसे रीत जाते है गर्मियों में तालाब
एक मुसलसल असुविधा है मेरा होना
तिरस्कारों के बोझ से दब खत्म हो जायेगी यह भी एक दिन
दृश्य में होता हुआ हो जाऊँगा एक दिन अदृश्य
अँधेरे के साथ जिस तरह खत्म होती जाती हैं परछाईयाँ

एक दिन चला जाउंगा मैं भी
जैसे हर दिन चला जाता है कभी न लौटने के लिए....


अशोक कुमार पाण्डेय

ब्लॉग: http://asuvidha.blogspot.com/

(श्री अशोक कुमार पाण्डेय जी का हार्दिक धन्यवाद उन्होनें न केवल मेरी पीड़ा को शब्दों मे पिरोया बल्कि मुझे अपनी इस अमूल्य कविता को इस तरह से प्रयोग करने की अनुमति भी दी जिसके लिए मैं कृतज्ञता प्रकट करता हूँ....डॉ.अजीत)

Saturday, March 5, 2011

काश!

काश!

सपनें गिरवी रख कर

नींद उधार मिल जाती

पुरानी फिल्मों की तरह

याददाश्त चली जाती

और कोई कोशिस भी न करता

वापिस लाने की

दोस्त शिष्टाचार की क्लास छोड

अपनेपन को बचाने की सोचतें

दुश्मन डर कर योजनाएं बनाने की बजाए

खुल कर ललकारता युद्द के लिए

बोलता..... आक्रमण.... महाभारत की तरह

पत्नि बेवजह फिक्र करना छोड देती

और दोस्तों पर तंज कसना भी

माँ कभी-कभी बीमारी न बताकर

जो मेरी बडाई वो सुनती है

उसका कोई किस्सा सुनाती

पिता की अपेक्षाएं घट जाती

स्वीकार कर लेता मेरा नालायक होना

प्रेमिका मुझे अपना मोबाईल नम्बर

बदलने का एसएमएस कर देती

पुराना दोस्त मिलने पर

बच्चों की खैरियत न पूछता

बच्चा मेरी हैसियत से ज्यादा

कोई चीज़ लाने की जिद न करता

भाई मुझे ले जाता एकांत में

और समझाता अपनी मजबूरी

जो नाराज़ है बरसो से वो

बिना किसी सफाई के मान जाता

जिनके चेहरे नापसंद हैं बेहद

उनसे रोज़ाना मिलना न होता

शुभकामनाओं के औपचारिक

फोन/एसएमएस न आतें नये साल/जन्मदिन पर

रिश्तेंदार कद,पद और कर्जे की

तफ्तीश न करते पाये जातें

तब शायद इस बेवजह मशरुफ

रहने वाली दूनियादारी में

कुछ दिन और जी सकता था मैं...।

डा.अजीत

Friday, March 4, 2011

चश्में का नम्बर

अपने बेहद करीबी

को दूर देखने और

दूर को करीब महसूस

करने के लिए

चश्में की कभी जरुरत होगी

ये सोचा न था

नंगी आंखों से ग्रहण

देखने की आदत में

इंसान की फितरत

नही देख पाने का

मलाल होता है

कभी-कभी शाम को

वक्त का मिज़ाज

एक नसीहत बन कर

जब भी उभरता है तो

कुछ सवाल बिना जवाब

के दफन हो जातें हैं

मुस्कानों मे छिपी

जर्द खामोशी अपनी

बेबसी पर सिसकती है

उम्र का तकाज़ा

तज़रबे की कुछ पन्ने स्याह

करके आगे बढ जाता है

रिश्तों की उधेडबुन मे

उलझा मन बेबस होकर

यह कहता है दिल को समझाने के लिए

चश्में का नंबर

बदल गया है शायद...।

डा.अजीत

Monday, February 14, 2011

समझ

दोस्ती भटकती रही महफिल में

दोस्त समझदार हो गये

बिकने के लिए जब वो निकला

बेचने वाले खरीददार हो गये

एक बार मिला तो ऐसे मिला

तन्हा भी उसके तलबगार हो गये

जिसने रोशन की थी शमा

वो हवाओं के पैरोकार हो गये

सफर मे जो फकीर मिले थें

वो अब ज़मीदार हो गये

हवेली गिरवी रख कर

लोग अब किरायेदार हो गये

उसने मशविरा किया गैर से

तब महसूस हुआ बेकार हो गये

फैसला उसका था दिल मेरा

फिर दोनो मयख्वार हो गये...।

डा.अजीत

Tuesday, February 8, 2011

दुश्मन दोस्त

कुछ शब्द

बुरे वक्त के

अच्छे दोस्त के नाम

और एक धन्यवाद

अच्छे वक्त के बुरे

दोस्त के नाम

लिखकर मै उस राहत

का अनुभव करना

चाहता हूँ जिसका

बोझ ढो रहा हूँ

लम्बे अरसे से

सच तो यह है कि

दोस्त कभी बुरे

नही होते

बुरा होता है वह वक्त

जब कोई अपना लगता है

या फिर पराया

अपने-पराये का ये भेद

दरअसल उस उम्मीदों

के संसार का छलावा है

जिसमे लोग करीब आकर

बिछड जातें हैं और

छोड जातें है एक टीस

ज़िन्दगी भर के लिए

धन्यवाद और शिकायत

के सहारे उनको याद करके

जी भर कर कोसा जा सकता हैं

कुछ पुराने साथियों को

उनकी कुछ अच्छी कुछ बुरी

आदतों के लिए

जिसकी वजह से

हम प्यार के बाद

नफरत करना सीख पायें...।

डा.अजीत