Friday, May 23, 2014

ताकि सनद रहे

निजता के प्रश्न
अधूरे थे
जिन्दगी बिना करवट
पसरती जा रही थी
निहत्थे खड़ा
अपनी बर्बादी का
वो सबसे चुस्त
तमाशबीन था
हकीकत की रोशनी
का काजल
स्याह आँख में
आंसूओं को आश्रय दे रहा था
सिसकियों की सरगम
पर वक्त ने जो आलाप छेड़ा
उसके बंध और मजबूती से जकड़ गए
सपनों के गलियारें में गुमनाम भटकते
उसके हसीन पल
निर्वासन झेल रहे थे
इतने मुश्किल दौर में
जब खुद का जीना
चुनौति भरा रहा हो
किसी हंसी ख्याल
को बुनता उधेड़ता
रिश्तों की जमापूंजी को
खर्च करता
महफिलों में वो शख्स
अक्सर उदास पाया जाता
उसकी वसीयत में साफ़ साफ़
लिखा था
माफीनामा
जिसके  हिस्से करने थे
अपने हक के हिसाब से
चंद दोस्तों को
चंद दुश्मनों को
और कुछ हसीनाओं को
ताकि सनद रहे।
© डॉ. अजीत





चालाकी

रिश्तों में अवैध शब्द
एक बेतुका प्रयोग है
वैध या अवैध मनुष्यता के
पैमाने है
अपनी सुविधा के लिए
गढ़े गए सामाजिक प्रतिमान
कोई रिश्ता तब तक
अवैध नही हो सकता
जब तक उसमे छल न हो
और तब तक वैध नही
जब तक उसमे प्रेम न हो
रिश्ता तब तक रिश्ता नही होता
जब तक उसमे विश्वास न हो
विश्वास दुनिया का सबसे
हसीन छल है
जैसे प्रेम दुनिया में ईश्वर से भी बड़ा
विवादास्पद विषय है
ठीक वैसे ही स्त्री का विश्लेषण
सबसे बेतुका प्रयास है
जिन्दगी ऐसे ही वाहियात और
बेतुके प्रपंचो से अटी पड़ी
एक सूखी नदी है
जिस पर हम फख्र कर सके
वह बस हमारी चालाकी है
जिसे मनुष्य ने सांस लेने से
पहले सीखा था
रिश्तों को चालाकी बचाती है
और चालाकी को रिश्तें
दुनिया चल रही है यथावत
यह ईश्वर की चालाकी है
और मनुष्य को वैध-अवैध के
संकट में फंसाकर रखना
उसका एक युक्तियुक्त प्रपंच
हम नैतिकता के बोझ में झुकते है
ईश्वर उसे सजदा समझ खुश हो लेता है
इस दौर की इबादत का एक
चालाकी भरा सच यह भी है।

© डॉ. अजीत

Thursday, May 15, 2014

नज्म

एक
तकसीम ख्याल
दो रूह
एक जिस्म
ढेरों शिकवे
अधूरे सपनें
कच्ची ख्वाहिशें
उलझे सवाल
और एक मुकम्मल ताल्लुक
को किस्तों में
तुम्हे लौटा रहा हूँ
उदासी की शक्ल में
ये जो मेरी बातों में
सिलवटें है
दरअसल
वो मेरे वजूद का
कतरा कतरा
बिखरा हुआ अक्स है
जिसकी तुरपाई
में तुम्हारी बिनाई कमजोर
हो गई  है
और अंगुली जख्मी
जिन जख्मों की दर्द
दवा न बन सके
जिन गमों को मुहब्बत
महफूज़ न रख सके
ऐसी बेवा मुहब्बत को
हिज्र के हवाले कर
अपने रास्ते अख्तियार करने का
हक आज तुम्हे देता हूँ
किस हक से
यह तुम्हें तय करना है
हो सके तो जल्दी करना
क्योंकि
ये तुम्हें भी पता है
मुझे मुकरने की आदत है।

© डॉ. अजीत




दोस्ती

बाँट देना चाहता हूँ
सारे दोस्त
कुछ नए दोस्तों के बीच
ताकि मेरा जिक्र संदर्भो
में संरक्षित रहे
दोस्ती के बाईपास
पर घना पेड़ बन
अनजान लोगो को
रिश्तों की छाँव देना
मेरी आदि अभिलाषा रही है
मध्यस्थ होना मेरी
अधिकतम उपलब्धि है
तटस्थ होने का सुख
एकांत की सबसे बड़ी पूंजी है
दुनियादारी की संविदा पर हूँ
इसलिए दोस्ती की ऊब से
बचने के लिए ये तमाम प्रपंच करता हूँ
जिसमें दोस्तों का बटवारा भी शामिल है
मेरी गति हैरान कर देती है
और बातें चमत्कृत
इसलिए नए पुराने दोस्तों की
लम्बी फेहरिस्त है मेरे पास
मेरे जरिए आपस में दोस्त बनें लोगो
की मेरे बारे में कोई अच्छी राय भले न हो
मगर उनकी दोस्ती हमेशा पक्की रहेगी
इसकी प्रत्याभूति मै दे सकता हूँ
परन्तु
अनुभव ,नियति या परिणिति कुछ भी
कह सकते है
मगर यह सच है
हम जिस दिन मिलते है
उसी दिन बिछड़ने की
तारीख भी तय हो जाती है
जैसे जन्म के साथ
मौत का दिन तय हो जाता है
खुद ब खुद।

© डॉ. अजीत



Friday, May 9, 2014

बात

मुझे खेद है इस बात का
कि मै उम्मीदों की आकस्मिक मौत
स्थगित नही कर पाया
मुझे पीड़ा है इस बात की
कि मेरे स्वप्न बेहद मामूली थे
मुझे टीस है तुम्हें न समझा पाने की
मै आहत हूँ
तुम्हारे न बदलने से
मुझे आश्चर्य है
मित्रों के व्यवहार पर
मुझे दुःख है
खुद की असफल चालाकी का
इन तमाम प्रपंचो के बावजूद
बस एक बात पर मै खुश हूँ
कि तुम खुश हो मेरे बिना
और मै भी सुख दुःख परे
सिद्धो का चिमटा बजा रहा हूँ
कविता की शक्ल मे।


© डॉ. अजीत

Thursday, May 8, 2014

डर

सर्वाधिकार सुरक्षित है
दुनिया का सबसे बड़ा
सफेद झूठ है
सब अधिकार सुरक्षित करने की बात
ठीक वैसी है जैसे
हिंसा के जंगल में
सुरक्षित गुफा पता होने का दावा करना
सर्वाधिकार एक सुरक्षित उपाय है
मौलिकता को बचाने का
भय को स्थापित करने के लिए
इसका चिन्ह भी विकसित किया गया
ताकि हम ईश्वर की तरह
उक्त सामग्री का बिना सन्दर्भ
प्रयोग करते डरें
सन्दर्भ मनुष्य का अहंकार है
दरअसल सर्वाधिकार को सुरक्षित
रखने के लिए
न्याय, विधि का भय एक मात्र साधन है
डर मनुष्य को अनुशासित रखने का
एक मनोवैज्ञानिक  हथियार भर है
झूठ बोलते है लोग विज्ञापन में कि
डर के आगे जीत है
डर के आगे हमेशा डर होता है
कभी हारने का तो कभी
जीत को बचाए रखने का
अधिकार मनुष्य की जिद भी
कही जा सकती है
और कर्तव्य नैतिकता का मुखौटा
बहकी- बहकी बातें करने के
अपने जोखिम है
और अपने डर
क्योंकि सच और झूठ की शक्ल
बहुत मिलती है इन दिनों
भिन्न भिन्न विषयों के विमर्श में
डर एक छिपी हुई विषय वस्तु है
इस दौर में जब डर अभिप्रेरणा
बन गया है
मै नितांत ही असंगत कविता लिखकर
खुद का लिजलिजापन दूर कर रहा हूँ
क्योंकि डर को जीत पाना
मेरे बस की बात नही है।

© डॉ. अजीत

Wednesday, May 7, 2014

मनोविज्ञान

तुम्हारे लिए
मै जांचनीय प्रस्ताव हूँ
मेरे लिए
तुम अध्यादेश
तुम्हारे लिए
मै संदिग्ध सम्भावना हूँ
मेरे लिए
तुम पवित्र संकल्प
हम दोनों
एक दूसरे के लिए क्या है
यह अज्ञात है
कोई तटस्थ व्यक्ति यह
ठीक ठीक बता सकता है
परन्तु आड़े तिरछे रिश्तों के जंगल में
सांस लेती हमारी माटी
बंजर नही हुई है
जिस गर्भ से बेरुखी के
खरपतवार जनमे है
उसी से एक दिन
अपनेपन की बेल फूटेगी
तब तक उसके आलम्बन के लिए
अपनी पीठ तैयार कर लो
जज्बातों की जमीन
बिना बीज भी फसल पैदा करने की
क्षमता रखती है
यह कृषि विज्ञान का नही
स्त्री पुरुष के मन के विज्ञान का
सच है।
© डॉ.अजीत

Monday, May 5, 2014

सच

सच का कोई आकार नही होता
यह झूठ जितना साफ़ भी नही होता
सच पर संदेह की अधिक
गुंजाईश रहती है
सच स्पष्टीकरण का बंधूआ मजदूर
हो जाता है प्राय:
सच परेशान हो सकता है
पराजित नही यह ज्ञानीजन कहते है
परन्तु झूठ कब पराजित हुआ है
इसकी मुझे जानकारी नही
झूठ को महिमामंडित करके मै
झूठ का पैरोकार नही बनना चाहता
मगर
जीने की जद्दोजहद में
झूठ की उपयोगिता सच से बढ़कर
महसूस हुई
सच ने कमजोर साबित किया
और झूठ ने प्रेक्टिकल
सच और झूठ मनुष्य का रचा
नैतिकता का झूठा स्वांग भर है
जिसमें वो खुद को ईश्वर की
सर्वश्रेष्ट कृति सिद्ध करने में लगा रहता है
झूठ यदि आदतन न बोला जाए तो
सच से अधिक राहत देता है
यह सम्बन्धों को बचाने के लिए
या आँख का लिहाज़ रखने के लिए
किसी भी गैरतमंद इंसान का
मजबूरी का हथियार हो सकता है
सच शास्त्रीय आख्यानों की तरह
देखने में सुनने में और पढ़ने में
प्रभावी होता है और
झूठ गरीब की आबरू जैसा
दिगम्बर
मनुष्य ने यदि झूठ में छल न मिलाया होता
तो यह सच की तरह सम्मानित होता
अपने आसपास सत्यवक्ताओं
और धर्मात्माओं की भीड़ के बीच
मुझे यह स्वीकार करने में
कोई शर्म नही कि
मै आत्मविश्वास से झूठ बोलता हूँ
यह सच जितना विकृत नही होता
मेरे पूरे वजूद में
बस यही सच है।


डॉ.अजीत

बेतरतीब

कितना सताता होगा
उन्हें उनका एकांत
कितना अतृप्त होता होगा
उनका अहं
जो लोग फेसबुक पर नही है
बहुत सी कविताएं दम तोड़ देती होंगी
एक अदद पाठक के बिना
कितने खूबसूरत ख्याल रिस जाते होंगे
मन के पतनालें से
बैमौसमी मानसून की तरह
उनके दुखों का बोझ
निसंदेह अनिर्वचनीय हो सकता है
क्योंकि उनके पास
मन की पीड़ा शेयर करने का
कोई तन्त्र नही है
जन्मदिन पर रक्त सम्बन्धियों और चंद परिचितों
की शुभकामनाएं
शायद ही बिना वजह की
एक इंच मुस्कान ला पाती होगी
समझदारी पुते चेहरों पर
उनका आहत मन
शब्दों की गुलामी से उकता गया होगा
क्योंकि वो लम्बे समय से गले में अटके होंगे
और जेहन में टहल रहे होंगे
जो लोग फेसबुक पर नही है
वो दुनिया के सबसे दुखी या सुखी जीव है
यह मै नही कह रहा हूँ
मगर
यदि एकांत और आत्मनिष्ठ जीवन जीने का
अभ्यास न हो
तो हमे आसपास सहमत/असहमत
लोग चाहिए
भीड़ से उकताए लोगो को भी
भीड़ की जरूरत हो सकती है
जरूरतें ही इंसान को इंसान के करीब
लाती है
दरअसल यह एक नियोजित चक्र सा है
मिलकर बिछड़ना
और बिछडकर मिलना
केवल चेहरे बदलते है
हमारी अपेक्षाओं के फ्रेम नही
खुद से पलायन और खुद से सम्वाद
दोनों की आभासी प्रयोगशाला है
फेसबुक
और चयन आपका अपना
यहाँ होना और न होना दोनों ही
तब अधिक अर्थपूर्ण है
जब आप कोई अर्थ नही
तलाश रहे होते है
बस जी रहें होते है यूं ही
बेतरतीब।
© डॉ.अजीत

Sunday, May 4, 2014

खत

बुरी मानने वाली हर बात पर
वो तेरा स्माईली चस्पा करना
तुम्हारी फिक्रों की जमानत थी
सच कहने की हिम्मत
झूठ बोलने से एक कदम छोटी थी
एक जज्बाती बातचीत में
तुम्हारी जम्हाई आने पर
पहली बार तुम्हारी अवचेतन की
उदासी का खत मिला
उस पर अधूरा पता था
उसकी लिखावट साफ़ थी
मगर
रसीदी टिकट लगाने की वजह से
वो खत बैरंग मुझ तक पहूंचा
डाकिए के अहसान के साथ
मेरे खत
तुम्हे इस जन्म में नही मिलेंगे
क्योंकि मेरा डाकिया
बेरहम वक्त है
हो सके तो तब तक
इन्तजार करना मेरा।

© डॉ. अजीत

Thursday, May 1, 2014

अकवि

सदी की सबसे कमजोर कविता
लिखने का तमगा
समीक्षकों ने दिया
आलोचकों की दृष्टि से
मेरी कविता में
न शिल्प मजबूत था
और न सम्वेदना
सम्पादकों को उसके स्तरीय होंने
पर सदैव संदेह रहा
समकालीन कवि मित्रों के मन में
कभी साहित्यिक असुरक्षा नही उपजी
मेरी कविता पढ़कर
वह उनकी पारस्परिक प्रशंसा की
चर्चा की पात्र भी न बनी
प्रकाशकों ने लगभग हिकारत के भाव से
कविता और कवित्व दोनों को
खारिज़ किया
किसी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में
शायद ही वह कभी शामिल हो
बावजूद इन सबके
मै आज भी कविता लिखता हूँ
और तब तक लिखता रहूँगा
जब तक खुद को टटोलने की
हिम्मत मुझमें शेष है
मेरे हिसाब से कविता लिखी नही जाती
बल्कि कविता खुद फूटकर निकल पड़ती है
मन के ग्लेशियर से
उसे कोई कविता माने या माने
यह उसकी समझ का मामला है
लेकिन
मेरे जैसे बहुत से अ-कवियों के लिए
कविता खुद से बात करने का तरीका भर है।
 © डॉ. अजीत

खेद

इस दौर में
दूसरो को सलाह देना
जितना आसान काम था
उतना ही मुश्किल था
बुरे दौर में किसी की मदद करना
इन्सान की दूसरे इंसान पर निर्भरता
उसके आत्मविश्वास को
नियंत्रित करने की युक्ति कही जा सकती है
या फिर उसको घुटनों के बल मजबूर देखने की ईश्वर की मानवीय चाह
ताकि उसका नियंता होना प्रमाणित हो सके
उम्मीदों के कारोबार में
घाटा उठाता एक निरुपाय व्यापारी
मनुष्य होने पर इस कदर
हताश हो सकता कि
वह मोक्ष को साधने में लग जाए
मोक्ष को आत्महत्या से बचने का रास्ता
बनाने वाले
सिद्ध कहलाए
और अकाल मौत के विकल्प पर
मुहर लगाने वाले कमजोर
मुश्किल ये है कि
जो न सिद्ध हो पाए
और न कमजोर
उनके निर्वासन के लिए धरती से इतर
किसी ग्रह पर बस्ती बसनी चाहिए थी
ताकि कम से कम
दुनियादारी के जालिम खेल पर
वो अपने समूह में ठहाका मार कर हंस पाते यदा-कदा
परन्तु
आज वो अपने हिस्से की त्रासदी
ढोते हुए समय से पहले बूढ़े हो गए
उनके बुढापे की एक बड़ी वजह
अपने जैसे लोगो से न मिल
पाना भी है
उनका एकांत उनकी दृष्टि भी ले गया
जिसकी रोशनी में वो
कुछ और वक्त के मारे
इंसान देख पाते
इस दौर में इस बात पर
किसी को खेद नही है
बस यही खेद की बात है।

© डॉ. अजीत