Thursday, September 30, 2010

एक नज़्म: अपने बारे में

अक्सर

पुराने

लम्हों को

सोच कर

शाम को

उदास हो जाता हूं

नया आदमी बनने

की जिद मे

एक जिरह रोज

खुद से होती है

पुराना होना

किसी गुनाह से

कम नही

अब वो वक्त नही

जिसमे किस्से

जरुरी थे मुकाम के

अब किसी का

होना सिद्द करना

पडता है

अपने होने की तरह

शाम,उदासी और

लौटते पंछी

रोज जोड देते

कुछ हरफ

मेरे वजूद मे

जिसकी किस्सागोई

मेरे बाद होगी

शायद तब वो

यकीन पैदा हो

जिसका शगल मेरे

साथ चला जाएगा

और दूनिया को

अफवाह की तरह

यकीन आयेगा

मेरा ऐसा होने का...।

डा.अजीत

खामोशी

उसने चुनी खुद अपने लिए तन्हाई

कतरा कहे समन्दर से है प्रीत पराई

बात यही देर से समझ मे आई

रोशनी का फर्क नही कमजोर पड गई बिनाई

वो दूर रह कर जितना करीब था

नजदीकियां उतना फाँसला ले आई

वो ही मंसब का पता पूछता फिरा

जिसने थी कभी राह दिखाई

हौसलों का सफर उस दिन खत्म हुआ

नज़र से जब उसने नजर चुराई

अक्ल हुनर पे भारी पड गई

ऐब ने अक्सर जान बचाई

महफिल का अदब उससे पूछो

जिसने गैरो के यहाँ एक शाम बिताई...।
डा.अजीत

Tuesday, September 28, 2010

असर

सपनों का मर जाना

उम्मीदों को उधार दे देना

और अपने आप से यह

पूछना ऐसा क्यों हुआ

ठीक वैसी बात है

जैसे त्योहारों की रौनक मे

उदासी का दबे पांव

दिल मे आ जाना

रात का बडा हो जाना और

दिन की दोपहरी मे

सो कर उठना

मन को खुशी चाहिए

या अपनापन

या फिर दोनो

ये तय करना था उसे

उस दिन जब

सब उल्लास मे डूबें हुए

अपने होने का जश्न मना रहें थे

मौसम बदल रहा है

मन का भी और शायद तन का भी

अब ऐसे मे

एक इंच मुस्कान के लिए

उसे तोडना होगा

खुद को

जोडना होगा अपने को

उस अपनेपन के ढोंग से

जो कभी भी कह देता है

मुझे माफ करो दोस्त..

अब मुझ से ये सब नही होता

अपने-पराये का नाटक

उसे चाहिए अब एक पूर्ण विराम

बिना सम्बोधन के...।

डा.अजीत

Saturday, September 25, 2010

श्राद्द

वैसे तो हम अच्छे मित्र

रहें है बरसो

लेकिन आजकल

बिना सम्बोधन के

सम्बन्ध मे जी रहें है

इसे अजनबीपन और परिचित

के बीच का कुछ समझा जा सकता है

इसके लिए कोई शब्द

अभी शब्दकोश मे नही बना

बरसो-महीनों बातें न करना मोबाइल पर

आजकल सम्बन्धों की

परिपक्वता की पहचान है

लेकिन मिलने पर

गुजर जाना पास से

या देख कर एक दूसरे को ठिठक जाना

एक अजीब भाव के साथ

न खुशी न दुखी

फिर मिलेंगे के सन्देश के साथ

भीड का हिस्सा बन जाना

वाकई बडी बात है

और बडी कलाकारी भी कही जा सकती है

लेकिन दूनियादारी के रंगमंच के

मंझे हुए मेरे कलाकार दोस्त

अक्सर यह भूल जातें है

कि मिलना-बिछडना तो

चलता रहता है

जिन्दगी भर

उम्मीद और सपनों का मर जाना

और इनका श्राद्द इस

अजनबीपन के साथ करना

आसान नही

कुशा हाथ मे लिए

आचमन करते हुए ऐसा लगता है

अभी भी भटक रही है

वो वजह जिसके कारण

हम मित्र बने थें

कभी यूं ही...।

डा.अजीत

Friday, September 24, 2010

धूप

ऐसा क्या कह दिया मैने

कि तुमने कुछ नही कहा

सिवाय उपेक्षाभाव के

बात हमारे बीच की थी

लेकिन तुमने तटस्थता का

अभिनय आखिर क्यों किया?

मेरा एकालाप कितना

अजीब था उस भीड मे

जिसमे तुम्हारा साथ

मेरे होने की पुख्ता वजह थी

अन्यथा मत लेना

लेकिन ऐसे मौको पर

जहाँ पर मै तुम्हारे समर्थन

का मोहताज़ रहा हूं

तुम्हारी अचरज़ भरी चुप्पी

मुझे कतई अच्छी नही लगती

तब हम और हमारे सम्बन्ध

एक कूटनीति की किताब

के बरखे बन बिखरने लगते है

यह अलग बात है कि

मैने कभी पूछा नही

लेकिन कभी-कभी मेरी

साधारण सी बात पर भी

तुम ऐसा दार्शनिक मौन

धारण कर लेती हो कि

मुझे डर लगने लगता है

समर्थन तलाशती मेरी हर बात

कितनी अकेली हो जाती है

तुम्हारे साथ होने पर भी

यह अलग बात है कि

मै छलबल से निकल आता

हूं उस संवाद से

लेकिन नही निकल पाता

तुम्हारे मौन के आतंक से

महीनो तक

अब तो एक अरसा बीत गया

अपनी बात पर तुम्हारी हामी सुनें

तुम तटस्थ जी सकती हो

ये अच्छी बात है

तटस्थ कैसे जीया जाता है

कैसे सीखा तुमने

मुझे बताना कभी फुर्सत में

आजकल तो तुम्हे फुर्सत है नही

देख रहा हूं

तुम्हे उलझते-सुलझते हुए

जैसे कोई स्वेटर बुन रहा हो

बिना नाप का

जाडे की धूप में...।

डा.अजीत

Sunday, September 19, 2010

धन्यवाद का उधार

अचानक कन्धे थक कर चूर हो गये
दिल भर गया और
दिमाग सोचने लगा कि
अभी कितने धन्यवाद शेष है
जो सही समय पर नही दिए गये
और जब दिए तो
उन पर औपचारिकता की चासनी चढी थी
उधार की जिन्दगी जीते-जीते
यह भूल गया हूँ कि
धन्यवाद का खास समय होता है
बाद मे इसका अर्थ
अनर्थ मे बदल भी सकता है
धन्यवाद उन मित्रों का जिन्होने
बुरे वक्त मे
केवल साथ दिया बल्कि
वो हौसला भी जिसकी कमी मे
मै क्या तो आत्महत्या कर सकता था
या पलायन मजे से
धन्यवाद उनका भी उधार है
जिन्होने नासूर मे नश्तर चुभोए
रिस-रिस कर आते लहु की हर बून्द ने
अपने होने का अहसास कराया हरे
जख्मों को दवा-पट्टी तभी संभव हो पाई
जब इसमे मवाद हो गयी थी अपनेपन की
वाह-वाह के दो शब्द जब-जब मुझे मिले
तब-तब मुझे वो दोस्त याद आएं
जिनकी प्रेरणा से,सलाह और नसीहत
से मेरी बैचेनी बढी
और लिखी कविता,गज़ल
अब तो याद भी नही है कि
कितने धन्यवाद मुझ पर उधार है
अपने पराये सबके
ये शब्द ही बडा अजीब है
कहने को शिष्टाचार
मिलनसार होने का व्यापार
अब जब मै बेतरतीब जीने का
आदी हो गया हूं
ऐसे मे मुझ से धन्यवाद की उम्मीद रखना
बेमानी ही है
फिर भी जिस-जिस का धन्यवाद
मुझ पर उधार है
वो लौटा रहा हूं बिना ब्याज के
ताकि मेरे होने पर
वें मेरा जिक्र करके ब्याज़ को
याद करते हुए मुझे गरिया सके
और अचानक कोई एक मेरा परिचित
यह कहे कुछ भी हो
आदमी ज़बान कडवा था
पर दिल का नही...
जिस पर मेरे मित्र ,परिचित हैरान होकर
विषय बदल कर सेसेंक्स का जिक्र छेड दें
उधार का धन्यवाद तरसता रहे मित्रों के बीच मे
और सब मशगूल हो अपने-अपने
म्यूचल फंड की रिकवरी में...
मै चाहता हूं कि वो दिन इतिहास मे दर्ज हो
एक शाम मित्रो के सेसेंक्स के नाम
रिश्तों की धरोहर पर
धन्यवाद का काम
फिर भी यदि किसी का
जाने अनजाने मे धन्यवाद शेष है
तो मुझे खेद है
इसके अलावा कोई शब्द बचता ही नही
धन्यवाद का उधार उतारने के लिए
अगर बचता तो शायद मै भी बच जाता
खुद धन्यवाद देने के लिए...
डा.अजीत

Tuesday, September 14, 2010

हकीकत

रात के स्याह सपनें

की स्याह सच्चाई

चांद के आधे होने का सच

और मेरे वजूद की जिरह का सवाल

कितना वाजिब है

यह सोचने से बेहतर है

रात पर तब्सरा करे

सुबह की नकल करते हुए

रोशनी पैदा करे

और हकीकत के हर पहलू

को जानकर अनजान बन जाने का

नाटक करे

ताकि अपनी नज़र वो

सवाल न कर सकें

जिनके जवाब वक्त के हिसाब से

बेहद जरुरी है

लेकिन अभी सही वक्त नही है

उन हरफो को बांचने का

जिनमे किस्सा है

मेरी-तेरी बर्बादी का...

न सलाह

न शिकायत और न नसीहत

अब वक्त है

बेवक्त नमाज़ पढने का

बिना अज़ान की परवाह किए

दुआ करने का

ताकि सलामत रह सके

एक हादसा

हकीकत मे...।

डा.अजीत

Monday, September 13, 2010

बात

लम्हा-लम्हा बिखरा हूं खुद का साथ निभाने मे

एक उम्र गुजर गयी ऐब को हुनर बनाने मे

वो वादा करके भी मुकर गया अफसाने मे

मै निभा कर भी तन्हा हूं भरे जमाने मे

ख्वाबों को गिरवी रख आया था जिसके पास

वो साफ मना कर रहा उन्हे लौटाने मे

अपनी बेबसी वो इशारो मे कह गया

समझ न सका दिल ज़ज्बात पुरानो मे

महफिल सजती है तो दिल जलता है

रोशनी नही अब आती इन रोशनदानों मे

साथ न दो कोई बात नही वक्त की मजबूरी है

बहुत बुरा लगता है अपना जब कोई बात करे तानो में...।

डा.अजीत

Saturday, September 11, 2010

ख्वाब

ख्वाबों की कस्ती पर लफ्ज़ो की गहराई

तासीर अपनी देर से समझ मे आई

बदला ने जीने का तरीका न अदब

तबीयत कभी अज़ीजो से न मिल पाई

मुझे एक पल मे जीने का शौक है

उसमे सारी जिन्दगी की फिक्र समाई

मील का पत्थर बन कर यह देखा

रास्तो ने सफर मे नजर चुराई

मंजिल का पता मिला तो हुआ अहसास

उम्र सारी बेवजह बिताई

बाकी मुझमे रह गया तल्खियों का गुबार

शहर मे रहकर ये दौलत कमाई

शराफत बेशर्म होकर पास से गुजर गई

बुरे वक्त मे काम आई बुराई

फांसलो का पैमाना जब उसका देखा

न नाप सका चार कदम की गहराई...।
डा.अजीत

Thursday, September 9, 2010

सच

रिश्तों मे इल्जाम लगाना नही आया

खुद को बेचने तो निकला पर

दाम लगाना नही आया

छोड आया था उसको सोते हुए

ये सोचकर एक मुद्दत से कोई ख्वाब नही आया

रुठ जाने की आदत उसकी पुरानी थी

पर इस बार कोई मनाने नही आया

दूनिया को समझने की बात क्या

उसे खुद को समझाना नही आया

दिल के ज़ज्बात सच्चाई से कह दिए

रो कर उन्हे सच्चा करना नही आया

तन्हाई का सबब ये निकला

भीड मे उसको अभी चलना नही आया...।

डा.अजीत

Wednesday, September 8, 2010

लम्हा

दिन के उजालो मे झुलस जाओगें

रात को देर से अगर घर आओगें

अपनी कस्ती को संभाले रखना

एक भूल से भंवर में खो जाओंगे

किस्तों मे ज़िन्दगी जी जिसने

उसको मौत से क्या डराओंगे

लम्हा लम्हा जीने के मज़ा और है

ये बात आप कहाँ समझ पाओंगे

सलाह मुनासिब थी सफर मे

पता नही चलता कब भटक जाओंगे

काफिला गुरबत का निकला हो जहाँ से

उस धूल मे एक अलग खुशबु पाओंगे

फकीरो के साथ सफर पर मत निकलना

चार कदम चलोगे और थक जाओंगे

डा.अजीत

काफिर

तेरी इस बात पर सोच कर हैरान हूं

दोस्त के घर लगता है मेहमान हूं

वक्त के आईने से छिपता फिरा

चेहरे से अपने अंजान हूं

नज़र ने नज़र से राज ये कह दिया

अब मै कहाँ उनकी पहचान हूं

काफिर को यकीन कैसे आता

मै सहर की अजान हूं

सब्र मेरा टूटने पर हुआ यकीन

देवता नही मै भी इंसान हूं

शराफत जहाँ बिकती है बेमौल

ज़ज्बात की मै वो दूकान हूं

डा.अजीत

Sunday, September 5, 2010

आदत

ज़बान की कीमत लफ्जो मे बह गई

जिन्दगी एक तमाशा बन कर रह गई

मुक्कमल ख्वाबों की बैचनी थी नसीब

ये बात नदी समन्दर से कह गई

मुस्कान नजर मे थी अफसाने दिल मे

हकीकत उसकी उदासी कह गई

न मिलने की फिक्र न बिछडने का गम

दोस्ती फिर आपसे किस बात की रह गई

उसने छोडा बेफिक्री से मुझे क्यों

वो हालात मेरी फटी जेब कह गई

मदारी का तमाशा देखा तो समझ मे आया

हुनर अब हाथ की सफाई और नजरबन्दी रह गई

तन्हाई मे उदासी ने टोक कर पूछा

मन भर गया अब या कुछ कमी रह गई

दिल से लगा लेता हूं हर बात

बस ये आदत बुरी रह गई....।

डा.अजीत