अक्सर
पुराने
लम्हों को
सोच कर
शाम को
उदास हो जाता हूं
नया आदमी बनने
की जिद मे
एक जिरह रोज
खुद से होती है
पुराना होना
किसी गुनाह से
कम नही
अब वो वक्त नही
जिसमे किस्से
जरुरी थे मुकाम के
अब किसी का
होना सिद्द करना
पडता है
अपने होने की तरह
शाम,उदासी और
लौटते पंछी
रोज जोड देते
कुछ हरफ
मेरे वजूद मे
जिसकी किस्सागोई
मेरे बाद होगी
शायद तब वो
यकीन पैदा हो
जिसका शगल मेरे
साथ चला जाएगा
और दूनिया को
अफवाह की तरह
यकीन आयेगा
मेरा ऐसा होने का...।
डा.अजीत