Wednesday, August 21, 2024

रक्त संबंध

 (भाई)

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शास्त्र ने उन्हें भुजा कहा
समाज ने की हमेशा तुलना
मन से सदा भला चाहा
तन निकल गए
एक वक़्त के बाद
अलग-अलग यात्रा पर
किसी अजनबी की तरह।
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(बहन)

बहन इस तरह से
बनी रही जीवन में
जिसके बिना प्रत्येक शुभता अधूरी थी
मगर
उसके जीवन की असुविधाओं को
नहीं काट पाए समस्त पुण्य कर्म।
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(पिता)
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पिता मेरे होने के जैविक सूत्रधार थे
कभी कभी वे अँग्रेजी के शब्द ' एंकर' सरीखे भी थे
मगर जीवन के सभी तूफानों में
वे बंधे रह गए अपनी जगह
जीवन द्वारा जब भी किसी निर्जन द्वीप पर
अकेला पटका गया मैं
तब याद आई पिता की अँग्रेजी वाली भूमिका
जिसे याद कर हिंदी में लिखी मैंने कविता।
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(माता)

उन्हें पहले किसी का प्रिय होना था
फिर प्रियता को बाँटना था हम सब में
वे उपस्थित थी एक देहात के उस बुजुर्ग की तरह
जिनके सामने लोग जाते रहे बाहर
कभी न लौटने के लिए
उनके हिस्से आया हम सब के हिस्से एकांत
समाचार पत्र की भाषा में यदि कहा जाए तो
वे थी
'मिनिस्टर विदआउट पोर्टफोलियो'
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(पत्नी)

सप्तपदी के भरोसे वो प्रकट हुई
मेरे भरोसे उसने पैदा की संतान
अपने भरोसे वो टिकी रही जीवन में
उसे अपने भरोसे पर इस कदर था भरोसा
कि वो ईश्वर को देती रहती बार-बार धन्यवाद
और गुस्से में कोसती थी केवल अपने पिता को।

(पुत्र)

उन पर सुपुत्र होने का दबाव था
मगर अपने पिता जैसा न होने का दबाव
उससे गहरा था
वे रहते थे इस द्वंद में
अपने जैसा कैसे हुआ जाए
इसलिए वो अभिवादन को कौशल
और समझौते को जीवन समझते चले गए।
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(पुत्री)

जिनके पास थी
उनके जीवन में बची हुई थी उत्सवधर्मिता
जिनके पास नहीं थी
वे थोड़े आश्वस्त थे
और थोड़े चिंतित।

© डॉ. अजित




Monday, August 5, 2024

किताबें

 

घर के अलग-अलग हिस्सों में

बेतरतीब पड़ी मिलेंगी किताबें

कुछ पढ़ी, कुछ आधी पढ़ी

कुछ बिना पढ़ी

 

तो कुछ ढूँढने पर भी न मिलने वाली जगह

दुबकी भी हो सकती हैं

 

मैंने किताबें खरीदी

यह कहना कभी रुचिकर न लगा मुझे

इस घोषणा से आती है बाजार की गंध

किताबें आई मुझ तक चलकर खुद

देखकर मेरा आधा एकांत और आधी बेहोशी

 

कुछ किताबें ऐसी भी थी

जो कभी खोलकर नहीं देखी मैंने

मगर उन्हें कोई मांगे तो मैं बोल दूंगा साफ झूठ

 

किताबें मुझे सच बोलना सिखाने आई थी

मगर मेरे द्वारा किताब को लेकर बोले गए झूठ की

बन सकती है खुद एक किताब

 

आज भी कोई किताब कर रहा हो दान

तो मैं सबसे पहले खड़ा हो जाऊंगा कतार में

किसी निर्धन विप्र की तरह

जिसके पास किताबें हैं वो राजा से कम नहीं मेरे लिए

 

मैं बेहद कम पढ़ता हूँ

मगर किताबें पास होती हैं

तो बनी रहती है एक आश्वस्ति

 

कि मेरे पास बचा है बहुत कुछ पढ़ने के लिए

 

किताबों को यूं बेतरतीब पड़ा देख

कोफ़्त होती हैं उन्हें

जो समझते हैं कि केवल खरीदता हूँ

पढ़ता नहीं हूँ किताब

 

वे भूल जाते हैं एक बात कि

किताब पढ़ने का नहीं होता कोई नियोजन

वे बस बनी रहे साथ

तो आसानी से याद होते जाते हैं

जिंदगी के सबसे कठिन पाठ।

 

© डॉ. अजित