रास्तों की शह पर मंजर बदल गये
मंजिल नज़र तब आई जब दिन ढल गये
शिकस्त मिलना मुकाम की तौहीन था
हसरत न बदली सपने बदल गये
वो समझ न पाया कभी मेरी खुद्दारी को
गलत ही समझा जब भी देर से घर गये
साजिश वजूद का हिस्सा बन गई इस कदर
उसे समझाने की कोशिस मे खुद उलझ गये
अदब का अन्दाज भी अजीब ही निकला
अल्फाज़ रंज़ के तवज्जों मे ढल गये
बर्बाद मेरे अक्स का हर कतरा-कतरा
शुक्र करो कुछ अजीज़ो के घर तो बच गये
सफर की तन्हाई पर कैसे जश्न मनाऊं
हमसफर मेरे मुझसे आगे निकल गये
हादसों की हकीकत पैमाने ही जाने
मयकदे मे आकर अक्सर लोग बिखर गये...।डा.अजीत