Wednesday, May 24, 2017

पिता का जूता

मेरे पिता जी
बाटा का जलसा जूता पहनते थे
बाटा पर उनका यकीन
मुझ पर यकीन से ज्यादा था

गांधी को वो मात्र
खादी भंडार से जानते थे
शहर में जाते तो जरूर जाते गांधी आश्रम
उन्हें कपड़े की उतनी समझ थी
जितने मुझे आदमी की नही है

पिता जी को मोहम्मद रफी पसन्द थे
मुकेश के लिए वो कहते
गाता अच्छा है मगर नाक से गाता है
मैनें उन्हें जब मिलवाया किशोर कुमार से
उन्होंने कहा
ये नौजवानों का गायक है

ज्वार भाटा और वक्त
उनकी पसंदीदा फ़िल्म थी
नए लोगो में उन्हें अजय देवगन थे पसन्द
हमनें कई फिल्में साथ देखी
मगर हमारी पसन्द हमेशा रही जुदा

पिता के मरने पर
मैनें उनका जूता नही दिया किसी को
कभी कभी उसमें पैर डालकर
देखता हूँ अकेले में
आज भी वो ढीला आता है मुझे

जब कभी दुनिया के धक्के और धोखे खाकर
हो जाता हूँ थोड़ा हैरान थोड़ा परेशान
जी करता है पिता जी का
वही बाटा जलसा जूता उठाकर
दो चार जड़ लूं
खुद ही खुद के सिर पर

पिछली दफा जब ऐसा करना चाहा मैनें
तो ऐसा करते मुझे देख लिया मेरी माँ ने
पिता के मरने के बाद
पहले बार वो रोई एक अलग स्वर में

मेरे पास पिता का जूता है
मेरे पास मेरा सिर है
और मेरा पैर है
मगर तीनों में कोई मैत्री नही है
तीनों अकेले और असंगत है

जीवन की यह सबसे बड़ी शत्रुता है मेरे साथ
जिसे मैं अकेला खत्म नही कर सकता।

©डॉ. अजित

Friday, May 19, 2017

बबली

बबली मेरी बड़ी बहन है
उम्र में मुझसे दो साल बड़ी है
उसके ब्याह में अट्ठारह साल का था मैं
पिता की तरह पेश आया मैं
उसके ब्याह में
हलवाई, किरयाने का सामान, फ़र्नीचर
कपड़े गहने सबके लिए दिया पैसा

उसके ब्याह में
पिता मुझे प्रशिक्षित कर रहे थे या दंडित
नही समझ पाया आज तक

पिता के जाने के बाद
बबली मुझसे नाराज़ है
उसे शिकायत है
न मैं पिता रहा और न भाई
हम भाई बहन बचपन मे कभी नही लड़े
लड़ते आज भी नही है
हमारी लड़ाई अब खत्म हो गई है
और दिखने वाला प्यार भी

बबली की शिकायतें
सीधी नही पहुंचती है मुझ तक
वो सामने हमेशा दिखती है सामान्य
मगर उसकी कुछ गहरी शिकायतें है
हम तीन भाईयों में
उसे लगता  हूँ
मैं सबसे कम जिम्मेदार
जबकि वो साक्षी है अपने ब्याह में
मेरी बगल में दबे बैग की
टूटी तनियों के चप्पलों की

बबली जिस शहर में रहती है
वो पुराना जिला है मेरा
मैं वहां कम जाता हूँ अब
पहले पिताजी के साथ जाता था कचहरी
बबली को लगता है
वो वहां रहती है
इसलिए अब वहां नही जाता मैं

मैं भाग रहा हूँ
हर रिश्तें नाते से रात-दिन
मेरे पास नही है कोई ऐसी उपलब्धि
जिसे सुना मेरी सगी बड़ी बहन
कुछ दिन गर्व से रह सके
अपनी ननद और सास के बीच

वो एक आश्वस्ति चाहती है
अपने बच्चों को लेकर
कि मैं कम से कम मतलबी मामा न बनूँ
पढ़ा-लिखा पीएचडी हूँ
गाइड करूँ उन्हें उनके करियर के लिए
मदद कर सकूं दो पैसों की
कम से कम इतना लायक बनूं जरूर

मैं बबली से बात करना चाहता हूँ
अपनी सगी बड़ी बहन के सामने
मेरे इतने संकोच घिर आए है
मैं कुछ भी कहूँगा
तो उसे लगेगा सफेद झूठ
वो अब बिल्कुल नही पहचानती मुझे

वो भूल गई कि पिछले सत्रह सालों में
वक्त ने इस कदर तोड़ा और
बदलने पर किया मजबूर  मुझे
अब मैं बबली का तो क्या
किसी का भाई ,पति, पिता,बेटा कुछ न रहा

बबली के पास एक वाजिब शिकायत है
खुद में खो गया हूँ मैं
यह सच है  इस कदर खो गया हूँ मैं
कि आप शायद ही
किसी पारिवारिक उत्सव में हो सकूं
शामिल अपने बड़प्पन के साथ

बबली मुझसे दो साल बड़ी है
मैं बबली से कई बड़ा हूँ
हम दोनों एक दूसरे से छोटे है
यही हम भाई बहन की
वास्तविक आयु है।

©डॉ. अजित

Thursday, May 18, 2017

चुप्पा

आजकल हमारे बीच चुप्पा चल रहा है
चुप्पा और अबोला में एक बुनियादी फर्क है
अबोला किसी नाराजगी में होता है
चुप्पा अकारण हो जाता है
लगता है जैसे बातचीत के
सारे विषय समाप्त हो गए है

हम एक दूसरे से ऊबे हुए प्रेमी है
जैसे पतझड़ में धरती ऊब जाती है सूखे पत्तो से
और दिन में हरियाली से ऊब जाता है आसमान

एक मंजिल पर पहुँच कर
हम दिख रहें हैं चुके हुए
प्रेमी युगल की तरह
जैसे आख़िरी बस छूट गई हो
किसी दूरस्थ देहाती गाँव के लिए
और हम अकेले खड़े रह गए हो
किसी सुनसान कस्बें में  

एक दुसरे की शक्ल देखते देखते
हम भूल गये है अपना-अपना सौन्दर्यबोध
इसलिए नही कर पाते तारीफ़
अब किस अच्छी चीज की

स्मृतियों के वातायन में
सूख रहे है सांझें स्वप्न
उन्हें तह करके रखना होगा
अब हिज्र के  मौसम के लिए  

फिलहाल
छूट रहे है हाथ
जैसे पतवार से छूट जाते है किनारे
और नदी समझती है कोई उसे पार गया


ये विचित्र संधिकाल है
यहाँ किसी के पास कोई आरोप नही है
कोई महानताबोध से ग्रसित भी नही है
विलगता का कोई नियोजन भी नही है

इस चुप्पा में
उड़ रही है  रिश्तों की मीठास
अपनी लय और गति के साथ
बेहद धीमी गति से.

बिना किसी औपचारिक भूमिका के
यह कहना पड़ रहा है मुझे  
अब  मिट रही है हमारी संयुक्त पहचान

समय को इस पर खेद है
मगर हमें समय पर कोई खेद नही है
ये विचित्र मगर खराब बात है
जिसे  जान पाया हूँ मै
 इस  अनजानी चुप के बीच.


© डॉ. अजित 

Tuesday, May 16, 2017

दूरी

उसने कहा
तुम्हें स्त्री से बात करनी नही आती
मैंने पूछा
कैसे की जाती है स्त्री से बात?

ये किसी से पुरुष से पूछना
मुझसे नही,उसने हंसते हुए कहा

मेरे पास कोई ऐसा पुरुष नही है
जिससे ले सकूं ये ज्ञान
मैंने अपनी असमर्थता जाहिर की

इस पर थोड़ा गम्भीर होकर उसने कहा

स्त्री से ठीक वैसे की जाती है बात
जैसे कोई रास्ता पूछता है मुसाफिर
जैसे बादल बरसता है
जंगल मे अलग और शहर में अलग
जैसे बच्चा करता है जिद
जैसे दर्द को छिपाता है एक नव वयस्क
जैसे धरती से पूछा जाता है उसका जलस्तर

मैनें कहा यदि मैं
इस तरह न कर पाऊँ बात तो?

फिर एक स्त्री तुम्हें सुनती है
और मुस्कुराती है मन ही मन
और करती है ईश्वर से प्रार्थना
तुम्हें दुनियादारी से बचाने की

वो फिर नही सुन पाती
तुम्हारी कोई लौकिक बात
वो सौंपती है अपनी
अधिकतम सद्कामनाएं
और ढ़ेर सारा अमूर्त प्रेम
तुमसे एक दूरी की शक्ल में।

© डॉ. अजित

Friday, May 12, 2017

रोजनामचा

हमनें थोड़ी देर राजनीति की बातें की
हर बहस बीच आधी अधूरी छोड़ी
गोया हमारे पास सब समस्याओं का समाधान है
मगर हमारी मानने वाला कोई नही है

फिर कुछ कॉमन फ्रेंड्स की निंदा का सुख लिया
दोस्तों की अनुपस्थिति में उनकी बातें
ये बताती रही कि वो अभी भी
कितने बचे हुए है
हमारी जिंदगियों में

वैचारिक बातों से ऊबकर
हम अतीत में खो गए
और याद करने लगे अपनी भावुक मूर्खताएं

बीच-बीच में याद करते बदलता मौसम
हैरत से देखतें गए विकास के
रियल एस्टेट संस्करण को

दिन में थोड़ी शराब भी पी
तोड़कर नैतिकता के सारे आवरण

दिन ढ़लता गया और हमारी बातें होती गई बोझिल
बीच बीच में हम केवल चुपचाप देखते रहें
एक दूसरे की शक्लें
ऐसा करने को क्या कहते है कविता में
नही है मुझे मालूम

शाम तक जब लगभग सारे किस्से तमाम हुए
फिर थोड़ी शराब पी
रात को सोने से पहले
हम साफ कर देना चाहतें थे
यादों की स्लेट

सोने से पहले हमनें देखा एक दूसरे का चेहरा
हल्के से मुस्कुराए
और सो गए बिन शुभ रात्रि कहे
एक उल्लासित दिन के बाद
ये सबसे शुभ रात थी हमारी
क्योंकि
इस रात नही आया कोई ख्वाब
अतृप्त कामना का

हम सोते गए बेसुध
जैसे इस नींद की तलाश में
मुद्दत से भटक रहे थे हम
सुबह जगे और निकल गए
अपने अपने रास्तों पर

हमनें एकदूसरे को विदा नही कहा
और इसलिए नही कहा
हमें फिर मिलना था किसी दिन
ठीक इसी तरह
क्यों मिलना था नही जानता था कोई
इसलिए बचा लिया विदा
और मुड़ गए उन रास्तों पर
जो आपस में कहीं नही मिलते।

©डॉ. अजित

Sunday, May 7, 2017

बातें

उसने पूछा
खाली वक्त में क्या करते हो तुम?
मैंने कहा
यदा-कदा
व्हाट्स एप्प पर तुम्हारी डीपी
देख लेता हूँ
उससे क्या होता है
उसने हंसते हुए पूछा
कुछ नही ऐसा लगता है
तुम्हें अभी तक खोया नही मैंने
मैंने थोड़ा गम्भीर होकर जवाब दिया
फिर मैंने सवाल किया
और तुम क्या करती हो
अपने खाली वक्त में?
आज के बाद व्हाट्स एप्प पर
तुम्हारा लास्ट सीन देखा करूंगी
इतना कहकर वो हंस पड़ी
फिर देर तक हंसता रहा मैं भी।
***
एकदिन मैंने कहा
जब हिचकी आती है मुझे
तो ऐसा लगता है
जैसे तुमनें याद किया हो
मैं इस मान्यता में यकीन नही करती
उसने ये कहकर मेरी बात काट दी
फिर अचानक एकदिन कहने लगी
हिचकी वाली बात सही थी तुम्हारी
मैंने कहा क्यों?
अब तुम्हें भी आने लगी क्या हिचकियाँ
उसने कहा नही
अब हिचकी नही बस तुम्हारी याद आती है।
***
कुछ दिनों से
हमारी बातचीत बंद थी
संपर्कशून्य जी रहे थे हम दोनों
अचानक उसका मैसेजे आया
आओ ! चाय पीते है शाम को
मैनें जवाब दिया शराब क्यों नही?
उसने कहा पहले चाय फिर शराब पीएंगे
हमने उस दिन कुछ नही पीया
बस बातें की जी भर
चाय और शराब इसलिए भी पाती रही
आदर मेरे जीवन में
दोनों ने हमेशा बचाए रखा
सम्वाद हमारे बीच।
***
उस दिन उसे
मुझे एक शर्ट दिलाने की
जिद चढ़ी हुई थी
मैं बार बार करता रहा इनकार
इस बात पर वो नाराज़ हो गई
दो दिन बाद
उसने पूछा परसों क्या हो गया था तुम्हें?
मैंने थोड़े संकोच से कहा
हुआ कुछ नही था
दरअसल
नीचे बनियान नही पहना था मैंने
और तुम्हारी जिद
तुम्हारे सामने ही ट्राई करने की
रहती है हमेशा
देखा जाए यह बात हंसने की थी
मगर वो हंसी नही
थोड़ा उदास होकर उसने कहा
तुम्हारी यही आदत
तुम्हें कभी छोड़ने नही देगी मुझे।

©डॉ. अजित