पहला दुःख
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सघन दिखता था
धीमा पिसता था
थोड़ा तरल था
मगर गरल था
मगर मैं बचकर आ गया
खुशियों के बहाने बता गया।
दूसरा दुःख
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अनुभव निस्तेज था
तीक्ष्ण दुःख तेज़ था
चेहरे जरूर बदल गए थे
ताप में अहसास कुछ गल गए थे
मगर मैं देखता रहा निर्बाध
क्षमा किए सबके अपराध
क्योंकि वो दुःख था
शिकायतें सुख की चीज थी।
तीसरा दुःख
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पहले दो से यह भिन्न था
तर्कों में भी विपन्न था
मैंने उस की तरफ पीठ की
तबीयत मन की भी ढीठ की
दुःख कहीं न गया
तब जीवन में जानी यह बात
दुःख केवल सुख की अनुपस्थिति में
नहीं करता है घात
दुःख कहता था,सुख है
और सुख रहता था मौन।
©डॉ. अजित