Saturday, July 30, 2016

चाहतें

आओ ! इन नरगिसी आँखों के सदके लूँ
पुखराज़ को तुम्हारी वेणी में गूंथ दूं
ओस के कतरो से पलकों पर कश्ती उतार दूं
शुष्क लबों पर झील का धीरज सजा दूं

मुस्कान और हंसी के बीच की हरकतों पर
कुछ छोटी छोटी मुकरिया लिख दूं
धड़कनों के बीच एक खूबसूरत ग़ज़ल रफू कर दूं
साँसों के पैबंद लगा कर रूह का बोसा ले लूँ

आओ ! तुम्हारी अंगड़ाईयो की स्याही से समंदर को खत लिखूँ
गुस्ताखियों के कागज़ का जहाज़ बनाकर उड़ा दूं
मुहब्ब्तों का लगान मद्धम चराग की रोशनी में पढूं
शिकवों पर नादानी की मुहर लगा बेपते रवाना कर दूं

आओ ! किसी दिन
तुम्हारे कान में फूंक दूं कुछ तिलिस्मी मंत्र
सीखा दूं थोड़ी बदमुआशी थोड़ी अय्यारी
जिस्म के वजीफे मांग लूँ उधार
ताकि उतर सकें दिल की पर ज़मी एक लिज़लिजी काई

आओ ! मगर इस तरह आना
जैसे समंदर के किनारे आते है सीप
जैसे नदियां भूल जाती है अपने उद्गम गीत
जैसे हवा अचानक बन जाती है दक्खिनी
जैसे लोहा टूटकर भी चाहता है धौंकनी

आओ ! किसी दिन इस तरह भी
मेरी तरह नही केवल अपनी तरह
मुन्तजिर हूँ मुफकिर हूँ बेफिक्र हूँ
तुम जरूर आओगी इस तरह भी
एक दिन।

© डॉ.अजित

Friday, July 8, 2016

असफलता

मुद्दत बाद मिलनें पर उसने कहा
बड़े अश्लील हो गए हो तुम
और थोड़े घटिया भी
उसने जवाब दिया
कोई नई बात कहो
इतने दिन बाद मिली हो
और वही कह रही हो
जो दुनिया कहती है

अच्छा ! दुनिया ऐसा कहती है तुम्हारे बारे में?
उसने चौंकते हुए कहा

हां !

फिर तुम ये नही हो सकते
तुम तो दुनिया को गलत साबित करने के लिए पैदा हुए थे
मैं गलत थी फिर इस हिसाब से

अच्छा क्या हो गए हो फिर तुम?

मेरे ख्याल से थोड़ा तल्खज़बाँ
थोड़ा बदतमीज़
उसने आत्म समर्पण की मुद्रा में जवाब दिया

हम्म !
आदत अच्छी नही मगर इतनी भी बुरी नही कि
तुम्हारी शक्ल देखना पसन्द न करें कोई

क्या फर्क पड़ता है इन सब बातों से! वो अब दार्शनिक मुद्रा में था

फर्क बस इतना पड़ता
अब हमें हंसी नही आती इन बातों पर
ये क्या कोई कम बड़ा फर्क है तुम्हारे हिसाब से,उसने चिढ़ते हुए कहा

हंसी हमेशा किसी बात पर ही आती है इसलिए हंसी मजबूर चीज़ है थोड़ी
उदास आदमी बेसबब भी हो सकता है

ओह हो ! तो ये बात है
शायर हो गए हो तुम उसने छेड़ते हुए कहा

शायर हुआ नही जाता है आदमी हो जाता है

मतलब इश्क विश्क टाइप उसने हंसते हुए पूछा

छोड़ो ये बातें अच्छा ये बताओं
दिलचस्पी का मरना किस तरह देखती हो तुम
उसने कहा ठीक वैसे जैसे तुम्हें देखकर खुद को देखती हूँ

ये ठीक बात कही तुमनें तमाम बातों के बीच

अब एक मेरे भी एक सवाल का जवाब दो
प्यार बदलता क्यूँ है
प्यार बदलता नही है स्थिर होकर सूख जाता है

ऊँहूँ ! बात जमी नही कुछ
इतने कमजोर तर्क कब से करने लगे?

चलो ! अपनी वही प्रेम कविता सुनाओं
जिसे पढ़कर प्यार दुनिया की सबसे पवित्र चीज़ लगता था

उसने कहा,याद नही अब तो

तुम में सच अब बेहद घटिया हो गए हो
अश्लील भी
इसलिए नही कि दुनिया कहती है
इसलिए अब तुम अपनी प्रिय कविता भूल गए हो

हम्म !

फिर कोई सवाल जवाब नही हुआ दोनों मध्य
दोनों एक दूसरे को देखते रहें थोड़ी देर
और विदा हो गए
अपनी अपनी असफलता पलकों पर लेकर।

©डॉ.अजित

Tuesday, July 5, 2016

इयत्ता

अपनी इयत्ता में सिमटा
हर शख्स
थोडा सा अजीब हो ही जाता है

अनुमानों से छलनी उसका सीना
प्रेम भी करता है बेहद झीना

बात केवल एक अवस्था की नही है
एकदिन आप भूल जातें है
अपनी चड्ढी बनियान का नम्बर
फिर अनफिट चीज़े पहनना
एक किस्म की मजबूरी भी होती है
मगर नही रहती किसी से कोई शिकायत

शिकायत का न होना एक किस्म की संधि है
जिसका उल्लेख किसी युद्ध के इतिहास में नही मिलेगा

दुनिया की कृत्रिमता छिप भी जाए
खुद पर सवाल खड़े करने वाले नही छिप पाते
किसी सुदूरवर्ती द्वीप पर भी
वो दराज़ में मुंह देकर खंगालते है पुराने कागज़
ताकि मिल सके उनकी रिहाई का खत

अजीब लोगो की बीच रहते है कितने अजीब लोग

इसी रिहाइश पर
कुछ लोग नक्शा लेकर खड़े होते है
वो चाहतें दुनिया से करना
इन अजीब लोगो को बेदखल
ताकि दुनिया में बची रहे एकरूपता

अपनी इयत्ता में सिमटे हुए शख्स
इतने मामूली होते है कि
आप उन्हें हंसते या रोते हुए नही पहचान सकते

उनकी हूक में विलुप्त हुई जातियों के ऋण दबे होते है
उनकी हंसी में क्लोन के सन्देह शामिल होते है
उनकी मुस्कान गैर बौद्धिक होती है
नही कह सकते आप उसे मासूम

सिमटता हुआ आदमी
दिखता है बेहद अरुचिपूर्ण
सबसे आसान होता है उसे खारिज़ करना
दरअसल,उसे खारिज़ करना ठीक वैसा है
जैसे धरती पर बैठकर कहना
यही है धरती का एकमात्र मध्यबिंदू
फिर आप व्यवस्थित करते रहे
कर्क रेखा अपने हिसाब से

अपनी इयत्ता में सिमटा हर शख्स खतरा है
सभ्य समाज के लिए
क्योंकि वो नही जानता विशुद्ध साइंटिफिक केलकुलेशन
वो होता लगभग अनपढ़
रिश्तों को उपयोग करने के कौशल में
वो जोड़ लेता दशमलव के बाद का भी शून्य
अपनत्व के भरम में

उसे खदेड़ना चाहिए देखते ही
डराना चाहिए पाषाणकालीन आवाज़ों से
अलबत्ता तो वो डरेगा नही अगर एक बार डर गया
फिर वो जोर जोर से गाएगा गर्व से भरे गीत

अपनी इयत्ता में सिमटे शख्स का डर
होता है बेहद विचित्र
वो डर जाता है एक आत्मीय हंसी से
एक निजी सवाल से
और जब वो डरता है
तब दिखता है ठीक उनके जैसा
जिनकी खुद से बिलकुल मुलाकातें नही

अपनी इयत्ता में सिमटे शख्स को
बस हम इसी तरह देखना चाहतें है
फिर हो जातें है हमे थोड़े बेफिक्र
सुला देते है अपने बच्चों को दिन में
और रात में लिखतें है न होने क्रांतियों के पाठ

जिन पढ़कर एक जवान पीढ़ी हो जाती है तुरन्त बूढ़ी।

© डॉ.अजित

एकदिन

बहुत दिन बाद
मिलनें पर पूछा उससें
क्या तुम्हें भी आवाज़ मोटी लगती है मेरी
याददाश्त पर जोर देकर सोचते हुए
उसनें कहा हां थोड़ी भारी है
मैंने कहा एक ही बात है
इस पर बिगड़ते हुए वो बोली
एक ही बात कैसे हुई भला
आवाज़ हमेशा भारी या हलकी होती है
मोटी या बारीक नही
मोटा आदमी हो सकता है
बारीक नज़र हो सकती है
तुम्हारी आवाज़ भारी है
मैंने कहा फिर तो तुम्हारे कान भी थकते होंगे
उसनें कहा नही
मेरा दिल थकता है कभी कभी
मैंने कहा कब थकता है दिल
लम्बी सांस लेकर उसने कहा
जब तुम्हारी आवाज़ भारी से मोटी हो जाती है
तब तुम्हारी नजर बेहद बारीक होती है
ये सुनकर मैं हंस पड़ा
उसने कहा तुम्हारी हंसी भारहीन है
मैंने कहा कब तौली तुमनें
उसने कहा
जब तुम उदास थे।

©डॉ.अजित