Thursday, June 30, 2016

गजल

जब खुद के अंदर बाहर रहना
तब क्यों किसी को बुरा कहना

सारे ऐब ही जब हमारे अंदर है
मत आदतन हमे अब खुदा कहना

समन्दर से गुफ़्तगु तुम करते हो
नदी से पूछते क्या होता है बहना

दर ब दर किस्मत में लिखा था
हम क्या जानें एक मकाँ में रहना

रंज ओ' मलाल जेवर थे जिंदगी के
वक्त बेवक्त जिन्हें था हमनें पहना

निकल जाऊँगा चुपचाप अकेला मैं
बस कुछ दिन और इसी तरह सहना

© डॉ.अजित

Sunday, June 26, 2016

औसत मनुष्य

देह की थकन देना चाहती है
मन को विश्राम
वो नींद को करती है स्वीकार
बिना किसी परिभाषा के

मन की थकन चाहती है मांगना
देह से कवच कुण्डल
वो लौटा देती है नींद को बिना पता बताए

दोनों थकानों में थकता है
एक मनुष्य
जिसे बाद में कहा जाता है
एक औसत मनुष्य।

©डॉ.अजित

जीवन

जब देखा
शोक से विलाप करती स्त्रियों को
उसने त्याग दिया
आत्महत्या का अपना बेहद पुराना विचार

किसी मदहोश आँख को देखते हुए
शुष्क लबों की बेरुखी को झेलते हुए
भले ही मरा जा सकता हो

मगर
शोकातुर स्त्रियों को देख लगा
किसी भी तरह से मरना ठीक नही
अपनी शान्ति की कीमत
इतनी बड़ी नही हो सकती
कम से कम

इसलिए
उसने कहा स्त्री और जीवन
एक स्वर में
और जीता चला गया
तमाम जीने की असुविधाओं के बावजूद।

©डॉ.अजित

Thursday, June 23, 2016

निजता

उसनें एकदिन पूछा
तुम्हें कभी निजता के संपादन की जरूरत महसूस हुई?
मैंने कहा हां एकाध बार

उसने पूछा कब?

मैंने कहा जब कोई ख्याल
सार्वजनिक तौर पर कयासों की देहरी पर
बेवजह टंग गया
और बहस मेरी रूचि न बची थी

उसे बचाने के लिए निजता को
सम्पादित करना पड़ा है मुझे

अच्छा ! उसने दिलचस्पी से मेरी तरफ देखा
कैसे किया तुमनें निजता का सम्पादन ?

मैंने कहा फेसबुक की तरह
कुछ विकल्प थे मेरे दिल ओ' दिमाग में

मैं कर सकता था उस ख्याल को सीमित
दुनिया से हटाकर दोस्तों तक
दोस्तों से हटाकर खुद तक
या खुद से हटाकर किसी एक दोस्त तक

एक बार सोचा क्यों न परमानेन्ट डिलीट ही कर दूं
फिर लगा ये तो उस ख्याल के साथ नाइंसाफी होगी
 
मुझे निजता और ख्याल दोनों बचाने थे
इसलिए उसको कर दिया सीमित
मेरे और तुम्हारे बीच

जानता हूँ तुम्हें इसकी खबर नही है
मगर मेरी निजता का एक बड़ा हिस्सा
तुम्हारे साथ यूं ही बेखबर रहता है

तुम्हारे साथ शेयर कर सकता हूँ
मैं बेहद मामूली बातें भी

मसलन
कैसे मुझे नया जूता काट रहा था
जींस पर बेल्ट बांधते समय मुझसे एक हुक छूट गया था
या मुझे बहुत देर से पता चला कि बनियान को कैसे समझा जाता है उल्टा या सीधा
शर्ट इन करने के बाद पहली ही सांस के साथ बेतरतीब ढंग से शर्ट क्यों आती है बाहर
पहली दफा जब एटीएम से पैसे न निकलें और मैसेज आ गया था फोन पर अकांउट डेबिट होने का
कितना घबरा गया था मैं
ये भी बहुत दिन बाद जान पाया कि जिस दोस्त के घर बच्चें होते है
नही जाना होता उनके घर खाली हाथ
प्यार से ज्यादा जरूरी होती है अंकल चिप्स,चॉकलेट और फ्रूटी

ये बातें सुनकर वो खिलखिला कर हंस पड़ी
पहली बार यह महसूस हुआ
ये निर्बाध हंसी
हमारी निजताओं की दोस्ती की हंसी थी
जिसे फिलवक्त किसी सम्पादन की जरूरत नही थी।

©डॉ.अजित

मुद्दत से

मुद्दत से मेरे पास कोई ऐसी खबर नही
जिसे सुन मेरे दोस्त खुशी से झूम उठे और
बिना मेरी सहमति के कर ले पार्टी प्लान
और मुझे लगभग चिढ़ाते हुए कहे
बड़े आदमी हो गए हो बड़े अब हमारे लिए वक्त कहाँ !

मेरे पास जो खाली वक्त है
ये उसका सबसे क्रूर पक्ष है

मुद्दत से मेरा कोई रिश्तेंदार
मुझसे मिलनें को लेकर उत्साहित नही है
इंतजार का औपचारिक उलाहना सुनें
मुझे अरसा हो गया
एमए पीएचडी होने के बावजूद कोई नही रखता अपेक्षा कि
उनके बच्चों के करियर पर मैं कोई सलाह दूं
बल्कि यदि बच्चें मेरे इर्द गिर्द इकट्ठा हो जाए
उन्हें फ़िक्र होने लगती है
कहीं वे मुझे अपना आदर्श न मान लें
और ढीठता से सीख न लें
असफलताओं का ग्लैमराईजेशन

मुद्दत से मेरी बातों में नूतनता का नितांत अभाव है
कुछ पढ़ी पढ़ाई सुनी सुनाई बातों के जरिए
बचाता रहा हूँ अपने कथित ज्ञान की आभा
पिछले दिनों एक बच्चें ने सत्रह का पहाड़ा पूछ लिया मुझसे
जब मैंने कहा मुझे नही आता
उसनें इस तरह देखा मुझे
जैसे मैं लगभग अनपढ़ हूँ

कुछ पढ़े लिखे दोस्तों की बातचीत से चुपचाप चुराता रहा हूँ विचार तर्क और मान्यताएं
कविताओं से सीखता रहा हूँ प्रेम को इस तरह पेश करना
जैसे अर्थ से बड़ी दरिद्रता प्रेम की दरिद्रता है
जिनका मैं कर्जमंद हूँ
जब वो पढ़तें है मेरी प्रेम कविताएँ
उनकी खीझ चरम पर होती है
इतने आत्मविश्वास से बोलता हूँ झूठ कि
सत्य को संदेह होने लगता है खुद पर
यह मेरा अधिकतम वाचिक कौशल है

मुद्दत से मैंने खुद से बातचीत नही है
अपने आसपास जमा किया है मैंने इतना शोरगुल कि
न सुन पाऊं दिल या दिमाग की एक भी बात
इसलिए, मैं जो बोलता हूँ वो एक सीमा तक जरूर मौलिक है

मुद्दत से मेरे कुछ शुभचिंतक प्रतीक्षारत है
उन्हें लगता है मेरे अंदर अपार सम्भावनाएं है
बस मैं मन का थोड़ा अस्थिर हूँ
हनुमान की तरह भूल गया हूँ अपना ही बल
एक दिन करूँगा मैं कुछ बड़ा

मैं उनकी मासूम उम्मीदों पर ठहाका मार हंसना चाहता हूँ
मगर हंसता नही
क्योंकि ये अपेक्षाओं का नही मनुष्यता का निरादर होगा
नही कर सकेगा फिर कोई किसी पर भरोसा
नही देख सकेगा कोई साँझे स्वप्न

मुद्दत से यही नैतिकता मेरे जीवन में बचाए हुए है
थोड़ी बहुत औपचारिक प्रतिबद्धता

मुद्दत से 'गुड फॉर नथिंग' जैसे सांसारिक उत्पाद का
ब्रांड एम्बेसडर बना हुआ हूँ मैं
अपनी तमाम थकान के वावजूद
किसी को नही है सन्देह मेरी प्रचार क्षमता पर
मेरी उत्पादकता से षड्यंत्र की बू आती है
बहुधा लोगो को लगता है कि
बहुत से मुरीद बनाए मैं बड़े वली वाले मजे में हूँ

जबकि सच तो यह है
मुद्दत से मैं कहाँ हूँ मुझे खुद नही पता
मैं गुमशदा हूँ या गमज़दा ये बता पाना भी मुश्किल है

मुद्दत से मैं बस जहाँ हूँ वहीं नही हूँ।

©डॉ.अजित

उम्मीद

कल तुम्हें फोन किया
फोन स्विच ऑफ़ बता रहा था

मैंने दोबारा मिलाया तो
आउट ऑफ़ रेंज बताया गया

जो मध्यस्थ मुझे तुम्हारे फोन के बारें में बता रहा था
उसकी आवाज़ इतनी शुष्क थी कि
तीसरी दफा फोन करने की हिम्मत न हुई

हारकर एक एसएमएस किया
मगर उसकी डिलवरी रिपोर्ट नही आई

कल तुम कहां थी
ऐसा बेतुका सवाल नही पुछूँगा
मगर कल जिस जगह तुम्हारा फोन था
वो दुनिया का सबसे भयभीत करने वाला कोना था

हो सकता है ये चार्जिंग पर टंगा हो
या फिर फ्रिज के ऊपर हो
ये तकिए के नीचे भी हो सकता है

खैर कहीं भी हो मुझे क्या
तुम्हारी चीज़ है
मुझे पुलिसिया ढंग से
पूछताछ करने का कोई हक भी नही
मगर कल जब तुमसे बात न हो पाई
और मध्यस्थ पुरुष ने मुझे
दो अलग अलग बात बताई तो

यकीं करो दोस्त !
मैंने खुद से ढ़ेर सारी बातें की
उन बातों में जगह जगह तुम थी

दरअसल, ऐसा करके मैं खुद को भरोसा दिला रहा था कि

फोन ही तो नही मिल रहा है मात्र
तुम एक दिन जरूर मिलोगी
उसदिन तो बिलकुल मिलोगी
जिस दिन तुम्हारी सबसे सख्त जरूरत होगी मुझे

फिलहाल उम्मीद तुम्हारे फोन के विकल्प के रूप में
अपनी मेमोरी में सेव्ड कर ली है
झूठ नही कहूँगा थोड़ा सा डर भी है कि
कहीं तुम्हारे फोन की तरह ये भी किसी दिन
स्विच ऑफ़ या आउट ऑफ़ रेंज न मिले।

©डॉ.अजित

Tuesday, June 21, 2016

ग्रामर

उसकी एक बात ने
प्रेम में हाइफ़न लगा दिया था

मेरी कोई दलील
इंवर्टेड़ कोमा में नही थी

वहां सवाल बिना क्वेश्चयन मार्क के थे
वहां जवाब में कोई कोमा भी नही था

न जाने क्यों एक दिलचस्प बातचीत में उसनें
एक सेमीकॉलम बनाया और आगे लिख दिया
फ्रीडम फ्रॉम द नॉन

मुझे लगा ये किसी फिलासफी की बात है
मगर दरअसल वो फुल स्टॉप की एक भूमिका थी

दोस्ती के ग्रामर में मेरी पंचुएशन खराब थी
इसलिए नही कह पाया कभी ये बात
महज एक शुद्ध वाक्य में
प्लीज़ बी विद मी !
इफ पॉसिबल।

©डॉ. अजित

हसरत

बहुत दिन बाद उसने अपना हाल लिखा
कही पे जलाल तो कहीं पे मलाल लिखा

तासीर ही उस ताल्लुक की कुछ ऐसी थी
अहसास ए हकीकत को भी ख्याल लिखा

जिन दिनों परेशां था आरजू ओ' ज़ुस्तज़ु में
उन दिनों को ही उसने महज कमाल लिखा

मुहब्बतों के खत लिखतें है जमाने के लोग
मगर उसनें अपनी नफरतों का हाल लिखा

माँगा नही जवाब हमनें अपनी हसरतों का
फिर भी सवाल के जवाब में सवाल लिखा

मिलना बिछड़ना गोया तकदीर का खेल था
साथ होना फिर भी हमारा बेमिसाल लिखा

©डॉ.अजित


Monday, June 20, 2016

चिट्ठी

तुम्हारा खत मिलतें ही
मैंने सबसे पहले चाहा एकांत

खत की खुशबू के लिए
मैंने चाहा खुला आकाश

तुम्हारी लिखावट से जब
मिलाना चाहा हाथ
वहां देखा पसरा हुआ संकोच

आखिर में जहां तुम्हारा नाम लिखा था
वहां लगा जैसे तुम बैठी हो
देख रही मुझे यूं अस्त व्यस्त
मुस्कुरा रही हो मंद-मंद

ये महज तुम्हारी एक चिट्ठी नही है
ये एक चिकोटी है
जो काटी है तुमनें मेरी गाल पर
पूछनें के लिए
कैसे हो मेरे बिना इनदिनों

मैं अक्षर गिन रहा हूँ
और तुम्हारी हथेली के स्पर्शों की
छायाप्रति निकाल कर रख रहा हूँ बायीं जेब में
कागज़ की तह से पूछ रहा हूँ तुम्हारा उत्साह
लिफाफे को रख दिया एक उपन्यास के बीच में

पहली फुरसत में लिखूंगा
दिन और रात का फर्क
दूरियों का भूगोल
उधेड़बुन का मनोविज्ञान
परिस्थितियों का षड्यंत्र
विलम्बित होती गई तिथियों का विवरण
कुछ शिद्दत के पुर्जे
कुछ बेबसी के कर्जे

अचानक एकदिन मिलेगी
तुम्हें मेरी चिट्ठी
जिसमें होगा
ज्यादा हाल ए दिल
थोड़ा हाल ए जहां
विश्वास करना मेरा
लिखता अक्सर हूँ
बस पोस्ट नही करता

क्यों नही करता
तुमसे बेहतर मैं भी नही जानता।

©डॉ.अजित

Sunday, June 19, 2016

वजह

कारण चाहे जो भी रहे हो
जो बच्चें लौकिक रूप से
सफल न हो पाए
नही दे पाए अपने पिता को
गर्व की एक भी वजह
बल्कि सुननी पड़ी हो
नसीहतें जिनके कारण
होना पड़ा हो शर्मिंदा पिता को गाहे बगाहे

माँ जिनके कारण
कोसती रही हो अपनी ही कोख को
कहती रही वो ऐसे सपूती से तो वो नपूती भली थी

भाई जिनके कारण छिपाते रहे हो अपना कुल
धारण करते रहे हो घर के मसलों पर चुप्पी
अजनबीपन जीने का कौशल बनाना पड़ा हो

बहन तलाशती रही हो
ममेरे फुफेरे भाईयों में अपनत्व
सदा शामिल रही हो
माँ बाप के औलाद वाले दुःख में बढ़ चढ़कर

ऐसे उपेक्षित बेकार समझें गए बच्चों से
जब दोस्ती की गई
यकीन मानिए वो कमाल के दोस्त साबित हुए
यारों के यार
आधी रात भी साथ खड़े होने को तैयार

उनसे किसी ने नही पूछा
उनके जीवन का खेद
असफलता का बोझ
और यूं ही बेवजह बर्बाद होने का सबब

जब एकदिन मैंने पूछना चाहा किसी एक से
वो हंसकर टाल गया
जातें जातें उसने एक बात कही
जो फंसी रह गई मेरे दिल में
फांस की तरह

'कुछ क्यों ऐसे होते है जिनका कोई जवाब नही होता है'।

© डॉ.अजित

Saturday, June 18, 2016

विज्ञापन

मैंने एकदिन पूछा
तुम्हारे हिसाब से
सबसे झूठा विज्ञापन कौन सा है
उसनें कहा
'हीरा है सदा के लिए'
मैंने वजह जाननी चाही क्यों?
थोड़ी दार्शनिक मुद्रा बनाकर उसने कहा
प्रत्यक्ष को प्रमाण की जरूरत नही होती

फिर एकदिन मैंने आदतन पूछ लिया
तुम्हारे हिसाब से
सबसे सच्चा विज्ञापन कौन सा है
उसने कहा
सच्चा तो नही पता मगर सबसे अच्छा विज्ञापन है
गार्नियर का
'अपना ख्याल रखना'
मैंने कहा क्यों?
खीझते हुए उसने कहा
ये मेरी दिन रात की फ़िक्र और प्रार्थना बताता है।

©डॉ.अजित

Friday, June 17, 2016

प्यार

प्यार शहतूत था
जहां गिरता मिठास बो देता था
प्यार कुछ कुछ हिस्सों में प्रलय जैसा था
सब कुछ खतम की उम्मीद में भी
छोड़ जाता था कुछ वीरान टीले
प्यार एक मुकम्मल सफर था
दो साथ चले लोगो को उतरना था
अलग अलग मंजिलो पर
प्यार मुमकिन करता था
रात में इंद्रधनुष देखना
और दिन में चांद
प्यार में यार के माथे पर
एक अधूरा लफ्ज़ टँगा था
इसलिए अधूरेपन से प्यार को भी था प्यार
प्यार बताता था फर्क करना
ख्वाब और हकीकत में
प्यार मदद करता था
बेहतर इंसान होने में
प्यार की बस एक ही अच्छी बात थी
इसके सहारे मुस्कुराया जा सकता था
चरम अवसाद के बीच
प्यार की बस एक ही खराब बात थी
ये बिन बताए आता
और जाता था हमें
ठीक ठाक ढंग से बताकर।


©डॉ.अजित

Thursday, June 16, 2016

बेबसी

एक दरख्वास्त
तुम्हारी बेरुखी की दराज़ में
सबसे नीचे मुद्दत से रखी है

एक इस्तीफ़ा तुम्हारी मेज़ के कोने पर
नामालूम नाराज़गी के पेपरवेट तले दबा
अरसे से फडफड़ा रहा है

एक खत तुम्हारे डस्टबिन की मुहब्बत में
कुछ महीनों से गिरफ्तार है
स्याही की गोंद बना वो उसके दिल से चिपक गया है

एक बोसा तुम्हारी पलकों
की महीन दरारों में दुबका बैठा है
उसे डर है तुम्हारे आंसू उसका वजूद न खत्म कर दे

एक शिकायत
गंगाजल में जा मिली है
रोज़ आचमन के समय तुलसीदल के साथ
तुम उसे घूँट घूँट पीती है
मगर तुम्हें इसकी खबर नही है

कुछ मलाल तुम्हारे लॉन की घास के साथ उग आए है
वो रोज़ तुम्हारे नंगे पाँव के सहारे
तुम्हारे दिल में दाखिल होना चाहतें है
मगर तुम उन्हें खरपतवार समझ उखाड़ देती हो

कुछ बहाने,कुछ सात्विक झूठ और कुछ सफाईयां
रोज़ तुम्हारी चाय के कप के इर्द गिर्द भटकती है
तुम जैसे ही फूंक मारकर चाय से मलाई हटाती हो
वो उस तूफ़ान में भटकर
धरती के सबसे निर्जन कोने में पहूंच जाते है

तमाम कोशिशों के बावजूद भी
तुम्हारे वजूद में
नही दाखिल हो पा रहा है मेरा वो हलफनामा
जिसमें कहना चाह रहा हूँ
इस वक्त मुझे तुम्हारी सख्त जरूरत है
वक्त की चालाकियों में मिट रहें हरफ
बस एक लफ्ज़ बचा पाया हूँ बड़ी मुश्किल से

'ईश्वर मेरी मदद करें'।

©डॉ.अजित