Wednesday, March 25, 2015

संयोग

मुमकिन है
किसी दिन लौटना न हो
या फिर रास्ता भूल जाऊं
मिलनें की इच्छाशक्ति
बदल जाए अजनबीपन में
इसलिए
इन्तजार मत करना
केवल इतना सोचना
दुनिया गोल है
पहला रास्ता मिल जाता है
आख़िरी रास्ते से
दुनिया के सभी रास्तें
मिलते है एक दुसरे से
इसलिए जो भी गुमशुदा है
वो आमनें सामनें जरूर पड़ेंगे
एकदिन
एक दुसरे को पहचान पायें या नही
यह वक्त और संयोग की बात है।

© डॉ.अजीत 

Tuesday, March 24, 2015

विकल्प



विकल्पों के
मध्यांतर पर
सबसे ज्यादा होतें है
शब्द खर्च
उलझ जातें हैं भाव
नजदीक और दूर के
चेहरों के बीच
विकल्प दरअसल
मनुष्य की ऊब है
एक बेहतर शक्ल में।
***
नदी शिकायत नही करती
धरती भी नही करती
सहती है पहाड़ का बोझ
हवा फैलाती है अफवाह
मौसम करता है षड्यंत्र
रेत उड़ता है बिखरने के लिए
मनुष्य जीता है मरने के लिए
विरोधाभास जरूरी है
प्रासंगिक बनें रहने के लिए।
***
बीज
दुनिया का सबसे अकेला जीव है
कोई नही पूछता
उसके एकांत के किस्से
जन्म देकर
सो जाता है वो
मिट्टी और नमी के बीच
जन्म देकर जैसे
सबसे अकेली हो जाती है स्त्री।
***
रास्ते
इन्तजार में बूढ़े हो जाते है
उनके संग्रहालय में
कदमों के असंख्य निशान सुरक्षित है
जब कोई रास्ता मरता है
बचें रास्तें गातें है शोकगीत
मिटाते उन कदमों के निशान
जो लौट कर कभी नही आतें।
***
कला के उपक्रम
देह की तलाशी लेतें है
सौंदर्य महज एक आकार नही
वो एक गुमशुदा पता है
जिसे खोजतें है हम
अनुभव की दराज़ में
जब नही मिलता तो
कह देते है बड़ी आसानी से
दरअसल
समझें नही तुम।
***
आसान चीजें
उतनी आसान भी नही होती
जितनी दिखती है
ठीक वैसे
जैसे मुश्किल चीजें
उतनी मुश्किल नही होती
जितनी नजर आती है
जीनें की वजह तलाशना
मौत की वजह तलाशनें से
अधिक मुश्किल काम है
साहसी व्यक्ति जी पातें हैं
दुस्साहसी कर पातें है आत्महत्या
और भगौड़े बांट पातें है
केवल ज्ञान।
***
झूठ बचाता है
उम्मीद
सच बचाता है
झूठ की सम्भावना
सच और झूठ
एक दुसरे के संस्करण है
इसलिए भरम में
मुश्किल हो जाता है
सच और झूठ का फैसला
मसलन आपका दिल बोले सच
और दिमाग उसी को कह दें झूठ।

© डॉ.अजीत

Friday, March 20, 2015

गुनाहों का देवता

प्रेम के स्वप्न आँखों में बो न सके
सुधा तुम, चन्दन हम हो न सके

एक दूरी ही रही हमेशा दरम्यां
नदी तुम,किनारे हम हो न सके

यादों के सिलसिले दूर तक गए
मंजिल तुम, सहारे हम हो न सके

अजब बेबसी थी उन दिनों भी
मीठी तुम,खारे हम हो न सके

वक्त बदलनें की उम्मीद ऐसी थी
मासूम तुम, बेचारे हम हो न सके

© डॉ. अजीत

(गुनाहों का देवता को याद करते हुए)

Thursday, March 19, 2015

मनोरंजन

कवि के पास होना चाहिए जितना आत्मविश्वास
उससे एक बटा दो कम है मेरे पास
लेखक के पास होनी चाहिए जितनी गहराई और रहस्यता
उससे एक तिहाई भी नही मेरे पास
समीक्षक के पास होनी चाहिए जितनी निर्ममता
उसका एक अंश भी नही मेरे पास
मंच पर पहूंचते ही लड़खड़ा जाती है मेरी ज़बान
विचार,शब्द,मीमांसा और सम्वेदना से हो जाता हूँ रिक्त
पत्रिकाओं के पतें तक नही रख पाता सम्भाल कर
सम्पादकों से नही मिल पाता राजकीय अतिथि गृहों में
नही पढ़ा किसी नामी विश्वविद्यालय में
ना ही मेरा कोई गुरु चोटी का साहित्यकार है
बुरे वक्त पर हर किस्म की मदद करने वाले
अच्छे दोस्तों को
मेरी वाणी में व्यंग्य होने की स्थाई शिकायत है
उन्हें लगता है
अपने मामूली जीवन में कुछ ख़ास न कर पाने की खीझ है मेरे अंदर
जब दुनिया से नही बनती तो
उखड़ कर सबकों गरियाने लगता हूँ एकतरफा
ना मैं खुद को बदल पाया ना अपने आसपास की दुनिया को
नितांत ही निजी समस्याओं और संघर्षों के पुराण बांच
मैं हासिल करता आया हूँ सहानुभूति
यह एक आम राय है मेरे बारें में
अपने दौर में खारिज होता हुआ
सरक आया हूँ मैं हाशिए तक
बावजूद इतनें नंगे सच के
दुस्साहस की सीमा तक
निर्बाध हो लिखता हूँ
कविता गद्य और समीक्षा
भले ही उनमें साहित्यिक गुणवत्ता का अभाव हो
छपना तो दूर वो विद्वानों के पढ़ने के स्तर की भी न हो
मगर फिर भी वो पढ़ी और सराही जाती है
पहूंच जाती है अपनी मंजिल तक
अपनी अधिकतम यात्रा तय करके
यह देख
मैं हंस पड़ता हूँ खुद के पागलपन पर
इस तरह से हंसना
मेरे जीवन का एकमात्र मनोरंजन है
जो थकनें नही देता मुझे।

© डॉ. अजीत







हवा

हवा मुझसे कहती है
तुम्हारे कान गर्म है
और माथा ठंडा
मैं हवा की तरफ
पीठ कर देता हूँ
हवा कुछ नही कहती
इसका मतलब यह निकलता हूँ मैं कि
पलायन का तापमान
हवा भी नही जानना चाहती
वो उड़ जाती है
किसी दुसरे माथे और कान का
हालचाल जानने के लिए
एक मौसम वैज्ञानिक ने बताया
जो कभी मन का भी वैज्ञानिक रहा था
मेरी पीठ दक्षिण का पठार है
जहां गलती से हवा आ भी जाए तो
लू में तब्दील हो जाती है।

© डॉ. अजीत

बोझ

धरती मेरे कान में कहती है
जाओ थोड़ी मिट्टी वो लेकर आओं
जहां तुम पहली दफा
अपने पैरों पर खड़े हुए थे
तुम्हारा बोझ
नापना है मुझे
मै घूमता हूँ सारे ब्रह्माण्ड में
नही मिलती उतनी मिट्टी
फिर खड़ा हो जाता हूँ निरुपाय
धरती फिर कहती है
अच्छा थोड़ी देर खड़े रहो
नंगे पैर
अब तुम्हारा द्रव्यमान ही नापा जा सकता है
उसी के सहारे अनुमान लगा लूंगी
तुम्हारे बोझ का
तुम्हारे संतुलन के लिए
मेरा यह जानना बेहद जरूरी है
तुम्हारे बोझ में
कितना बोझ तुम्हारा है।

© डॉ. अजीत


Wednesday, March 18, 2015

आरोप

उसका यह मुझ पर
नया आरोप है
हमेशा शहद में लिपटी बातें
सुनना है मुझे पसन्द
जरा सी तल्खी
नही होती बर्दाश्त
सफाई देकर उसके आरोप की
पुष्टि नही करना चाहता
मेरी पसन्द के मूल्यांकन का
यह सबसे अन्यथा और सतही संस्करण है
क्योंकि मेरी पसन्द में
लम्बे समय से वो अकेली शिखर पर है
अपनी नीम-शहद सी बातों के साथ
प्रेम विरोधाभास के बीच
जीना सिखाता है
इस जीने के बीच
पसन्द एक बेहद छोटी चीज़ है
इसलिए ऐसे आरोप पर
खीझ के पलों में भी
मुस्कुराया जा सकता है बस।

© डॉ. अजीत

खत

नींद एक बेपते की चिठ्ठी है
जो आती है कभी कभी
मेरे दर पर
नही पता कौन लिखता है
ऐसी लिखावट में खत कि
पता आते आते मिट जाता है
ख्वाब एक बूढ़ा डाकिया है
जिसे मनीआर्डर के साथ लिखे दो शब्द
पढ़ने की आदत है
कोरा लिफाफा देख
डाकिए पर मुझे सन्देह होता है
और डाकिया मुझे
सही इंसान समझने से इंकार करता है
थमा मेरे हाथ में लिफाफा
वो लौट जाता है अक्सर
यह बड़बड़ाता हुआ
'कम से कम पता तो
पूरा दिया करों
मिलनें-जुलनें वालों को'।

© डॉ. अजीत

सवाल

कविता पूछती है कवि से
क्यों लेते हो मेरा सहारा
टांक देते हो शब्दों को
आड़ा तिरछा
विरोधाभास के बीच
तुम्हारी बैचेनियों का दस्तावेज़ बन
बोझ से दब जाती हूँ मैं
तुम कवि नही
मतलबी इंसान हो
कवि की शक्ल में
और मैं भी कविता नही
कविता जैसी बची हूँ बस।

© डॉ.अजीत

Friday, March 13, 2015

मन की बातें

मन की बातें: सात के आसपास
-------------------------------
मेरा मन
तुम्हारे मन की गोद में
पलकें मूंदें सो रहा है
गुजारिश है
उठाना मत
पाप लगेगा।
***
एक ख्वाब
तुम्हारी पलकों
पर सूखाया है
आंसूओं की बारिश से
उसे गिला मत कर देना
पुण्य होगा।
***
तुम्हारी हथेली का भूगोल
रेखाओं ने अस्त व्यस्त कर दिया है
पढ़ नही पाता हूँ
तुम्हारे शहर का मानचित्र
अपने हाथ से मिलाता हूँ
स्पर्शों के अक्षांश
और भूल जाता हूँ
देशान्तर के भेद।
***
यथार्थ को जीते हुए
तुम्हारे नाखून
अपना कलात्मक मूल्य खो बैठें हैं
उन्हें तराशने की फुरसत नही तुम्हें
ख़ूबसूरती से इतर
ये तुम्हें लापरवाह दिखातें है
जबकि
तुम्हारी पीठ जिम्मेदारी से झुकी हुई है
ये बात मैं जानता हूँ ।
***
तुम्हारी चप्पल
एक तरफ से अधिक घिसी हुई है
संतुलन के चक्कर में
एक तरफ अधिक झुक जाती हो तुम
नही जानती कि
इससे फिसलनें का खतरा बढ़ जाता है
नही चाहता तुम कभी फिसलों
क्योंकि हर वक्त सम्भालनें के लिए
मैं उपलब्ध नही हूँ
तुम्हारे आसपास।
***
तुम्हारी परछाई में
ऊकडू बैठ
जमीन पर बनाता हूँ एक त्रिकोण
तुम्हारी यूं ओट लेना
पुरुषोचित भले ही न लगे तुम्हें
मगर
यह मेरा तरीका भर है
तुम्हारी छाया से बातचीत करने का।
***
तुम्हारी गर्दन पर
अस्वीकृति की टीकाएं थी
पाप पुण्य के भाष्य थे
बालों से बहते शंका के झरने थे
मगर मैंने पढ़ा प्रेम
जो लिखा था स्पर्श की लिपि में
संयोग से
जिसकी ध्वनि
आलिंगन से मिलती जुलती थी।

© डॉ. अजीत

Thursday, March 12, 2015

फेसबुकिया गज़ल

अच्छे स्टेट्स तो तन्हा ही रहें
पैराडॉक्स सभी हिट हो गए

दोस्ती के नाम इतने तकाजे थे
हम उनके फ्रेम में फिट हो गए

इनबॉक्स में कुछ, कमेंट में कुछ
सटायर उनके सारे विट हो गए

व्हाट्स एप्प पर होती थी बहस
रिश्तें भी अदालती रिट हो गए

पहले लाइक,कमेंट फिर ब्लॉक
तन्हाई में जीने की किट हो गए

© डॉ. अजीत

Tuesday, March 10, 2015

बतकही

आठ बतकही: अपनी-अपनी
-----------------------------

भर लेता हूँ तुम्हें
ओक में
तुम रिसती रहती हो
बूँद बूँद
आचमन का सुख
तृप्ति से बड़ा होता है
हर बार।
***
चाहती हूँ तुम्हें देना
एक नया आकाश
जहां दूर से केवल
मैं देख सकूं तुम्हें
नजदीकियों की इतनी सी
गुजारिश है।
***
जितना मैंने समझा
प्रेम सूक्ष्म कर देता है दृष्टि
विस्तृत कर देता मन
प्रेम में देख पातें है
पलकों का अंतराल
धड़कनो की सीढ़ियां
उदासी की बंद घड़ी
अपनत्व की बूँद
और अधिकार की गोद।
***
पता है
तुम कभी कभी इतनी खीझ से भर देते हो मुझे
कि तुम्हारी शक्ल तो क्या नाम भी लेना नही चाहती
फिर याद आ जाती है
तुम्हारी छोटी छोटी बातें
जिन पर पहले हंसे बिना नही रहा जाता
और बाद में रोए बिना
तुम अपने किस्म के अकेले हो
इसलिए मेरे हो सदा के लिए।
***
तुमसे आधे दिन से ज्यादा
नाराज़ नही रह सकता
ये आधापन
हमेशा बचा लेता
एक पूरी मुकम्मल कहानी को
और खुश हो जाता हूँ मैं।
***
किसी दिन
तुम्हें तसल्ली से सामने बैठा
देखना चाहती हूँ बस
तुमसें मिले यूं तो अरसा हो गया
मगर देखा एक बार भी नही।
***
सौंप देता हूँ तुम्हें
अपनत्व की पूंजी
मांगता हूँ अक्सर
दो मिनट का उधार
जहां मै और तुम
जी सके
घड़ी बंद करके।
***
सुनो ! एक बात ध्यान से
मेरी बात का
अक्सर बुरा मान जाते हो
अलविदा तो न जाने
कितनी बार कह चुके हो
खुद को यूं न खर्च करों
वक्त बेवक्त
मुझे तुम्हारी जरूरत है
ये बात समझ लो तुम।

© डॉ. अजीत


उधार

एक अदद
फोन तक सिमट आई है मेरी दुनिया
मैं बाहर से सुखी हूँ
अंदर से दुखी
या इसके विपरीत हूँ
ना मेरा फोन जानता है
ना फोन के जरिए जुड़े लोग
इसलिए इस माध्यम से जुड़े लोग
जानते है
मेरे बारें में आधा सच
या फिर आधा झूठ
मेरे बारें में जानना
कोई ब्रह्म ज्ञान भी नही है
जिसके जाने बिना मोक्ष न मिलें
किसी को जानने के जरिए
समझना इतना आसान भी नही है
जितना आसान समझ लिया जाता है
साल भर पहले
लैपटॉप के जरिए सबसे जुड़ा था
आज वो मेरे जीवन की सबसे उपेक्षित चीज़ है
कल शायद फोन भी
दबा पड़ा रहे किसी तकिए के नीचे
और मैं देखता रहूँ शून्य में
माध्यम का सबसे अधिक
दुरूपयोग का दोषी हूँ मैं
और मतलबी तो इतना कि
निर्जीव चीजों के सहारे लूटता हूँ
प्रेम और सहानुभूति
ताकि सिद्ध कर सकूं
खुद को एक संघर्षरत योद्धा
अवसाद और एकांत के सहारे
ऊकडू बैठ खोदता हूँ
सबसे घने पेड़ की जड़
जिसकी छाया मुझे बचाती रही है
अराजक और कुंठित होने से
दोस्तों को मेरी इस हरकत पर
कोई ऐतराज नही
उन्हें लगता है कर रहा हूँ
कुछ गुणवत्तापरक काम
कविता या भावुक नोट
लिख कर नींद आती है मुझे
जी हां ! एक उधार की नींद।

© डॉ. अजीत


Monday, March 9, 2015

ऋषि सूक्त

अभी निपट खाली बैठा सोच रहा हूँ
तुम क्या सोचती होगी
अपनें खालीपन में
फिर ख्याल आता है
तुम खाली ही कब होती हो
सोचनें के लिए
इश्क फरेब के साथ वक्त भी मांगता है
ये एक अजीब बात है
अजीब तो ये बात सोचना भी है।
***
अह्म पर जितनी
चोट तुमनें की
उतना ही आसक्त होता गया मैं
विरक्ति के लिए
तुम्हारा प्रेम पर्याप्त था
समीकरण सब उलट गए
इसलिए
आज दोनों निराश है।
***
मैं संबोधित करता था
तुम्हारे मन को
सुनती थी तुम्हारी नाक
और जवाब देता था
दिमाग
ऐसे में मेरी बात का भटकना
स्वाभाविक था
जिसकी बात ही भटक जाए
उसका भटकना तय होता है
अपनत्व के छद्म जंगल में।
***
स्त्रीत्व का एक अर्थ
व्यापकता समझ बैठा
स्त्रीत्व का अर्थ
विकसित करना
मेरी सबसे बड़ी अज्ञानता थी
स्त्री विमर्श नही
जीवन का विमर्श स्त्री से
मिलता जुलता है।
***
नही समझ पाता
तमाम बुद्धिमान होने के दावे के बीच
तुम्हारा सच मेरे सच से अलग था
फिर भी
झूठ सच से प्रिय क्यों लगता था
माया
शायद इसी को कहते होंगे
ऋषि।
***
उम्मीद के पाँव भारी थे
मगर पीठ बांझ
कान लगाए सुनता था
तुम्हारी धड़कन
जो कहती थी
कूट ध्वनि में
कुछ मौत खुशी से तो
कुछ गलतफहमी से भी होती है ।
***
कप में बची हुई चाय सा
अपराधबोध
बचता रहा हर बार तुम्हारे कप में
बहता रहा जो मन की गलियों में
जल्दबाजी में छूट गया जो
वही प्रेम था मेरा।

© डॉ.अजीत

इति

एक ही बात कितनें
संकेतो में कही गई
अरुचि का इससे अधिक
सम्मानजनक प्रकटीकरण
नही हो सकता था
आरोपित अपनत्व की आयु
अधिक नही होती
मेरे एकालाप में दबते रहें
तुम्हारे समाप्ति के स्वर
इसलिए आज समझकर
तुम्हारे सब संकेत
मुक्त करता हूँ
अपने आग्रही प्रेम से
मुझे ठहराव में जीने की आदत है
और तुम्हें गति से प्रेम
बात यह भी नही है कि
कौन सही या गलत है
बात सिर्फ इतनी है
हम शायद एक दुसरे को
उतना नही समझ पाए
जितना समझना अनिवार्य था
इसलिए साथ का मतलब
हर हाल में साथी नही होता
और सम्बन्ध का अर्थ
हर बार स्थाईत्व नही होता
अस्थिर मन से
यही उपसंहार है
इस मेल मिलाप का
जिसे इति की युक्ति भी
समझ सकती हो तुम।

© डॉ. अजीत

Wednesday, March 4, 2015

वसीयत

महफूज़ करता हूँ
तुम्हें पाक अहसासों में
रिहा करता हूँ
तुम्हें उम्मीद की बंदिशों से
तसल्ली देता हूँ खुद को
कुछ बोझिल वादों से
तुम यहीं कहीं हो
फ़कत इतनी गुजारिश है
गुजिश्ता बीतें लम्हों का सूरमा बना
लगाते रहना चश्म ए तर में
मेरे ख़ुलूस की तबीयत
इनदिनों जरा नरम है
तुम्हारी धड़कनों के पैबन्द
लगाए है खुद के जिस्म पर
रूह अब सवाली नही है
तुम्हारे लबों के अनकहे अलफ़ाज़
अब मेरी रूह में पनाह लिए है
उन्हें वापिस मांगने की
गुजारिश कभी मत करना
दिल की स्याह गलियों में
उन्ही से हौसला अता होता है
और थोड़ी रोशनी भी
वजूद की गुमशुदगी
और तुम्हारी बेखबरी के इस दौर में
इन दिनों खुद के कद की
कब्र में आराम फरमां हूँ
यकीन न हो तो
मेरे बदन की खुशबू को छू कर देखना
जो तुम्हारे रोशन दान से गुजर
रोज तुम्हारे तकिए के नीचे छुप जाती है
उसमें उस मिट्टी की गर्द मिलेगी
जिसे तुम्हारे मौजे पहचानते है
वक्त बेवक्त उस अकेले कंगन से भी
पूछ सकती हो
जो तुम्हारी कलाई में तन्हा
मेरी छुअन का गवाह है
उसे मेरा पता नही मालूम
मगर वो इतना जरूर बता सकता है
अनमना हो कितनी दफा उसे घुमाया था मैनें
तुम्हारे सख़्त सवालों के बीच
जरूरत एक स्याह चश्मा है
हकीकत तजरबें की उतरन
और मैं...!
मुझसे बेहतर तुम बता सकती हो
क्योंकि तुम्हारा दावा था
मेरे मन की गिरह को गिनने का
उन पर ज़ज्बात की इस्त्री करने का
मगर ये फासलों के
कैसे सिलसिले निकलें
जो खत्म ही नही होते
किसी एक का बढ़ना
दुसरे का घटना क्यों है
यह महज एक सवाल नही
एक मुकम्मल जवाब भी है
जिसे पढ़नें के लिए
आओं अपनी पलकें
मेरी पलकों से मिला दो
फिर थोड़ी देर खामोशी की धुन सुनों
और लौट जाओं
अपनी उस दुनिया में
जिसमें सही गलत की
तुम अकेली पैगम्बर हो
तुम्हारी एक फूंक से
मेरी रूह पर मिट्टी आ जाएगी
ये मेरी कब्र की आख़िरी
वसीयत है।

© डॉ. अजीत

बसन्त

तुम्हारी अनुपस्थिति में
रूपांतरित होता हूँ मैं
अनुराग से वैराग्य तक
वैराग्य की देहरी पर
जब छोड़ता है अनुराग मेरा हाथ
बिलख कर रो पड़ता हूँ मैं
तुम याद आती हो
साधना की शक्ल में
वैराग्य के एक दशक में
तुम नही आती कभी याद
जब लगभग सिद्ध होने को होता हूँ
अचानक स्मृति पर होता है
शक्तिपात
वैराग्य अपनी पीठ पर बैठा
फिर छोड़ आता मुझे
अनुराग की अंधेरी गुफा में
जाते वक्त मारता है ताना
लौट जाओं उसी दुनिया में
तैयारी अभी अधूरी है तुम्हारी
पहले ठीक से
जी कर आओं कुछ बसन्त।

© डॉ. अजीत


चाहत

नही चाहता था
तुम्हें आदत में तब्दील होते देखना
नही चाहता था आदत का
लत में तब्दील होते देखना
नही चाहता था
तुम्हें जिंदगी का अहम हिस्सा बनाना
बावजूद इतने नही चाहने के
हुआ वही सब
जो नही चाहता था
अब चाहता हूँ
समन्दर की तरह इन्तजार
ताकि सूखते सूखते भी
तुम मुझ तक पहूँच ही जाओं
नदी की तरह
तब तक मैं खारा ही रहूंगा
मेरी बातों का
बुरा मत मानना
अब तुमसे मिलकर ही खत्म होगी
मेरी
प्यास
तल्खी
इन्तजार और खारापन
जब मेरा अस्तित्व एक इंच बढ़ जाएगा
तब समझ लेना
मुझमें आख़िरी
बूँद सहित समा गई हो तुम।

© डॉ. अजीत 

Monday, March 2, 2015

सात अधूरे दर्शन

सात स्वप्न: कुछ अधूरे दर्शन
---------------------------

जाता हूँ अनन्त की ओर
एकदम अकेला
साथ का होना
कमजोरी का प्रतीक है
कोई भी साथ
अनन्त तक नही जाता
जब छूटना तय है
तो फिर अब या तब
क्या फर्क पड़ता है।
***
सबसे उदास बात कहने के लिए
लेना पड़ता है मुस्कान का सहारा
भाषा की अपनी सीमाएं
लिपि के अपने अन्धकार।
***
खतों के हाशिए पर
कुछ लफ्ज़ टिके थे
जिन्हें मुख्यधारा में शामिल करना था
अफ़सोस हर खत अधूरा रहा
ये लफ्ज़ करते है सवाल
एकांत में
इनके साथ हुए अन्याय पर मौन हूँ
सवालों से घिरकर
याद आता है तुम्हारा बौद्धिक होना।
***
एक दुसरे को
नजदीक से कैसे देखते हम
मुझे दूर
तुम्हें निकट का दृष्टि दोष था
उस पर दोनों की आँख पर
गलत नम्बर का चश्मा लगा था
ये बात तब पता चली
जब नंगी आँख पढ़ा
तुम्हारा आख़िरी खत।
***
कई दफा जरूरी होता है
बचाकर रखना थोड़ा रहस्य
थोड़ा अज्ञात
जानने के बाद समस्त
खास बनता जाता है आम
मनुष्य को चाहिए हमेशा कुछ नया
चमत्कार की हद तक
मनुष्य होने की अपनी सीमाएं है
ये बात ईश्वर भी जानता है।
***
मन के पास उड़ान है
बुद्धि के पास ज्ञान
मन उड़ता जब होकर निडर
बुद्धि जाती है डर
मन होता रहे अप्रासंगिक
हमेशा बचती रहे थोड़ी उदासी
बुद्धिमान होने के यही बड़े लक्षण है।
***
प्रेम के विमर्श
कविता के सहारे आगे नही बढ़ते
इन्हें चाहिए होती है
सफलता की जमीन
और समानता का आकाश
कविता प्रेम का रास्ता दिखा सकती है
मगर मंजिल पाने के लिए
आदर्श होना अनिवार्य है
प्रेम की मांग अनुराग से पहले
परफेक्ट होनें की है
दिल तो नाहक बदनाम है जबकि
सच तो यह है
दिमाग से किया जाता है प्रेम।

© डॉ. अजीत