सुबह जल्दी जग गई
स्त्रियों के हिस्से आता है
कुछ अलग किस्म का काम
वे बुहारती है आंगन
करती है गर्म बचा हुआ दूध
देखती हैं रसोई को एक मापक दृष्टि से
लगभग नींद के खुमार में
करती जाती है सब कुछ व्यवस्थित
वे बोलती हैं बेहद कम
शायद ही गुनगुनाती है कोई गीत
वे जुत जाती है काम में
बिना किसी देरी के
सुबह जल्दी उठ गई स्त्रियां
जगाती है अपने साथ उस लोक को
जिसकी केवल स्त्रियां नागरिक हैं
सोते हुए लोग नहीं देख पाते
उनकी ये निजी दुनिया
वे जब जगते हैं
मिलता है सब कुछ व्यवस्थित
एक व्यवस्था के पीछे
स्त्रियों की अधूरी नींद खड़ी होती है
इसलिए स्त्री चाहती है
नींद में हर किस्म की व्यवस्था से मुक्ति
यदि किसी स्त्री से पूछा जाए
तो निःसंदेह वह ईश्वर से पहले
चुनेंगी एक बेफिक्र नींद
ये अलग बात है कि
ईश्वर नींद में अनसुना कर देगा
उनकी यह चाह
और अधूरी नींद में स्त्री करती रहेगी
ईश्वर का स्मरण,
जीवन की तमाम असुविधाओं को
बांधकर शुभता का कलेवा
मांगती रहेगी सबकी कुशलता की मन्नत
भूलकर अपनी नींद का वास्तविक अधिकार
व्यवस्था का यह क्रूर पक्ष है
जिससे नहीं होती है किसी की नींद खराब।
©डॉ. अजित