Saturday, March 5, 2011

काश!

काश!

सपनें गिरवी रख कर

नींद उधार मिल जाती

पुरानी फिल्मों की तरह

याददाश्त चली जाती

और कोई कोशिस भी न करता

वापिस लाने की

दोस्त शिष्टाचार की क्लास छोड

अपनेपन को बचाने की सोचतें

दुश्मन डर कर योजनाएं बनाने की बजाए

खुल कर ललकारता युद्द के लिए

बोलता..... आक्रमण.... महाभारत की तरह

पत्नि बेवजह फिक्र करना छोड देती

और दोस्तों पर तंज कसना भी

माँ कभी-कभी बीमारी न बताकर

जो मेरी बडाई वो सुनती है

उसका कोई किस्सा सुनाती

पिता की अपेक्षाएं घट जाती

स्वीकार कर लेता मेरा नालायक होना

प्रेमिका मुझे अपना मोबाईल नम्बर

बदलने का एसएमएस कर देती

पुराना दोस्त मिलने पर

बच्चों की खैरियत न पूछता

बच्चा मेरी हैसियत से ज्यादा

कोई चीज़ लाने की जिद न करता

भाई मुझे ले जाता एकांत में

और समझाता अपनी मजबूरी

जो नाराज़ है बरसो से वो

बिना किसी सफाई के मान जाता

जिनके चेहरे नापसंद हैं बेहद

उनसे रोज़ाना मिलना न होता

शुभकामनाओं के औपचारिक

फोन/एसएमएस न आतें नये साल/जन्मदिन पर

रिश्तेंदार कद,पद और कर्जे की

तफ्तीश न करते पाये जातें

तब शायद इस बेवजह मशरुफ

रहने वाली दूनियादारी में

कुछ दिन और जी सकता था मैं...।

डा.अजीत

Friday, March 4, 2011

चश्में का नम्बर

अपने बेहद करीबी

को दूर देखने और

दूर को करीब महसूस

करने के लिए

चश्में की कभी जरुरत होगी

ये सोचा न था

नंगी आंखों से ग्रहण

देखने की आदत में

इंसान की फितरत

नही देख पाने का

मलाल होता है

कभी-कभी शाम को

वक्त का मिज़ाज

एक नसीहत बन कर

जब भी उभरता है तो

कुछ सवाल बिना जवाब

के दफन हो जातें हैं

मुस्कानों मे छिपी

जर्द खामोशी अपनी

बेबसी पर सिसकती है

उम्र का तकाज़ा

तज़रबे की कुछ पन्ने स्याह

करके आगे बढ जाता है

रिश्तों की उधेडबुन मे

उलझा मन बेबस होकर

यह कहता है दिल को समझाने के लिए

चश्में का नंबर

बदल गया है शायद...।

डा.अजीत