Saturday, June 27, 2015

सिद्ध

जिन दिनों मुझसे
बेहद नाराज़ थी तुम
उन दिनों
हवाओं से पूछता था मंत्र
नदियों से मांगता था रेत
जंगल से मांगता था समिधा
तुम्हारे डर से तीनों कर देते थे साफ़ मना
फिर थककर
बनाता था सपनों का हवन कुंड
वादों की सामग्री
और अपनत्व की समिधा
ब्रह्म महूर्त में रोज करता था यज्ञ
उन्ही दिनों मैनें कुछ नए मंत्र सीखें
प्रेम के तंत्र के
प्रत्येक स्वाहा में जलाता था खुद को
ताकि इस नाराज़गी का उच्चाटन कर सकूं
तुम्हारी नाराज़गी
खतम होते होते सिद्ध बन गया था मैं
फिर भी कहता हूँ
हो सके तो फिर कभी
नाराज़ मत होना
क्योंकि अब मैं भूल गया हूँ
सब मंत्र तंत्र
सिर्फ याद है
तुम्हारा नाराज़ होना
और खुद का मजबूर होना
और दोनों ही यादें अच्छी नही है
यकीनन।
©डॉ. अजित

Monday, June 15, 2015

स्मृतियाँ

काश स्मृतियों के पाँव नही
कान होते
उनको सुना पाता मैं
तुम्हारे साथ होने की खनक
वो यूं दबें पाँव न आती फिर
उठा लाता उन्हें गोद में
उनके कान को चूमता हुआ
जिस तरह आती है
बीतें पल की स्मृतियाँ
मुझे नही पसन्द
उनका इस तरह आना
चाहता हूँ वो जब भी आएं
कुछ इस तरह आएं
जैसे पानी पर आती है काई
उन पर फिसलकर
चोट नही लगें
बस लड़खड़ाऊ
और गिरनें से पहलें
थाम लो तुम मेरा हाथ।

© डॉ.अजित

Sunday, June 14, 2015

प्रेम का बचना

धरती की पीठ पर लिखा था प्रेम
नदियां छिपा रही थे प्रेम
झरनें मिटा रहें थे प्रेम
हवा उड़ा रही थी प्रेम
समन्दर डूबा रहे थे प्रेम
तमान कड़वी बातों
तमाम असहमतियों के बीच
इस ग्रह पर
बस हम तुम बचा रहे थे प्रेम
धरती से पूछा जब आकाश ने
किस तरह मिलनें आओगी तुम
उसनें हमारी तरफ इशारा करते हुए कहा
इनकी तरह
फिर अचानक बारिश हो गई
पता नही पानी की बूंदे थी या
आसमान के आंसू
उसके बाद
थोड़ा आसान हो गया था
हमारे लिए प्रेम को बचाना।

© डॉ.अजित

Friday, June 12, 2015

बोध


---
धूप चुनती है उसे
डाकिया
बारिश चुनती है उसे
कर संग्रह अमीन
हवा बना देती है उसे
चपरासी
ढ़ोता है वो वायदों की फ़ाइल
इस दर से उस दर
धरती चाहती है
जरीब से उस पर लिख दें
प्रेम के तीन शब्द
उसकी किस्मत में लिखा है
मात्र लेखपाल होना।
***
वो दिशा भूल गया है
उत्तर को पूरब बताता है
दक्षिण को पश्चिम
पूरब और पश्चिम में भेद नही कर पाता
उसके पास एक मानचित्र है
जिसे देखकर वो केवल हंसता है
कई भाषाविज्ञानी
उसकी हंसी को डिकोड करने में लगे है
वो यारों का यार है
कोई विक्षिप्त मनुष्य नही।
***
उसकी दफ्तर की
दराज़ में कुछ ख्वाहिशें दफन है
वहां कागज के पुलिंदों के बीच
अटका रह गया है एक खत
जिसकी स्याही सूख रही है
लफ्ज़ मिट रहे है
पते की जगह
तीन लाईन की सीढियां बन गई है
वो पिनकोड के जरिए
पहूंचना चाहता है उसके दर तक
इनदिनों वो खुद को भूल
याद करता रहता है उसका पिनकोड।
***
झरनें भेजतें है
वजीफे नदी के नाम
नदी लेंने से मना कर देती है
झरनें अपमानित नही
उपेक्षित महसूस करते है बस
नदी हंस पड़ती
झरनें गाने लगते है बोझ का गीत
समन्दर देखता है
नदी का मनुष्य
और झरनें का देवता होना।

© डॉ. अजित 

Saturday, June 6, 2015

खेत और कविता

तुम्हें अचानक से सामनें देख
ठीक उतनी खुशी होती है
जितनी धान की निकली बाली को
पहली बार देख कर होती है
मुरझानें के डर से
उसकी तरफ उंगली नही करता
और तुम्हारी तरफ नजर।
***
तुम्हारे अंदर
पड़ा रहना चाहता हूँ
अनुपचारित बीज की तरह
शायद कभी तुम्हारे एकांत की  नमी में
अकुंरित हो जाऊं
और छाया दे सकूं
तुम्हारे तपते मन को।
***
देह की मिट्टी पर
उगतें है कुछ खरपतवार
जिनकी कोमलता पर
मुग्ध हो
हम खो बैठतें
सम्बंधों की उत्पादकता।
***
बदलती जलवायु ने
बदल दिया है
फसलों के पकनें का समय
ठीक वैसे ही
जैसे तुम्हारी अनायास उदासीनता ने
बदल दिया है
खुश रहनें का वक्त।
***
खेत पर मेढ़ जाती है
जिस पर चलता हूँ
बड़ा सन्तुलन साध कर
वरना गिर सकता हूँ
लड़खड़ाकर
तुम्हारे घर सीधी सड़क जाती है
नही उठा पाता एक कदम
तमाम साधन संतुलन के बाद भी
यहां गिरनें का नही
पहूंचने का भय है।
***
जलस्तर देख
पौधा कर लेता है समझौता
सीमित कर लेता है जरूरतें
सहन कर लेता है ताप
समझता है धरती की मजबूरी
और खुद की सीमा
तुम उखाड़ देती हो मुझे
कांट-छाँट के नाम पर
मन की बालकनी से
अपनी कोमल ऊंगलियों से
बिना मुझे बताए।

© डॉ.अजित

Tuesday, June 2, 2015

खगोल

यदि तुम मोटिवेशन की तलाश में
मेरे नजदीक आए हो तो
मुझे खेद है
ये तुम्हें न मिलेगा
मेरे पास एक चुम्बकीय क्षेत्र है
जहां जुड़ सकतें हो
या फिर प्रतिरोध पैदा कर सकते हो
चयन नितांत ही तुम्हारा है
सोच लो।
***
बंद घड़ी दो वक्त
सही समय बताती है
यह एक कोरा बौद्धिक झूठ है
चौबीस घंटें में किसी रुकी हुई चीज़ को
दो बार देखकर
हम समय का सही होना तय कर सकते है
समय को सही गलत तय करना
समय का अपमान है
ये बात बंद घड़ी बताती है
बशर्ते वो सच में बंद हो
किसी अभाव में थमी न हो।
***
धरती की आँख पर
काजल लगाने के लिए
ऊकडू बैठा एकदिन
धरती ने आँखें बंद कर ली
उस दिन समझ आया
धरती संवरना नही
सोना चाहती है
मेरी अनामिका से लोरी सुनकर।
***
चांद का एक यही डर
सबसे बड़ा था
धरती को यदि दिख गया
दूसरा चाँद
उसका क्या होगा
धरती चाँद की नही
सूरज की तलाश में थी
एकमात्र इसी बात पर
बचा हुआ था
दोनों के मध्य खगोलीय प्रेम।

© डॉ. अजीत

Monday, June 1, 2015

सवाल

वो जब भी मिलती
सवालों के साथ मिलती
उसके लिए जिज्ञासा का विस्तार था
मेरा होना
उसकी बातों में होता
कुछ दशमलव कौतुहल
कुछ अक्षांश दूरी का पैमाना
और मेरे देशान्तर को परखनें की जिद
प्रश्न-प्रतिप्रश्न और सन्देह का एक ऐसा
त्रियामी मानचित्र बनाती कि
मैं भूल जाता अपनी दिशा
उसकी उपकल्पनाओं में
मेरा दर्शन भीड़ से अलग दिखनें का
एक वितंडा भर था
वो सिद्ध करना चाहती थी
मेरा बेहद मामूली होना
उसके खुद के बनाए हेत्वाभास
मुझे घेरते चक्रव्यूह की तरह
वो देखना चाहती थी मुझे
कर्ण की भाँति निशस्त्र
मेरा अस्तित्व जब एक चुनौति बन गया
तब उसनें निर्णय किया मुझसे प्रेम न करनें का
क्योंकि अपनी तमाम बुद्धिमानी के बीच
वो जान गई थी ये सच
यदि एकबार भी
मुझसे प्रेम किया उसनें
तो फिर उसके पास नही बचेगा
किसी के लिए भी लेशमात्र प्रेम
प्रेम के इस संस्करण को
सबसे बेहतर ढंग से
उसी के जरिए समझ पाया मैं।

© डॉ. अजीत