Thursday, July 31, 2014

तमाशबीन

उस समय
हर बात शापित थी
अन्यथा लिए जाने के लिए
हर तर्क बौना था
मन की स्थापित अवधारणाओं के समक्ष
हर विमर्श एकतरफा था
अह्म को खुराक देने के लिए
यहाँ तक
प्रेम का भी एक बुद्धिवादी संस्करण था
नफरत में एक अघोषित उतार-चढ़ाव था
सम्बन्धों की अधिकाँश ऊर्जा
निष्कर्षो में व्यय हो रही थी
पूर्वाग्रह का आंगन था
शंका की दहलीज़ थी
सब कुछ इतना सतही था कि
सम्भावना वहां तेल की तरह बहती रहती
हर दो घंटे में रिश्तें अपना अक्षांश बदल देते
दोस्ती के भूगोल और
प्रेम के खगोल के मध्य तैर रहा था
एक आभासी रिश्ता
इसकी गति और कक्षा उपग्रह की भांति तय नही थी
बल्कि
धूमकेतु की तरह अनियंत्रित और अनियोजित थी
जो किसी भी पल नष्ट कर सकती है
एक साथ कई जिन्दगियां
इन सब जोखिम के बीच
वह साध रहा था जीवन को
बचा रहा था अपने अंदर का प्रेम
लड़ रहा था खुद के द्वंदो से
सींच रहा था संवेदना की धरती
रिश्तों का कम्पन्न उसके ध्यान में सहयोगी था
उसकी चैतन्यता का केंद्र था
एक ऐसा लापरवाह रिश्ता
जिसके लिए वो एक मानसिक कौतुहल से
अधिक न कुछ न था
उसने खुद को प्रयोग होने दिया सायास
ताकि वो जांच सके खुद की लोच
उसका आत्मघात बहुतो के लिए
लोकरंजना का विषय हो सकता है
मगर उसमे देखा जा सकता था
एक रूपांतरण से गुजरता मनुष्य
जो खुद का तमाशबीन खुद था।

© अजीत

क्लिनिक

डॉक्टर के रिशेप्सन पर
इन्तजार करना
तमाम भव्यता और हाइजिन के बावजूद
बैचेनी भरा होता है
सब कुछ इतना तयशुदा और व्यवस्थित होता है
कि रिशेप्सनिस्ट की मुस्कान यांत्रिक लगती है
वहां खूबसूरत चेहरा देख कविता नही फूटती
कोने में गमलें में रखा बोनसाई
न जाने कितने लोगो के दर्द का गवाह होता है
क्लीनिक पर टंगे भव्य कैलेंडर
जिन्हें दवा कम्पनियों ने छपवाया होता है
हमें लुभा नही पाते
वहां याद आता घर पर अखबार के साथ मुफ्त मिला
पंचांग वाला कैलेंडर
जो फ्रीज के ठीक ऊपर तिरछा टंगा रहता है
डॉक्टर के क्लिनिक की घड़ी
हमें डराती है और बताती है
खुद की देखभाल के मामलें में
हम वक्त से कितने पीछे है
डॉक्टर के क्लिनिक का एसी
तन से ज्यादा मन को ठंडा करता है
वहां नींद नही आती ना ही प्रमाद उपजता है
बल्कि चैतन्य हो भागने की प्रेरणा मिलती है
अलग अलग वजहों से
अलग अलग डॉक्टरों के यहाँ
आरोग्य की तलाश में जाते लोग
दुनिया के सबसे अधिक परेशान जीव है
उनके माथे पर पसरा तनाव
साफ़ पढ़ा जा सकता है
बीमार के साथ जाने वाले घरेलू लोग यार -दोस्त
अपने हृदय की धड़कनो के
उतार चढ़ाव को साफ़ सुन सकते है
डॉक्टर के क्लिनिक पर
सब कुछ प्रायोजित दिखता है
थोडा अपनापन डॉक्टर की बातों से झलक सकता है
कई बार मुआ वो भी सख्त जान होता है
डॉक्टरी पर्चे पर लिखी लिपि
हमारे लिए मृतसंजीवनी के मन्त्र समान होती है
हम उसे पढ़ना चाहते है
मगर पूरी पढ़ नही पाते
डॉक्टर को हम अपनी बीमारी और परेशानी
धारा प्रवाह बताना चाहतें है
मगर उसकी अरुचि हमारा मनोबल तोड़ देती है
फिर हम डॉक्टर के अनुमानों से
सहमत होते चले जाते है
बीमार,डॉक्टर और क्लीनिक
सुस्त होती जिन्दगी के हिस्से होते है
या मनुष्य की जीने की तलब के अड्डे
निसंदेह डॉक्टर मनुष्य के आरोग्य के लिए अनिवार्य है
परन्तु डॉक्टर का क्लीनिक
दुनिया की सबसे असुविधाजनक जगह है
भव्य क्लीनिक से लेकर
पंच सितारा अस्पतालों तक
एक चीज़ सब जगह सबके अंदर पाई जाती है
वहां से जल्दी भाग जाने की उत्कंठा
वो चाहे बीमार हो
या फिर बीमार के साथ तीमारदार।

डॉ.अजीत

( एक क्लीनिक में इन्तजार करते हुए लिखा गया कवितनुमा एक बीमार नोट)

Tuesday, July 29, 2014

दरख्वास्त

जो हो इजाजत
सवाल पूंछू कुछ अनकहे
हिसाब लूं करवटों का
जवाब दूं तुम्हारे वहम का
ख्याल तकसीम करूं
रूह को रिहा करूं जमानत पर
जिस्म को गल जाने दूं
जो हो इजाजत
सजदे में तुझे शामिल करूं
चाँद को लिफाफे में बंद करूं
सूरज को समन्दर में डूबो दूं
दरख्तों से किस्से कहूँ
हवाओं के संग बहता चलूँ
तेरी इजाजत इसलिए जरूरी है
धरती आसमान चाँद सूरज हवा
सब तेरे अपने अलग है
एक तेरी इजाजत से
उन्हें शामिल कर सकता हूँ
अपनी कायनात में
और तुझे महसूस कर सकता हूँ
दिल के सूफी जज्बात में
बस एक तेरी इजाजत की दरकार है
तुम अगर इजाजत दो तो
हासिल और तमन्ना का फर्क मिट सकता है
नया वरक खुल सकता है
जिसके हाशिए पर सिर्फ तुम्हारा नाम लिखा है
इजाजत की इजाजत पर एक बार
गौर करना
ये दरख्वास्त है मेरी।
© अजीत

Sunday, July 27, 2014

उपसंहार

शब्दों के कण ढोता एक पथिक
चढ़ता है पहाड़ सी जिन्दगी
रचता है सपनों का विचित्र संसार
सौंपता है खुद को प्रेम के हवाले
डरता है खुद को अन्यथा लिए जाने से
देखता है सांझे सपनें
रोज बनता बिगड़ता टूटता है
जीता है हिस्सों में जिन्दगी
खोता है किस्तों में बन्दगी
झेलता है उत्साह और बोझिलता के उतार -चढ़ाव
बीतता और रीतता है समय के सापेक्ष
महसूसता है दो जगह की बैचेनी
रिश्तों के बाँझ निकलने का भय
उसके अनुमानों के गणित को
हमेशा सक्रिय रखता है
वो दर्शन की मदद से जांचता है
व्यवहार की लोच
उसकी यात्रा समानांतर बटी होती है
समकोणों और त्रिकोणों में
वो वृत्त का आयतन मांपता है
समय का षड्यंत्र भांपता है
खुश दिखने की प्रमाणिक कोशिस भी करता है
परन्तु अंत में
पकड़ा जाता है रंगे हाथ
कयासों की चाबुक के सामने होती है
उसकी नंगी पीठ
उसकी पीठ दरअसल एकांत का वो टीला है
जहां से रोज प्रेमी युगल
क्षितिज का सूर्यास्त देखते है
वो शापित है माध्यम बनने के लिए
उसकी भूमिका बस इतनी सी है
वो रोज़ खुद को छलता है
और लिखता है प्रेम कविता
ताकि प्रेम करना जारी रखे लोग
उसकी बड़ी भूमिका का
बस यही छोटा सा उपसंहार है।
© अजीत

Saturday, July 26, 2014

फुरसत

जो हो तुम्हें कभी थोड़ी सी फुरसत
देखों इन बोलती आँखों के सवाल
देखों इन उलझे बालों के दोराहें
देखों कैसे अचानक आपस में
मिल जाते है चौराहें
जो हो तुम्हें थोड़ी सी फुरसत
देखो हवा में तैरते अल्फाज़
देखो डर कर होती परवाज़
देखों हमारे बीच का पसरा सन्नाटा
देखों खुली आँखों में सपनों का चक्रव्यूह
देखों बिस्तर की सिलवट के पहाड़
देखों तकिए के अंदर बहती नदी
देखों शंकाओं के शुष्क जंगल
देखों सम्भावनाओं की ग्लेशियर
देखने के अलावा तुम सुन सकती हो
बेतरतीब धड़कनो के आलाप
खामोशी में बजते अधूरे राग
बैचेनी के झरनों का नाद
वजूद के टूटते शिलाखंडो का शोर
दर्द का सुगम संगीत
इतना देखने सुनने के बाद
सम्भव है तुम मौन हो जाओं
या फिर हंसना भूल जाओ
बिना मन के गीत गाओं
जो हो तुम्हें थोड़ी सी फुरसत
महसूस करो अपने इर्द-गिर्द पसरा एकांत
निर्वात में सांस लेता एक रिश्ता
जिसकी तुम बुनियाद रही हो
जो तुमसे जुड़ा रहा है गर्भनाल सा
तुम्हें याद दिलाना फ़र्ज समझता हूँ
क्योंकि
तुमने एक बार मजाक में कहा था
तुम्हारी याददाश्त कमजोर है
उसी कमजोरी के यहाँ गिरवी रखी
तुम्हें तुम्हारी फुरसत याद दिला रहा हूँ
दुनियादारी से जब जी भर जाए
फुरसत से याद करना थोड़ा-थोड़ा
किस्तों में
जो छूट गया था यूं ही
सरे राह चलते-चलते।

© अजीत


Friday, July 25, 2014

दुआ

तुम लफ्ज़ लफ्ज़ याद हो
तुम लबों तक सिमटी फरयाद हो
तुम एहसासों की इतनी सगी हो कि
हर बात के पीछे तुम्हारी यादें झांकती है
तुम्हारा तसव्वुर इबादत का
सच्चा गवाह बन जाता है
तुम्हारी बातों से उठता लोबान का धुआं
रोशनी और बन्दगी अता करता है
तुम सिर्फ तुम हो
तुम्हारा अक्स भी तुम्हारे जैसा नही हो सकता है
वजूद की गहराइयों
जज्बात की तन्हाइयों
जमाने की रूसवाइयों ने तुम्हें
उस इल्म में माहिर कर दिया है
जो इश्क के आलिमों को भी हासिल नही है
तुम अकीदत में शामिल वो दुआ हो
जो हर्फ हर्फ शिफा अता करती है
दुनियादारी से ठुकराए हुए लोग
तेरी पनाह में सांस लेते है
तुम जिस्म से नही रूह से पहचानी जाती हो
तुम जमा-नफ़ी या हासिल नही हो
तुम्हे महसूस करने के लिए
दिल का काला होना जरूरी है
तुम्हारे वजूद पर तबसरा मुमकिन नही
तुम्हें इश्क यारी की तलब नही
तुम अपनी धुन में मस्त मलंग कमली हो
तुम्हारा साथ जीना
तुम्हारे लिए जीना
बड़ा हुनर है
तुम्हें हासिल करने की जिद
खुद को फरेब में रखना है
तुम्हें दिल से एक बार याद करके
रोज एक दिन उम्र बढ़ जाती है
इस तरह कोई सदियों से
जिन्दा है तुम्हारी वजह से
तुम्हें कभी खबर हो
या ना भी हो।
© अजीत

Wednesday, July 23, 2014

विश्लेषण

कुछ लोग मुझसे डरे हुए थे
उन्हें डर था
मै उनका शोषण कर सकता था
यह शोषण मनोवैज्ञानिक होता हुआ भी
दैहिक जैसा हो सकता था
या फिर शायद आर्थिक
कुछ लोग मुझे प्रेम कर रहे थे
उनका प्रेम
लौकिक अलौकिक त्रिलौकिक जैसा था
उसमे एकाधिकार और प्रतिकार की जुगलबन्दी थी
मेरी इच्छा जाने बगैर
मुझे पाने की जिद उसमे शामिल थी
कुछ लोग मुझसे नफरत कर रहे थे
उनकी नफरत में
अपेक्षाओं के टूट जाने की वाजिब वजह
शामिल थी
उनके लिए मै एक बुद्धिमान
षड्यंत्रकारी था
कुछ लोग केवल साक्षी, दृष्टा और तटस्थ थे
वो दिन ब दिन बदलते रिश्तों की लोच देख
कौतुहल से भरे थे
कुछ लोग विश्लेषण में लिप्त थे
वो बुद्धि के बीजगणित और
मानवीय सम्बन्धों की ज्यामिति से
मेरे मन का नक्शा बना रहे थे
इन सब के बीच
मै शोध विषय सा टंगा था
मेरा मूल्यांकन इतने किस्म किस्म के लोगो से
भिन्न भिन्न तरीके से हुआ
सबके निष्कर्ष में सार्थकता के स्तर का
विरोधाभास था
शायद यही वजह थी कि
जब भी दो लोग मेरे बारें में बात करते तो
वो उलझी हुई बहस में तब्दील हो जाती
किस्तों और हिस्सों में
जिन्दगी जीता हुआ मै
केवल मुस्कुरा सकता था
अपने आस पास के लोगो
को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए यह
साँसों जितना जरूरी था
क्योंकि
जिस दिन मै टूटना शुरू होता
उस दिन एक भीड़
हंसती- रोती हुई पागल हो सकती थी
और वो दोस्त हो या दुश्मन
कोई भी अपने चाहने वालों
यह हश्र कभी नही चाहता
मै तो फिर भी मै था।
© अजीत

युक्ति

मित्रता की गति का असामान्य होना
अपनेपन की अभिव्यक्ति पर
नियन्त्रण न होना
जीवन में दखल की तरह शामिल होना
निसंदेह अपरिचित से
परिचित बनने के सफर पर निकले
किसी मित्र के मन पर
सन्देह की काई जमा सकता है
उसे शंका की दीवार खड़ी करने के लिए
मजबूर कर सकता है
सामान्य बात को
अन्यथा लिए जाने की दिशा में ले जा सकता है
आकस्मिक रूप से
स्थगन प्रस्ताव लाने के लिए
बाध्य कर सकता है
यह सब इसलिए सहज है
क्योंकि
दूनिया के अधिकाँश भले लोग
जीवन में कम से कम एक बार
ठगे जा चुके है
उनके अनुभव डर के प्रमाण पत्र है
विश्वास-अविश्वास और वास्तविक मन्तव्य
के त्रिकोण में कोई भी
अतिरिक्त सतर्क या छला गया मनुष्य
उलझ सकता है
अप्रत्याशित रूप से
चुप्पी लगाकर निकलने
का जतन कर सकता है
मन ही मन खीझ सकता है
उस घड़ी को एकांत में कोस सकता है
जब पहली बार उससे मिला था
इसमें कुछ भी गलत नही है
भोगा हुआ यथार्थ कुछ
अन्य मित्रों के अनुभव
निजता के प्रश्न
दरअसल मनुष्य को
सुरक्षित बनकर सिमटने के लिए
प्रेरित करते है फिर
खुद के जीवन की समस्याएं
और अपने संसार की मृगमरीचिका
मनुष्य को समझदार बनने पर
मजबूर करती है
और समझदार लोगो में
दिल के सच्चे
जबान के पक्के
दोस्त तलाशना
इस दौर का सबसे बड़ा आत्मघाती कदम है
क्योंकि
इसमें आप खुद को नुकसान पहूँचाते है
अपने अपरिचित मित्र को डराते है
इसलिए
इस डरी-ठगी दुनिया में
सम्वाद अब अपना अर्थ खो बैठा है
हम सब मौन रहें और केवल खुद के बारें में सोचें
सफल,शांत तनावरहित जीवन जीने की
बस यही एकमात्र युक्ति
अब शेष बची है।
© अजीत

सुनो

वक्त एक दीवार है
जिन्दगी आर-पार है

गर्म सर्द नही यह
दोस्ती का बुखार है

वजह क्या बताऊँ
बस तुमसे प्यार है

अपना कहते हो जिसे
 वो बेहद होशियार है

दाम लगने ही है
बाबू ये बाजार है

© डॉ.अजीत 

Sunday, July 20, 2014

शिकस्त

शिकस्त खुदा ने हमारी तरफ मोड़ दी
हमने शुरू की तो उसने पीनी छोड़ दी

साकी तेरी महफिल के अदब कैसे है
हम आएं तो दरबान ने बोतल तोड़ दी

जाम की जुम्बिश में अश्कों की नमी थी
फिर किसी ने आँखों से पीनी छोड़ दी

जायका क्यों न आता बुलंदी पर भला
मेहनतकश ने पसीनें की बूंदे निचोड़ दी

इस दौर के दोस्तों ने मसखरी सीख ली
मैंने मिलाया हाथ उसने कलाई मरोड़ दी

© अजीत


गजल

वक्त रेत सा फिसलता चला गया
बंदा  नजरों से गिरता चला गया

जरूरतें हर रोज बढ़ती ही गई
वो जेब अपनी सिलता चला गया

रोशनी के जश्न में डूबे हुए थे लोग
दूर तक अँधेरा मिलता चला गया

वक्त की गर्दिशो ने कुछ ऐसा घेरा
सूरज सुबह का ढलता चला गया

असली चेहरा देख पाऊं उसका
रात भर दिया जलता चला गया ।

© डॉ.अजीत



Thursday, July 17, 2014

गजल

जाना होगा एकदिन जहां से ये तय है
कई की नजर में हूँ कई की खबर में हूँ

मंजिल क्या है नही मुझे मालूम
रोज मगर लगता है कि सफर में हूँ

मौत मसाइल का हल नही होती
जितना जिन्दा हूँ उतना कब्र में हूँ

बदनामियों मेरे हिस्से की नजीर है
कल तेरी होगी  मै इसी फ़िक्र में हूँ

लगता है काम फिर कुछ आ पड़ा है
आजकल मै दोस्तों के जिक्र में हूँ।

© डॉ.अजीत



Wednesday, July 16, 2014

फेसबुक बनाम जीवन

फेसबुक के बाहर भी
एक दुनिया सांस लेती है
जहाँ लाइक का मतलब
सिर्फ लाइक नही होता है
जहाँ स्टेट्स हमारे विचार से नही
भौतिक उपलब्धियों से बनते है
जहां लोग स्थाई रूप से
जीवन में टैग रहते है
उन्हें अनटैग करने का भी विकल्प
जीवन नही देता
इस बाहर की दुनिया में
वजूद अक्स से घिनौना हो सकता है
वहां स्टेट्स शेयर करना
दोस्तों को नागवार लग सकता है
यहाँ प्रोफाइल की तस्वीर बार-बार
बदलने की न इजाजत होती है
और न फुरसत
इस दुनिया में
पोस्ट लिखने की नही
पोस्ट पाने की जल्दबाजी दिखती है
यहाँ केवल खुद का जन्मदिन याद रहता है
इस दुनिया में
वक्त और हालात को
अनफॉलो नही कर सकते है
और सबसे बड़ी बात
इस दुनिया में लॉगआउट या डीएक्टिवेट होने
का कोई विकल्प नही मिलता है
केवल दो विकल्प लोग तलाश पाते है
आत्महत्या करो या सिद्ध बन जाओं
जो इन दोनों के मध्य का मार्ग चुनते है
उन्हें क्या तो बुद्ध के लोग समझा जाता है
या फिर भगौड़ा
यह समानांतर दुनिया
फेसबुक की तरह आभासी नही है
परन्तु ये उतनी ही यांत्रिक जरुर है
यहाँ जीवन इंटरनेट और फेसबुकिया प्रोफाइल सा
सहज उपलब्ध है
मगर जीने की वजह
टाइमलाइन की तरह हमारे हाथ में नही है
यही वजह है इस दौर में
जीवन में फेसबुक
और फेसबुक में जीवन
तलाशते हुए लोग एक यंत्र की मदद से
अचानक से आपस में मिल जाते है
और दोस्ती के भ्रम में
अपने अपने हिस्से की यन्त्रणाएं भोगते तथा
आरोपित करते हुए जीने की कला सीखते है
दरअसल, फेसबुक मनुष्य की
अतृप्त अभिलाषाओं का तकनीकी संस्करण है
इसे मनुष्य के दिगम्बर होने का ज्ञानयोग भी
कहा जा सकता है
यह जीवन जितना पारदर्शी भले ही न हो
मगर यह जीवन जैसा जटिल जरुर है
यह बात जीवन से भागे और फेसबुक में अटके
और फेसबुक से भागे जीवन में अटके
किसी सिद्ध से पूछी जा सकती है
ताकि इस कवितानुमा नोट पर
यकीन किया जा सके
बिना मेरी मंशा पर संदेह किए।
© अजीत




Tuesday, July 15, 2014

टापू

मैदान में
क्षितिज देखना
शाम को
ऊबना
दिन में सोना
रात में खोना
हंसते हुए रोना
विचित्र लक्षण है
इसका मतलब
प्रेम और ध्यान के मध्य
निर्जन टापू की तरफ
आपकी कस्ती जा रही है
बिना पतवार के
बस हमें पता नही चलता
और जब पता चलता है
फिर वापसी सम्भव नही होती
उस दिव्य स्थल से
साल में एक बार
ऐसे भटके लोगो का
सतसंग होता है
वहां कोई प्रवचन नही होता
बस एक दूसरे को देखकर
मन ही मन
मुस्कुराते है सब
मै उस टापू पर बैठा
न जाने कब से कविता ही
लिखता जा रहा हूँ
इसे मेरा पागलपन समझा जाए
अधूरापन भी समझ सकते है
मै एक भटका हुआअवधूत हूँ
सिद्ध नही हूँ
कवि तो बिलकुल भी नही।

© अजीत

Monday, July 14, 2014

प्रेम कविताएँ

कुछ ख़ास मुश्किल नही होता
बिना प्रेम किए
प्रेम कविताएँ लिखना
प्रेम जितना गुह्य है
उतना ही प्रकट विषय भी है
थोड़ा सा काल्पनिक होकर
अपने आसपास की जिंदगियों में
पसरा-भटका प्रेम देखकर
इस पर महाकाव्य लिखा जा सकता है
बशर्ते
आप अंदर से इतने रिक्त हो कि
आपने कभी प्रेम न किया हो
प्रेम न करके आप केंद्र और बाह्य
दोनों कक्षाओं के चक्कर लगा सकते है
बस खतनाक होता है
सखा भाव में प्रेम देखना
यह ऐसा प्रेम होता है
जो आपको न प्रेम करने देता
और न कविता लिखने देता
तमाम संदेहों, कयासों और
मित्रों से अंतरंगता छिपाने का दोषी
बनने के बावजूद भी
मैंने बिना प्रेम किए
प्रेम कविता लिखना
नही छोड़ा
आज भी मेरी एक से अधिक
प्रेमिका होने का संदेह बहुत से मित्रों है
मै इस बहस नही पड़ता कि
बिना प्रेम किए
कोई प्रेम कविता कैसे लिख सकता है
मै लिखता हूँ और उतरता हूँ खुद के अंदर
वहां इतना अमूर्त प्रेम बिखरा पड़ा है कि
सामान्य सी बात भी प्रेम कविता बन जाती है
बिना प्रेम किए
प्रेम कविता लिखने का सबसे बड़ा खतरा बस यही है कि
आप प्रेम करने का अवसर हमेशा के लिए
खो देते है
केवल आपकी कविताएँ प्रेम कर पाती है
आप नही।
© अजीत




Sunday, July 13, 2014

रिश्तें

रिश्तें उत्पाद नही होते कि
उनके विपणन की कार्ययोजना बनें
रिश्तें बुनियाद भी नही होते
जिन पर अपेक्षाओं की इमारत खड़ी की जाए
रिश्तें पानी की तरह तरल होते है
उनकी गति ही उनकी लय और ऊर्जा होती है
रिश्तों को बांधना
सम्बोधन, प्रकृति या समय में
मूर्खता है
एक ऐसी मूर्खता जिसका पता
रिश्तें भस्म होने पर चलता है
चाहते हो किसी से जुड़ना
चाहते तो कोई आत्मीय सम्बोधन
तो हमेशा खुले रखना रिश्तों के बंधन
तभी नेह पनपेगा
अपनेपन की खाद के साथ
अन्यथा  रोज कहीं न कहीं
एक पौधा सूख जाता है
बेहद देखभाल के बाद भी।
© अजीत

Saturday, July 12, 2014

दुश्मन दोस्त

जिनके पास लम्बी चौड़ी योजनाएं हो
जिनके पास समीकरणों को साधने के सूत्र हो
जो हमेशा हंसते हो
प्राय: उत्साही दिखते हो
भविष्य का तयशुदा ब्लू प्रिंट जिनके पास हो
जिनके पास हर सम्पर्क का एक अर्थ हो
जो सहज बातों के निहितार्थ निकालनें में निपुण हो
जो शब्द को अर्थ से जोड़कर
शब्दार्थ विकसित करना जानते हो
सामान्य बातचीत में भी जो
सलाह की हमेशा गुजांईश देखते हो
ऐसे दुनियादार दोस्तों से
बहुत डर लगता है
उनका नेत्र सम्पर्क किसी त्राटक से कम नही लगता
उनसे मिलकर सच्ची खुशी नही
योजनाओं का बुलेटिन मिलता है
सफलता का आतंक मिलता है
उनका हरेक फोन
लौकिक सफलता का विज्ञापन होता है
उनकी सफलता हमें खुशी जरुर देती है
मगर उस खुशी में एक चेतावनी छिपी होती है
कि अब सिद्ध करने का नम्बर तुम्हारा है
जिसे कुछ सिद्ध न करना हो
उसका ऐसे सफल दोस्तों से डरना लाजमी है
इसलिए जब कोई दोस्त
अपने रोजमर्रा के संघर्ष
गिरने टूटने के किस्से
वक्त की बेवफाई
मां, पत्नि और बच्चों की शिकायतें
खुद की अनिद्रा, अवसाद की दिक्कत
और फिर से लड़ने की तैयारी की बात बताता है
तब मै लगभग उस मित्र के पैर छू लेना चाहता हूँ
पीड़ा, रोजमर्रा की सहज दिक्कतों के किस्से सुनकर
मै अभिप्ररेणा के शिखर पर खुद को पाता हूँ
इन दो किस्म के दोस्तों के बीच
जिन्दगी रोज झूलती है
अपनी हताशा मिटाने के लिए
कभी मै खुद पर हंस लेता हूँ
तो कभी दोस्तों पर
इन सबके बीच मेरे लिए सबसे सकारात्मक बात
बस इतनी सी है
मुझे दुश्मनों के दुष्प्रचार और षड्यंत्रो से
अब कोई असुविधा नही होती
तभी तो किसी ने कहा है
दोस्त आखिर दोस्त होते है।

© डॉ.अजीत

कृतज्ञता

तुम्हारे परिचय ने
प्रेम का सबसे अद्यतन संस्करण विकसित किया

तुम्हारी निकटता ने
सम्बन्धों की नई परिभाषा गढी

तुम्हारे हास्य ने
जीवन को हलके में लेना सिखाया

तुम्हारे दुखों ने
संघर्ष के तुलना की आदत से बचाया

तुम्हारे प्रेम ने
देह के प्रतिमानों से मुक्त रहना सिखाया

तुम्हारी आत्मीयता ने
लोगो पर विश्वास करना सिखाया

तुम्हारे गुस्से ने
जीवन को साधने का गुर सिखाया

तुम्हारी उपेक्षा ने
खुद से प्रेम करना सिखाया

तुम्हारी अपेक्षा ने
सच को आँखे मिलाकर कहने की हिम्मत दी

तुम्हारी दोस्ती ने
दोस्तों को बिना शर्त स्वीकारना सिखाया

और तुमने
मुझे मुझ से मिलवाया

तुम्हारे होने पर
कृतज्ञता का ज्ञापन सम्भव नही
आभार बहुत हल्का शब्द होगा
धन्यवाद औपचारिक है बेहद
तुम्हारा होना मेरे होने से बड़ा है
जैसे जीवन से बड़ा है
ईश्वर के होने का अहसास।

© डॉ.अजीत


Friday, July 11, 2014

पोस्टकार्ड

दुखों के पोस्टकार्ड पर
शिकवों के रसीदी टिकट
गलतफहमियों की गोंद से चिपके थे
इसलिए वो गुमनाम पतों से
बैरंग लौट आए
उन पर आमद की मुहर
नही लगी थी
न डाकिए की खीझ का
लाल कलम उन पर चला था
उनकी लिखावट वक्त के डाकिए
की समझ से परे थी
इसलिए वो हर बार अलग अलग
जगह भेजे जाते रहें
अपने कयासो के साथ
दुःख का पोस्टकार्ड
सुख के मनीआर्डर के साथ
भेजना पड़ता है
तब शायद पते तक पहूँच पाता
यह सलाह उस दुश्मन डाकिए ने दी
जिसे दोस्त समझ
मैंने अपनी सारी चिट्ठीयां सौप दी थी
गुमनाम खतो के भय से
कुछ खत बिना लिखे रह गए है
सोच रहा हूँ उन्हें
रोज तुम्हें पोस्ट करूं
कविता की शक्ल में
मगर
न जाने तुम कहाँ रहती है
तुम्हारा पुराना पता मुझे मालूम नही है
नया मिलने की उम्मीद नही है
किसी जतन से
यहीं पढ़ सको तो
पढ़ लेना।
© डॉ.अजीत

Wednesday, July 9, 2014

अलख निरंजन

तुम्हारे लोकप्रिय स्टेट्स पर
मेरे लाइक की हाजिरी
उतनी ही गुमनाम रही
जितनी तुम्हारा बाथरूम में गुम हुआ
हेयरपिन
तुम्हारी तस्वीरों पर
मेरे कमेंट्स उतने ही संकोच की धुंध में लिपटे रहे
जैसे जनवरी के पहले हफ्ते में
तुम्हारे घर का रास्ता
तुमको टैग करने से पहले मै उतना ही डरा रहा
जितना पहले इंटरव्यू के दिन डरा था
तुम्हारे लिखे को शेयर करना
मेरे लिए उतना ही अपनापन लिए था
जितना जगजीत की गजलें सुनना
मेरी दर के हर नोटिफिकेशन की लाली में
तुम्हारी आमद की आस सांस लेती थी
मेरे इनबॉक्स का स्याह सफेद नेपथ्य
हमेशा तुमसे सम्बोधन की ध्वनि सुनना चाहता था
अन्फ्रेंड या ब्लॉक करने की धमकी
मेरे लिए उतनी ही कल्पनातीत थी
जितना जल बिन जीवन
तुममे मुझे कितनी बार अनफॉलो किया होगा
तुम्हे भले भी याद न हो
मगर तुम्हे फेक आई डी से कितनी बार पढ़ा है
मुझे हर बार याद है
फ्रेंड रिक्वेस्ट स्वीकार करने के खुशी
आज भी तुम्हें पाने की खुशी जैसी है
मेरे पास तुम्हारा एक मात्र संदेश सुरक्षित है
जिसमे तुमने सभी को लिखा था
प्लीज लाइक माई पेज़
उस दिन मै देर तक ठहाका मारकर हंसा था
पहली बार मुझे लगा कि बीमा की तरह
लाइक भी आग्रह की विषय वस्तु हो सकती है
मै उस आग्रह को दिल से लगा बैठा
इससे तुम्हें कोई ख़ास फर्क नही पड़ा
बस तुम्हारे पेज़ की एक लाइक बढ़ गई
और मुश्किल
फेसबुक को फेकबुक समझ
अब इस मुश्किल से निकलना चाहता हूँ
ऐसी कविताएँ तुम्हारी फ़िक्र बढाएं
यह कतई नही चाहता
प्रोफाइल डीएक्टिवेट या डिलीट भी नही करना चाहता
बल्कि पासवर्ड भूल जाना चाहता हूँ
ताकि मेरी वाल निर्जन अकेली पड़ी रहें
तुम्हारे अप्रासंगिक अंतहीन इंतजार में
चैट की हरी बत्ती भी जलती रहें
बेअदब और  बेसबब
और मै एकांत सिद्ध बना
अलख जगाऊं किसी गुमनाम दर पर
अलख निरंजन !!

© अजीत

डिस्क्लेमर: यह एक विशुद्ध फेसबुकिया कविता है इसका मेरी निजि जिन्दगी से कोई प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष सम्बन्ध नही है। कयासों से बचना निवेदित है। इसे साहित्यिक आस्वाद से पढ़ा जाए न कि मेरा आत्म कथ्य समझकर। :P


Sunday, July 6, 2014

थकान

तुम्हारे जीवन की रिक्तताएं
दुनिया से छिप सकती है
मुझसे नही
तुम्हारे जीवन के आकर्षण
दुनिया के लिए गुह्य हो सकते है
मेरे लिए नही
तुम प्रेम में डूबी प्रतीत होती रहो
तुम्हारे मन के टापू पर
निर्जन एकांत
मेरे लिए अज्ञात नही
खुद को बहलाने के
तुम्हारे सारे प्रयास
मुझे ज्ञात है
बावजूद
तुम हंसती बतियाती खिलखिलाहती हो
बेवजह मुस्कुराती हो
क्या तो तुम सिद्ध हो गई
या फिर अन्तस् से चालाक
ये दोनों बातें एक ही दशा में
गलत साबित हो सकती है
मेरे सारे कयास
तभी मेरे मनोविकार में तब्दील हो सकते है
अगर
तुमने सम्पादन रहित प्रेम का कौशल
सीख लिया हो
परन्तु
यह कौशल कमबख्त सीखा नही
जिया जाता है
इसलिए मै आश्वस्त हूँ
तुम प्रेम में नही
अभिनय में जीवन जीना
सीख गई हो
किसी भी प्रेम के अध्येता के लिए
इस जीवन उत्साह को समझना
बेहद मुश्किल काम है
जो इनदिनों मै कर रहा हूँ
यह खत उसी थकान के सहारे
तुम तक भेज रहा हूँ
बैरंग।
© डॉ. अजीत

Saturday, July 5, 2014

गजल

जीना अब हुनर लगता है
मुस्कुराने में डर लगता है

रूह की बातें थी बेकार
जिस्मों का सफर लगता है

नजदीकियों का वहम था
दोस्त अब सिफर लगता है

शिफा नही होनी अब
दवा भी जहर लगता है

मेरी-तेरी लाख तल्खियाँ सही
तेरे होने से मकां घर लगता है

© डॉ. अजीत

Tuesday, July 1, 2014

मुकदमा

जिस गति ,संख्या और मात्रा में
मै कविताएं लिख रहा था
उसका एकमात्र स्पष्ट संकेत था कि
मेरे पास वक्त बहुत कम बचा है
स्पष्टीकरण के लम्बे नोटिस
असफलताओं के नोट्स
बदलती दुनिया की समीक्षा
बदलते लोगो का चरित्र
और इन सबके बीच
प्रेम,नदी, पक्षी,वृक्ष और प्रकृति के
आख्यान मुझे कविता की शक्ल में लिखने थे
मै इतनी जल्दी में था कि
कई बार यथार्थ को गल्प लिख देता तो
कई बार गल्प को यथार्थ
गद्य को पद्य में लिखने का अभियोग
मुझ पर बहुत पुराना था
कभी मै कथ्य से भटक जाता तो  कभी
मेरे विषय भटक जाते
मेरी कविता में निराशा की नीरवता थी
उसमें दुस्साहस नही था
कुछ को उनमें व्यंग्य भी नजर आया
कुछ के लिए 'मै' का अधिक प्रयोग
साधारणीकरण में बाधा प्रतीत होता था
उनमें तादात्मय का अभाव था
मेरी कविताएँ लापरवाही का दहेज
अपने ब्याह में साथ लायी थी
उनमे उदासी की मूंह दिखाई भी शामिल थी
भागतें-हाँफते वक्त के सामने
जल सी तरल थी मेरी कविताएँ
उनमे गंध, स्वाद कुछ न था
वो बैचेनियों का आलाप थी
वो अकहे संघर्ष की तान थी
वो निजी हार जीत के राजपत्र से अलग थी
मेरे पास कहने के लिए इतने विषय हो गए
कि सबको कविता की शक्ल में न ढाल सका
अंत में, मै उनके बीच भींच गया
समय की कमी
कहने की बैचेनी
और आलम्बन के अभाव में
रिसती रही कविताएँ
कविताओं के सन्दर्भ ले
बतकही में बनती बिगडती रही छवियां
ऐसे मुश्किल दौर में
कुछ कविताएँ शब्दों का आकार
लेने से मना कर विद्रोह पर उतर आयी
दरअसल वो कविता नही
मेरी खुद की सच्चाई थी
जिस पर आज तक कोई कविता न लिख सका
इसे हलफनामे की तरह
समझा जा सकता है
कविताओं  को उनके एकांत से
आश्वासन के बहाने लाने का
मै दोषी हूँ
इस बिनाह पर पढ़ने लिखने वाले लोग
मुझे मृत्युदंड देंगे
इसलिए मैंने शुरुवात में लिखा
मेरे पास वक्त कम बचा है
कविताओं के लिए।
 © डॉ. अजीत

दुःख

सम्बन्धों के आड़े-तिरछे वातायन में
एक धूप विश्वास की खिलती है
सूरज की नन्ही किरण यकीन दिलाती है
इन्सान उतना बुरा नही है
मन के तहखाने में
अनुभव बैठा है संदेह को थामे
अँधियारा कहता है
संदेह करो विश्वास नही
संदेह और विश्वास की लड़ाई में
कभी मन जीत जाता है
तो कभी दिमाग
उलझे-सुलझे अधूरे लटके-भटकें
कुछ रिश्तों का बोझ
मन घसीट रहा है बरसों से
चेहरों पर मुस्कान पुती है
मन पर घृणा का काजल
मित्र-अमित्र के भेद में
परिभाषाएं जाती है रोज बदल
कुछ लोगो के लिए सुविधा है
नजदीक या दूर होना
प्रिय या अप्रिय होना
मुश्किल है इंसान के लिए
पारदर्शी होना
भय बड़ा है दिगम्बर हो जाने का
रिश्तों के खो जाने का
इसलिए अकेलापन नैसर्गिक है
रचना अपना रिश्तों का संसार
एक जिद है मनुष्य की
खुद से भागने की एक असफल कोशिस
तभी वो अभिशप्त है
सम्बन्धों की त्रासदी ढोने के लिए
दोषारोपण करके बचने के लिए
मनुष्य होने का सबसे बड़ा स्थाई दुःख यही है।

© डॉ. अजीत