Tuesday, April 26, 2016

एकदिन

एकदिन पूछा मैंने
तुम्हारा वो दोस्त मुझसे अच्छा है क्या?
उसनें बड़े आत्मविश्वास से पलक झपकतें हुए कहा
हां ! वो तुमसे कई मामलें बहुत अच्छा है
मैंने कहा फिर मुझसे ये मेल मिलाप क्यों?
थोड़ी गम्भीर होते उसनें कहा
मुझे कम अच्छे लोग पसन्द है
इसलिए।
***
मैंने एकदिन कहा
क्या तुम्हारा वो दोस्त तुम्हें मेरे जितना समझता है
उसनें कहा हां ! तुम मुझे बिलकुल उतना नही समझते
जितना वो समझता है
इस मैं थोड़ा उदास हो गया
उसनें मेरे हाथ अपने हाथ में लेकर
बिना पलकें झपकें कहा
वो केवल मुझे समझता है
तुम मुझे जीते हो
इसलिए दोनों में कोई बराबरी नही है
उस वक्त मेरे चेहरे पर जो मुस्कान थी
वो इतनी असली थी कि चमक रही थी तुम्हारी आँखे।
***
मैंने एकदिन पूछा
अगर किसी दिन तुम्हें चुनना पड़े
हम दोनों में से कोई एक
तब तुम क्या करोगी, किसे चुनोगी?
किसी को भी नही
उसनें दृढ़ता से कहा
फिर क्या करोगी
हंस पड़ी ये सुनकर
फिर बोली रोया करूंगी तन्हाई में
ये सोचकर
दो समझदार पुरुष भी नही सहेज पाए मुझे।
***
एकदिन उसको देख
भावुक हो किसी बात पर
रो पड़ा मैं
उसने कुछ नही कहा
फिर अचानक बोली
तुम्हारे लायक नही ये दुनिया
यहां तक मैं भी नही
तुम गलत वक्त पर पैदा हुए हो
हो सके तो
इतंजार करना मेरा अगले जन्म तक
इतना कहकर वो रो पड़ी
थोड़ी देर हम दोनों खामोश रहे
फिर हंस पड़े कैंटीन का बिल देखकर।

©डॉ. अजित

सम्बोधन

मैंने एकदिन मॉल से उसे फोन किया
और पूछा क्या लाऊँ तुम्हारे लिए?
उसनें बड़ी सहजता से कहा खुशी
मैंने कहा खुशी भी खरीदी जा सकती है क्या
वो बोली हां बिलकुल खरीदी जा सकती
बशर्ते तुमनें आने से पहले मुझे फोन किया होता
मैंने कहा इस साइड आया था सो आ गया
वो हंसते हुए बोली
इस साइड आए हो तो अपने लिए सामान खरीदों
खुशी किसी भी साइड मिल जाएगी
जब तुम्हारे साथ मैं होउंगी
जब जरूरत तो समय से फोन करना।
****
एकदिन मैंने कहा
कोई एक सामान दिलवाना चाहता हूँ तुम्हें
बोली हाँ दिलवा दो ना धूप का चश्मा
मैंने कहा धूप का ही क्यों?
एक तो नजर का मेरे पास है पहले से
दूसरा धूप में तुम्हें ठीक देख नही पाती
आँखें बन्द बन्द हो जाती है
मैंने कहा छाँव में देख लिया करों
इस पर बोली
देखना कोई मुद्दा नही वैसे मगर
मुझे तुमको धूप में ही देखना पसन्द है
तुम तब सच के सबसे करीब होते है
लगता है तलाश रहे हो धरती पर सिर्फ मुझे।
***
मैंने कहा एकदिन
चलो चाय पीने चलतें है
इस पर बोली
चाय तो रोज़ ही पीते है
चलो आज बीयर पीने चलते है
इस पर मैं सकपका गया
मैंने कहा मुझे पसन्द नही बीयर
जो पसन्द नही उसको जरूर पीना चाहिए
जो पसन्द नही उसके साथ जरूर जीना चाहिए
मैंने कहा दूसरी बात क्या मतलब हुआ
कुछ नही बीयर पी लो समझ आ जाएगा
उसनें कहा नही को भूल जाओं कुछ वक्त के लिए
फिर देर तक हम हंसते रहें पीकर।
***
अचानक उसनें पूछा
क्या तुम कम्युनिस्ट हो?
मैंने कहा नही
प्रेम का सर्वाहारा हूँ
क्या तुम पूँजी के सहारे प्यार समझना चाहती हो
मैंने सवाल किया
उसनें कहा नही
प्यार किसी के सहारे नही समझा जाता
न मेरा क्रान्ति में विश्वास है और न शोषण में
फिर किसमें में है? मैंने पूछा
तुममें है बस कॉमरेड
पहली दफा उस सम्बोधन पर मैं खुश हुआ
जो नही था मैं।

©डॉ. अजित

Monday, April 25, 2016

बदलाव

मुझे तुम्हारी प्रशंसा हासिल हुई
मुझे तुम्हारा गुस्सा हासिल हुआ
मुझे तुम्हारी शिकायतें हासिल हुई
यदा कदा तुम्हारा प्यार भी हासिल हुआ

इस हासिल होने में मैं इसे सम्भालनें का हुनर खो बैठा
मुझे ले बैठा मेरा अति आत्मविश्वास

अब तुम्हारे पास अपने ढ़ेरो सवालो के
अपने जवाब थे
मेरा बोलना भी खुद को बचाने का उपक्रम था
इसलिए सुनता गया आरोपो की फेहरिस्त

दरअसल,
मैं अपने 'होने' के उत्साह में ये बात भूल गया
शब्दों की यात्रा एक रेखीय नही होती है
अभिव्यक्ति की ध्वनियां भी यात्रा करती है वृत्त में
इसलिए मेरे शब्द बन गए हथियार
और मैं एक चालाक शिकारी
जो रोज़ बुनता था शब्दों का ऐसा चक्रव्यूह
जिसमें आखिर फंस ही जाता था कोई वक्त का मारा

मेरी दुनिया बाहर से ऐसी ही दिखती थी
जबकि अंदर पसरा हुआ था विराट एकांत
तुम्हारी हंसी से जला लेता था मोमबत्ती
कुछ अच्छी यादों के सहारे पका लेता था
दाल रोटी
तुम्हारी वजह से मैं भूखा नही मरा
इस बात के लिए कृतज्ञ हूँ

मगर तुमनें कुछ ऐसी चोट भी पहूंचाई
जिसके बिना भी तुम देख सकती थी
मेरा ब्लड ग्रुप

तमाम उपक्रमों के बाद भी
तुम्हारी मान्यताओं में लेशमात्र भी बदलाव न होगा
क्योंकी बदलाव तुमनें मेरी गोद में बैठा दिया है
वो तुम्हें दिन ब दिन बड़ा होता दिखेगा
और एक दिन
इसी बदलाव के पीछे दिखना बन्द हो जाएगा
तुम्हारा प्रिय कवि
जो कभी तुम्हारा प्रिय मित्र भी था।

©डॉ.अजित

वहां

वहां कोई किसी के लिए नही था
जो जिसके लिए था उसी के लिए नही था
ऐसा भी नही था वहां हर कोई अपने लिए था
वहां जो जिसे सोचता वो उसके लिए नही था
जब कोई किसी के लिए नही था
फिर वहां किस लिए था

इस सवाल की पड़ताल के लिए धरती पर बदलना पड़ता था अपना ध्रुव

उत्तर दक्षिण नही
पूरब पश्चिम भी नही
तब अपने ही ग्रह की यात्रा करनी पड़ती थी
स्पेस शटल में बैठकर
दिशा का मानचित्र बनाते हुए
जख्मी हो जाते थे हाथ

तोड़नी पड़ती थी
अपने की गुरुत्वकार्षण के केंद्र की समय रेखा
वहां इतनी जल्दी बदल जाती थी
मनुष्य की मनुष्य में रूचि
जितनी देर में बदल जाती है
छाँव बदल जाती है धूप में

मन के भूगर्भ में जमा थे संतृप्त ज्वालामुखी
जंगलों की जड़े टुकड़ो में टूटकर बह रही थी
धरती के अंदर बहती नदियों का कोई सागर नही था
उनके व्यवहार को समझा जाता था समलैंगिक

ऐसे अस्त व्यस्त समय में
देह की यात्रा कहीं नही पहुँचती थी
मन की कोई यात्रा ही नही थी
वो जन्म से ही नपुंसक लिंग में बात करने का आदी था

अपनत्व का घास ज़मी थी
जिसकी कतर ब्योंत करने की जिम्मेदारी
जिस माली पर थी
वो भूल गया था सारी स्मृतियां
उसका कौशल छोटा बड़ा देख नही पाता था
उसे निकट दृष्टि दोष था

वहां संगीत के नाम पर
कुछ ध्वनियां बची थी
जिसे सुन कोई रोता नही था
कुछ लोग हंसते तो कुछ केवल मुस्कुराते थे

ऐसी अकेली दुनिया में
सब अर्थ भावार्थ और शब्दार्थ के गुलाम थे
विरोधाभास एक निपुणता थी वहां
पुरुषों के वीर्य में शहद की गंध थी
और असल का शहद मधुमक्खियों का थूक भी नही था
उनके श्रम का एक ही हिंसात्मक उपयोग बचा था
जिसे कूटनीति भी कहा जा सकता था

अतीत में डूबे गाँव
वर्तमान से भागते शहर
भविष्य के नशे में डूबे कस्बे थे वहां

वहां आदमी अपनी आदमीयत के पुरस्कार पर जिन्दा था
प्रेम वहां का सबसे सतही विषय था
जिस पर प्रत्येक नागरिक लिख सकता था कविता
दे सकता था उपदेश

संयोग मैं उसी ग्रह का नागरिक था
निर्वासन पर मैंने किए तमाम दुष्प्रचार अपने ही ग्रह के बारें में

बस इसलिए आज भी वहां के लोग याद करते है मुझे
एक तिरोहित भरे सम्मान के साथ।

© डॉ.अजित







Friday, April 22, 2016

कामना

ये बात मैं कतई नही चाहता
कमरें की चारदीवारी में
अरुचि भरी तीमारदारी में
बच्चों के चेहरे पर पुती समझदारी में
निकलें मेरे प्राण

मैं चाहता हूँ
मेरे दोनों कदम ज़मीं पर हो
दोनों की गति हो एक समान
चलतें फिरतें चप्पल चटकातें हुए
निकलें मेरे प्राण

बह जाऊं मैं धरती पर जल की तरह

मुझे यूं टूटता देख
आसमान पर तारें का बच्चा मांगे कोई कामना
मेरे संचित कर्मों के प्रतिफल से हो जाए वो पूरी
ईश्वर से इतनी भर है मेरी प्रार्थना

धीरे धीरे विस्मृत होता जाऊं मैं
किसी उल्का पिंड की तरह

सूखते जलाशय की तरह
धरती के सबसे निर्वासित कोने में हो
मेरी उपयोगिता का पाठ

आने और जाने के बीच
चाहता हूँ बची रहें बस इतनी गुमनामी
किसी को आए यकीन
कोई भूल जाए अंतिम निशानी।

© डॉ.अजित

Tuesday, April 19, 2016

ऊब

ऊबकर एकदिन
हटा दिया मैंने चश्मा

आँखें बहुत दिन से कर रही थी
शिकायत

वो देखना चाहती थी बिना किसी मदद के

मदद की निर्भरता कमजोर करती है इंसान को
ये बात मुझे कान ने तब बताई
जब सो रहा था मैं

जागते ही आँख मलकर मैंने देखा दर्पण
आँखों का नम्र निवेदन झलक रहा था

चश्मा एक असुविधा था
जिसे नाक पर चढ़ा रखा था बेवजह
बिना आँख की इच्छा जानें
कान भी बोझ के सताए हुए थे
उन्होंने कहा धन्यवाद
और आश्वस्त किया मुझे
कुछ दिन अफवाह न सुनने के लिए
कान की इस सदाशयता के लिए
मैंने कृतज्ञता ज्ञापित की
अपनें ही कानों को ठीक वैसे छूकर
जैसे उस्ताद का जिक्र करते हुए छूता है
कोई फनकार

चश्मा उतारने के बाद

भले ही अब कम दिखे मुझे
मगर दिखेगा उतना ही
जितना जरूरी है मेरे लिए
अपनी मात्रा और दूरी की पूर्णता के साथ।

©डॉ. अजित 

Monday, April 18, 2016

शुगर

मीठा जिसनें बनाया था
वो जरूर कड़वाहट कम करना चाहता होगा
इसके कोई प्रमाण नही मिलते
हो सकता है यह स्वाद की एक चाह भर रहा हो

तुम खुद कितना कड़वा बोलती थी
कड़वा दिल दुखाने वाला नही बल्कि
रास्ता दिखानें वाला
मुश्किलों को सुलझाने वाला
तुमनें ज्यादा मीठा खाया हो
इसकी कोई जानकारी नही
बावजूद इसके एकदिन
रेनबैक्सी की प्रयोगशाला ने बताया
तुम्हें तो मीठी बीमारी हो गई है

आरबीएस एफबीएस जांचना
आवश्यक जीवन कर्म बन गया तुम्हारा
ड्रेसिंग टेबल,बिस्तर के सिराहने
एक डब्बा एक्यू चैक का रहता हमेशा
गोया तुम्हारा श्रृंगारदान हो जैसे

जिन ऊंगलियों के पोरों से बहता था मनुहार
अब उनमें निडिल के निशान मिलते है
त्वचा का सम्वेदनहीन होना
मैंने देखा अपने सामनें
नही करती अब तुम उफ़ भी
दर्द का अहसास यूं मिटना
आंसूओं के सूखने से कम खतरनाक नही होता

कहते है शुगर का कोई नही इलाज़
ये मेटाबोलिज़्म से जुड़ी बीमारी है
कुछ कुछ जीवन शैली कुछ कुछ आनुवांशिकी
जिम्मेदार है इसके लिए
पता नही इन कथनों में कितनी वैज्ञानिक सच्चाई है
मगर ये बात सच है
ये कोई बीमारी नही है ये दरअसल एक घुन है
जो रोज़ अंदर से चाटकर करता है खतम
जीवन की मिठास

बतौर स्त्री इसनें तुम्हारी मुश्किलों में
कितना इजाफा किया
ये बात तुमसे ज्यादा मैं जानता हूँ
कभी भूख का ज्यादा लग जाना
कभी भूख का बिलकुल मर जाना
सीधे चलतें हुए उलटे चक्कर आना
देह की संधियों का चटख कर थम जाना
अनमना होते हुए भी बारहा मुस्कुराना
सुबह जल्दी उठते उठते भी देर हो जाना
खुद से रोज़ एक लड़ाई लड़ना
और रोज़ ही एक लड़ाई हार जाना
न चाहते हुए भी कोई जख़्म हो जाना
उसको भरते भरते मुद्दत बीत जाना

डायबिटिक जब से तुम्हारा मेडिकल स्टेट्स बना
तब से देखता हूँ
रोज़ तुम्हें अतिरिक्त सावधान
दवाई को मानने लगी तुम
मुझसे बढ़िया मित्र

सच कहूँ अब तुम्हारे सामनें मीठी चाय पीते
घिरा रहता हूँ अजब सी बैचैनी से
इन्सुलिन का कॉम्बो पैक घूमता रहता है मेरे सामनें
मीठे को लेकर नही कर पाता कोई मजाक तुम्हारे साथ

कविता की भाषा में कहूँ तो
तुम्हें शुगर क्या हुआ
मेरी मिठास ही विदा हो गई सदा के लिए
चिढ़ हो गई है अब हर मीठी बात से
कड़वा बोलता हूँ
कड़वा जीता हूँ
कड़वा दिखता हूँ

जैसे, मीठी बीमारी के बाद
तुम रोज़ सरक रही हो उस अजनबी दुनिया में
जहां मिठास का मतलब मिठास नही।

© डॉ. अजित

Thursday, April 14, 2016

डर

मेरा सबसे बड़ा भय यह है
तुम्हारा सामाजिक आक्रोश
तुम्हारे स्त्रीत्व की हत्या न कर दें
करुणा वात्सल्य प्रेम जैसे तुम्हारी ताकतों को
निष्क्रिय न कर दें
ये कोई पुरुषवादी भय नही है
बल्कि ये उस स्त्री तत्व का भय है
जो मेरे अंदर है
और तुम्हारी क्षुब्धता देख आजकल सहमी रहती है
व्यवस्था और रीतियों की आंच में
तुम दिन ब दिन पिंघल कर
कठोर होती जा रही हो
लड़ रही हो रोज़
अलग अलग मोर्चे पर अकेली लड़ाईयां
मुझे इस बात भी डर है
ये लड़ाईयां तुम्हें इस कदर अकेला न कर दे
कि तुम्हें जुगुप्सा होने लगे अपने प्रिय पुरुष से भी
तुम सन्देह करनें लगो
उसके मंतव्य पर भी
जानता हूँ एक डरे हुए पुरुष के इस कथन से
तुम्हें जरा भी सन्तोष न मिलेगा
नही कम होगा तुम्हारा रोष
अपना डर जताकर
मैं कमजोर नही थोड़ा मजबूत महसूस कर रहा हूँ
क्योंकि तमाम बातों के बीच
डर को मुझसे बेहतर समझती हो तुम।

© डॉ. अजित

मदहोशी

एकदिन उसने कहा
तुम्हारी आँखें सूँघनी है
मैंने कहा क्यों
लगता है पी कर आए हो
मैंने कहा उसके लिए तो मुँह सूंघते है लोग
वो बोली नही
नशा तुम्हारी आँखों से महकता है
फिर उसनें अनामिका और तर्जनी
दोनों आँखों पर फेरी
ठीक उतनी सावधानी से
जैसे कोई माँ अपने बच्चे की आँख में
काजल लगाती है
उसके बाद वो रूआंसी होकर बोली
कितने रातों से ढंग से सोए नही तुम?
मैंने कहा शराब की महक आई?
बोली नशा केवल शराब का नही
अधूरे खवाबों का भी होता है
फिलहाल तुम्हारी आँखों में वही दहक रहा है
मैं हंस पड़ा
वो रो पड़ी
और नशा दोगुना हो गया
कुछ कुछ ऐसी थी हमारी मदहोशी।

©डॉ.अजित

काश !

यदि मैं होता नगर नियोजक
तुम्हारे शहर की कुछ सड़के नही ले जाता
चौराहे तक
चौराहें की भूलभूलैय्या तक नही छोड़ कर आता
कोई भी दोराहा
सिविल लाइन्स से लेकर कलेक्ट्रेट तक
सड़को का ऐसा जाल न बुना होता
तुम्हारे कालोनी को जाते कई रास्तें
मगर वापिस आता केवल एक
शहर का मानचित्र कुछ ऐसा होता
अजनबी कोई अकेला न पड़ता आकर
हवाओं को होती भरपूर आजादी
धूप तुम्हारे हिस्से न आती आधी
तब तुम्हारा शहर कुछ कुछ ऐसा होता
जैसा कोई पहाड़ी कस्बा
छोटी होती सबकी जरूरतें
मगर दिल होता सबका बड़ा
भीड़ और कोलाहल में
निर्जन अकेले न होते चौक
उदास देख किसी को बच्चे लेते उसका रास्ता रोक
यदि मैं होता नगर नियोजक
तुम शहर की भीड़ में न होती इतनी अकेली
बतिया लेती हवाओं से मान उन्हें घनी सहेली
कह पाती मन की वो सारी बातें
जिन्हें सुन सुन कर बूढ़ी हो गई रातें
फिर शहर तुम्हारा कुछ कुछ मेरे जैसा होता
न मिलता न साथ चलता
मगर रिश्ता एक गहरा होता
यदि मैं होता नगर नियोजक...!

© डॉ.अजित

Wednesday, April 13, 2016

लिल्लाह

तुम्हें देख एक ही लफ्ज़ निकला
लिल्लाह !
लबों पर खामोश सी एक इल्तज़ा थी
मुन्तज़िर हो देख सकूँ वो बेफिक्र अंगड़ाई
हया ने रफू किए जब जिस्म
चाहतों ने अदब से पनाह मांगी
पोशीदा किस्सों के कुछ गुमशुदा खत
तुम्हारी कानिश पर छूट गए थे
उन्हें पढ़ना आहिस्ता आहिस्ता
तुम्हारे कान के पीछे एक बोसा टंगा है
उसका पता तुम्हारी ऊंगलियों पर छपा है
जुल्फों के सायें में उसका अक़्स बना करेगा
एक तहरीर
तुम्हारे काज़ल से लिखी है
जिसे पोस्ट किया है तुम्हारे पलकों के डाकखाने में
ख़्वाबों में उस पर कोई अमल होगा
इसकी उम्मीद नही
फिर भी इस बात की उम्मीद है
देर सबेर तुम तलक सब पहुँचेंगे
हिस्सों और किस्सों में
लबों की तलाशी में दुआओं के हरफ मिलेंगे
तुम्हारी ज़बां की मिठास से
वो अब महज अल्फ़ाज़ नही बचें है
वली बन गई हो तुम
इश्क के समन्दर में जो उड़कर पार करने का
हुनर अता करती है
तुम्हारी सोहबत में तैरना नही
उड़ना सीख रहा हूँ इनदिनों।

©डॉ.अजित

भरोसा

जानता हूँ
लोगो के जीवन में इतना प्रेम नही बचा है
जितना लिखता और कहता हूँ मैं
कई बार ऊब भी होती है
एक ही बात को अलग अलग ढंग से सुनकर/पढ़कर
कई दोस्तों को लगता है
किसी एक एंगल पर जाकर अटक गया हूँ मैं
प्रेम के सन्दर्भ और प्रसंग की पुनरावृत्ति का दोषी हूँ मैं
चाहे तो इसके लिए
शुष्कता में जीतें संघर्षरत लोग
प्रेम में पराजित और रिक्त लोग
मुझे दें दे मृत्युदंड
मगर मेरे पास बात करने के लिए
मुद्दत से कोई और विषय नही है
भूल गया हूँ मैं
लिपि का अन्यत्र प्रयोग
शब्दों का वैचारिक उपयोग
दिमाग छोड़
दिल के सहारे जिन्दा हूँ
प्रेम सिखाता है मुझे सहारे पर जिन्दा रहना
दिमाग की बिलकुल नही सुनता मैं
अगर जरा भी सुनता
तो तमाम अरुचि और अप्रासंगिकता के मध्य
जिन्दा न होता आज
प्रेम केवल मरना ही नही
जीना भी सिखा देता है
हां ! महज एक छोटी सी बात के सहारे
जिन्दा रहना
प्रेम के भरोसे सीख पाया मैं।

© डॉ.अजित

वो दोनों

फेसबुक पर वो दोनों
कयासों और अफवाहों के शहर में रहतें थे
सबके पास था उनके बारें में
गल्प का अपना एक वैयक्तिक संस्करण
कुछ लोगो का मानना था वो दोस्त से बढ़कर कुछ थे
कुछ ने उनको मान लिया था प्रेमी-प्रेमिका
इनबॉक्स से लेकर व्हाट्स एप्प तक
उनके स्टेट्स की चर्चा होती थी
उनमें से कोई एक जब डिएक्टिवेट कर देता प्रोफाइल
दूसरे के स्टेट्स से लोग वजह का लगाते थे अंदाज़ा
उन दोनों के कमेंट लाइक पर
पढ़े जाते थे निंदा की गोष्ठियों में शोध पत्र
रसज्ञ खोजते थे नए रस
भाषा विज्ञानी हतप्रभ थे
उनकी भाषा के अति साधारण होने पर
कुछ उन्हें देख याद करते थे अपना अतीत
कुछ उन्हें देख करते थे भविष्य की यात्रा
शायद ही कोई जानता था
यह बात कि
उनके मिलने या बिछड़ने की वजह
फेसबुक नही दैवीय थी
उन्होंने तय की अपने अपने हिस्से की यात्रा
और मुस्कुराते हुए कहा अलविदा
उनको भूलना आसान नही था
मगर फिर भी एक दिन भूल गए लोग
ये देखकर
अक्सर याद आती रही उनकी बातें
जो महज बातें नही थी
बल्कि जीवंत दस्तावेज़ थी
जिनके सहारे अँधेरे में भी
बिना कहीं टकराए
क्षुब्ध लोग अपने बिस्तर तक पहूंच सकते थे।

© डॉ.अजित

Tuesday, April 12, 2016

डर

एक कविता लिखी थी तुम्हारे लिए
जिसका पाठ सुनना था तुमसे

कुछ जंगली फूल लाया था तुम्हारे लिए
उन्हें गूंथना था तुम्हारी वेणी में

तुम्हारी एक मौलिक किस्म की गंध थी मेरे पास
जिसे ले जाना चाहता था समन्दर तक

एक कप चाय पीनी थी तुम्हारे साथ
रसोई में खड़े होकर

बिस्तर पर ऐसे बैठना था न पड़े एक भी सिलवट
और बैठा रहूँ ठीक तुम्हारे सामनें

कुछ नदी किनारे मिलें छोटे पत्थर सौपने थे तुम्हें
ताकि तुम सूंघ कर बता सको उनका द्रव्यमान

एक सूखी जंगली वनस्पति का टुकड़ा देना था तुम्हें
जिसे तुम लगा सकती थी अपने जूड़े में

पूछना था तुमसें
समय का समास
अपेक्षा का तद्भव
प्रेम का विशेषण
रिश्तों का सर्वनाम

बताना था तुम्हें
तरलता का बोझ
पलायन और अनिच्छा में भेद
डर का कायरता से इतर का संस्करण
खेद का मनोविज्ञान

बस, इन्ही छोटी छोटी ख्वाहिशों से डर के
ईश्वर ने सही वक्त पर मिलनें नही दिया तुमसें।

© डॉ.अजित

कमतर

बेहतरी के चुनाव में
तुम्हारा असमंजस समझा जा सकता है

एक साथ दो लोग बेहतर हो सकते है
मगर हम मान पाते है एक ही को बेहतर

यह एक मानवीय सीमा है

बेहतरी में कोई संघर्ष नही होता
इस बात में आधा गल्प आधा सच है
कल्पना सदा ही रही है बेहतरी की दास

अब सवाल ये बड़ा है

जो बेहतर नही है मगर कमतर भी नही है
उनका मूल्यांकन कौन करेगा
जिन्हें मान लिया गया है प्रतिस्पर्धाशून्य
उनके एकांत पर कौन लिखेगा समीक्षा
कौन बताएगा उन्हें कि उनके कॉलर मुड़े हुए है

जब सारी दुनिया बेहतरी की तलाश में गुम है
दौड़ रही है रात दिन बिना किसी दिशाबोध के

ये जिम्मेदारी मैं लेता हूँ
बेहतर से कमतर लोग मेरी निग़ाह में है
इस बिनाह पर वो
मुस्कुरा सकतें है
गा सकतें है
जी सकते है औसत से नीचे की उपलब्धि का जीवन
उतने ही जोश के साथ

तुम बेहतर लोगो का समूह बनाओं
मैं कमतर लोगो को फैला रहा हूँ
दुनिया भर में
ताकि बना रहे संतुलन
और बचा रहें जीवन
जीवन की शक्ल में।

©डॉ.अजित 

Monday, April 11, 2016

खतरा

सड़क पर मैं अकेला नही चलता हूँ
मेरा साथ खतरा भी चलता है
खतरा मेरे कान में कहता है
सम्भल कर चल मित्र
कोई तुझे रोंद भी सकता है
मैं हंसते हुए कहता हूँ
मुझे कोई क्या रोंदेगा
मैं तो पहले से तरल हूँ
इस पर खतरा मेरी गर्दन पर पीछे
एक चपत लगा कहता है
चल झूठे!
और उड़कर बैठ जाता है
किसी दूसरे मुसाफिर के कन्धे पर
उसके जाने पर मैं बाय नही कहता
जबकि इस मुलाकात में
उसनें मुझे बड़ी आत्मीयता से
कहा था मित्र।

© डॉ.अजित 

Saturday, April 9, 2016

अनुमान

तुम मुझ तक आए
या मैं तुम तक गया
ये सवाल बड़ा नही है
बड़ा सवाल ये है
हम चले भी या चलने का भरम बनाया
और घूमते रहे अपने ही इर्द गिर्द
धरती गोल है या चपटी
कुछ लोग इसका निर्धारण
हमें देखकर करेंगे
इसलिए
थोड़ा डरा हुआ मैं कि कहीं
कोई गिर न पड़े धरती से नीचे
हमें देखकर।

©डॉ.अजित 

Friday, April 8, 2016

किस्सें

मैं कहता
'अगर'
मगर चुप रह गया
हमारे मध्य यद्यपि का दिशाशूल था
जाने नही देता था वो
हमें एक दिशा में
हमारी पीठ हँसती थी हमारे चेहरों पर।
***
कुछ उत्तर ऐसे थे
जो बेहद ज्ञात किस्म के थे
कुछ प्रश्न ऐसे थे जो बहुत जरूरी थे
उत्तरों की ओट में
प्रश्न सुस्ताते थे
वे दिन परीक्षा के नही
धर्म संकट के थे
फिर भी हमारा एक ही धर्म था
प्यार।
***
मैं बात 'आप' से शुरू करता
और उतर आता 'तुम' पर
और तुम आप और तुम के अलावा कोई
नया सम्बोधन खोजती
तलाश भी लेती मगर बोल न पाती थी
उनदिनों
उलझे सम्बोधन की चटनी रख
बासी रोटी साथ खाते थे हम
तृप्ति का वो एक ऐसा दौर था
जहां एक दुसरे के मध्य से
दौड़ कर निकल सकते थे हम।
***
तुम्हारी अंगड़ाई का आधा वृत्त
धरती का था
और आधा आसमान का
तुम्हारी मुस्कान का आधा वक्र
सूरज का था आधा चाँद का
तुम्हारी सारी हंसी तारों के लिए थी
गुरुत्वकार्षण को तुम तोड़ सकती
अपने गीले बालों के झटके से
तुम्हारे आधे पैर जमीं पर थे
आधे हवा में
तुम उड़ सकती थी
मगर तैर रही थी
मैं कह सकता था
मगर सुन रहा था
मेरा एक कान तुम्हारे पास था
एक आसमान के पास
उनदिनों मुझे खुद का भी नही सुनता था
इसलिए आज नही मेरे पास कोई
स्मृति उन दिनों की।

© डॉ.अजित

Wednesday, April 6, 2016

बीतें दिन

जिन दिनों तुम व्यस्त थी
बहस और विमर्शों में
मैं बना रहा था कागज़ की नाव
जब तुम तर्क के शिखर पर थी
मैं सहला रहा था आवारा घास के कान
जिन दिनों तुमसे जीतना लगभग असम्भव था
मैं संग्रहित कर रहा था दुनिया भर के सुसाइड नोट्स
जिन दिनों तुम अपरिमेय उड़ान पर थी
मैं बिलांद से नाप रहा था सप्तऋषि तारों की दूरी
जिन दिनों तुमसे दिल की बात कहना मुश्किल था
मैं देख रहा था नदी के छूटे हुए तटबंध
जिन दिनों तुम करीब रहकर भी थी बेहद दूर
मैं लगा रहा था आसमान की आँख पर चश्मा
उन दिनों की बदौलत जान पाया मैं
सपनों के षड्यंत्र और विकल्पों की दुनिया को
प्रभावित होने और रहनें की अनिवार्यता को
उन दिनों पढ़ पाया
पेड़ की चोटी पर टंगे आसमान के खत को
धरती के माथे पर लिखी
सबसे सुंदर मगर सबसे छोटी लिपि को
उन दिनों के कारण देख पाया
गलतफहमियों के झरनें का नदी होना
धारणाओं के जंगल का हरा होना
उम्मीद के पहाड़ का बड़ा होना
इंतजार के समंदर का खड़ा होना
समझ नही आता कैसे रखूँ याद वें दिन
जब स्मृतियों की आयु थी डेढ़ दिन
स्नेह की तिरछी छाया थी आधा दिन
यथार्थ की धूप थी सारा दिन
मेरे पास उनदिनों केवल रात थी
जिसके सहारे मैं रचता था दुनिया की
सबसे आशावादी उपकल्पना
बताता था खुद ही खुद को मतलबी इंसान
रटता था खुशी की लौकिक परिभाषाएं
नींद को मांगता था ईश्वर से जीवन की तरह उधार
सपनें कामना के नही प्रार्थना की शर्त पर आते थे
उन दिनों मेरे पास
कुछ उलाहने थे
जो तुम्हें आत्मविश्वास के साथ सुनानें थे
तुम्हारी गति अपने साथ उड़ाकर ले जा रही थी
प्रेम का अधिकार
अपनत्व की चादर
और एक दुसरे की जरूरत
जिन दिनों तुम बेहद मजबूत थी
उन दिनों सबसे कमजोर था मैं।

© डॉ.अजित

Monday, April 4, 2016

हम

सामान्य सी बातचीत में
एकदिन उसनें कहा
तुम मिलतें तो दिल बहल जाता है मेरा
मैंने कहा
क्या मैं कोई विदूषक हूँ तुम्हारे जीवन में
इस पर खीझते हुए उसने कहा
कई बार अफ़सोस होता है तुम्हारी सोच पर
बात गम्भीर होती देख हंस पड़ा मैं
मगर वो नही हंसी
तब मुझे पता चला
उसके जीवन में कम से कम
एक विदूषक नही था मैं।
***
प्रेम त्रिकोण को समझनें के लिए
कई बार मैं बन जाता अज्ञानी छात्र
और पूछता उससे
त्रिकोण के अंशो का मान
वो दिल की प्रमेय की मदद से बताती
कैसे दो लोगो का वर्गमूल हो जाता है एक समान
प्रेम की ज्यामिति को समझनें के लिए वो देती
कुछ मौलिक किस्म के सूत्र
तमाम स्पष्टता के बावजूद
हमेशा गलत होते मेरे सवाल
इस बात वो शाबासी देती हमेशा
गलत सवाल पूछने पर
या गलत जवाब निकालनें पर
नही समझ पाया आजतक।
***
अन्य स्त्रियों की तरह
उसी नही था पसन्द मेरा कमजोर पड़ना
यहां तक वो चाहती थी
न करूं जिक्र मैं सर्दी जुकाम और खांसी का भी
बीमारी की सूचना पर आजतक नही कहा उसनें
टेक केयर
वो चाहती थी मैं अकेले लडूं सारे युद्ध
सहानुभूति लूटने की आदत के सख्त खिलाफ थी वो
वो देखना चाहती थी मुझे
हमेशा स्थिर और मजबूत
उसकी वजह से बीमार पड़ना भूल गया था मैं
इसलिए
बीमारी आती रही वो सबसे ज्यादा याद।
***
ऐसा अक्सर हुआ
हम असहमत हुए
और बंद हो गई बोलचाल
सम्बन्धों का ये बेहद लौकिक संस्करण था
जिससे हम गुजरते थे साथ साथ
इस आदत का हमनें कोई सम्पादन नही किया
ना कोई स्पष्टीकरण दिया कभी
नही भेजे लम्बे चौड़े माफीनामे
एक अदद स्माइल से चल जाता था काम
हमारे मध्य ईगो नही
हमेशा दुनिया के ईगो के मध्य रहें हम।

©डॉ.अजित

Saturday, April 2, 2016

कुछ बातें

कई बरस बाद मिलनें पर उसने पूछा
सुना है कवि हो गए हो तुम
मैंने कहा पता नही
फिर तो पक्का हो गए हो
कवियों को आदत होती है रहस्य रचनें की
मैंने कहा चलों यूं होगा
फिर अचानक मेरी एक कविता पढ़ने लगी मोबाइल पर
एक सांस में पढ़ने के बाद बोली
एक बताओं किसके लिए लिखी ये कविता
मैंने कहा पता नही
तुम्हें कुछ पता भी है फिर?
मैंने कहा बस उतना पता है
जितना तुम्हें पता है कि
कवि हो गया हूँ मैं।
****
जब भी उसे कहनी होती
कोई कड़वी बात
लेती हमेशा सहारा कोट्स का
मैं दो स्माईली बनाता जवाब में
जिसका अर्थ वो यह लगाती
मैं समझ तो गया हूँ
मगर मानूंगा नही
फिर लम्बा चलता मैसेज का अज्ञातवास
इतना अवरोध हमेशा रहा हमारे ज्ञान के मध्य।
***
कुछ मामलों में जिद पर उतर आती वो
मसलन सैंडिल मोची के पास छोड़ना नही
अपने सामनें ही ठीक करवाना है
मैंने कहा इतना अविश्वास क्यों
तब वो कहती मुझे रिपेयर देखना अच्छा लगता है
बरसों बाद उससे बिछड़कर समझ पाया
क्यों अच्छा लगता था उसे रिपेयर देखना
दरअसल वो उसकी जिद नही
तैयारी थी रफू होती जिंदगी को जीने की।
***
उन दिनों मैं कुछ प्रतिशत अवसाद में था
ये बात केवल वो जानती थी मैं नही
इसलिए नही छोड़ा उसने मुझे अकेला
कम दिए उपदेश
स्वीकार की मेरी बेतुकी दार्शनिक टीकाएँ
रूचि से पढ़े पलायन के नोट्स
आज अगर मैं जिन्दा हूँ
इसमें बहुत बड़ा प्रतिशत उसका हाथ है
ये बात भी तभी पता चली
जब छूट गए उसके हाथ।

© डॉ.अजित