Sunday, January 29, 2017

विकल्प

यात्रा का आरम्भ बिंदु
होता है बेहद कोमल निस्पृह और पवित्र
फिर विकल्प उपस्थित होते है आसपास
कौतुक की शक्ल में

यही से होता है आरम्भ चयन भेद विशेषण का
विकल्प एक सुविधा है
जिसकी असुविधा व्याप्त रहती है दूर तक

शब्द भाव संवेद जब होते है हस्तांतरित
संकल्प मुस्कुराता है विकल्प की चालाकी पर
विकल्प देता है हौसला हंसी के प्रतिउत्तर में

ये नही वो तो सही
बहुत है अभी चमन में दीदावर।

© डॉ. अजित

ग्लानि

कुछ दिनों से
उससे खिंचा खिंचा सा रहता हूँ
मेरे जवाबों मे तल्खियां रहती है
जानता हूँ सब बेवजह की है
मगर
उसको एक सिरे से खारिज़ करता चला जाता हूँ

किसी को खारिज़ करना सुखप्रद हो सकता है
मगर उसको खारिज़ करके
हमेशा गहरे पश्चाताप से गुजरता हूँ
हैरत इस बात की है
ये पश्चाताप मुझे बदलता नही है

मुझे कोई नाराजग़ी नही है
मैं खुद से भी खफा नही हूँ

दरअसल
क्यों कर रहा हूँ ये सब
मुझे खुद पता नही है

इसलिए लिख कर कम कर रहा हूँ
अपनी ग्लानि
ग्लानि केवल लिख रहा हूँ
महसूस करते समय बंद कर लेता हूँ दरवाजा

जहां मुझे कोई नही देख रहा
वहां तुम देख रही हो मुझे

मैं छिपने के लिए जगह तलाश रहा हूँ
यह कविता उसी जगह की तलाश के नाम
की गई एक ज्यादती है।

© डॉ.अजित