Tuesday, November 29, 2011

अदा

जख्मों को इस तरह सीना चाहता हूँ

बस अपनी शर्तों पर जीना चाहता हूँ


आप जिद कर ही बैठे है सुनने की

तो फिर पहले थोडी पीना चाहता हूँ


वो वक्त भी अजीब था जब शौक था

आजकल लोगो की फरमाईश पर गाता हूँ


दर्द जिसके साथ बांटे वो बेकद्र निकला

अब अक्सर हँसकर जख्म छुपाता हूँ


अपनी फकीरी का ये अन्दाज़ भी अजीब है

जो दर बेआस है उस पर अलख जगाता हूँ


मुझसा कोई न मिला होगा अब से पहले

चलिए ये फैसला आप पर ही छोड जाता हूँ


डॉ.अजीत

Friday, November 25, 2011

बहाना

अक्सर शाम होते ही उदास हो गये

झुठा बहाना सुनकर बच्चे सो गये


दुनिया के लिए जो था मशहूर बहुत

किस्से उसके कहानियों में खो गये


महफिल की तन्हाई देखकर शेख बोले

इतने लोगो कैसे खुदा पसंद हो गये


रोज जीना रोज़ मरना खेल नही है

ऐसे बेअदब हम यूँ ही नही हो गये


नज़र ब्याँ कर गयी दिलों के फांसले

अपनों के अन्दाज़ अजनबी हो गये


उदासी का लुत्फ अजीब ही निकाला

मुस्कुराने की बात पर भी रो गये


डॉ.अजीत

Thursday, November 3, 2011

दौर

आपकी तकलीफ काबिल-ए-गौर है

ये इंसानो को जल्दी भुला देने का दौर है


पहले अक्सर उदास हो जाता था मै भी

आजकल अपनी याददाश्त कमजोर है


उदास आंखो में चमक नही फबती

ऐसा नही है मेरा ध्यान कही और है


दो आँसू छलक जातें जिसकी याद में

वो समझता है बंदा दिल का कमजोर है


मंजिल मुबारक तुम्हे ए हमराह

अपने काफिले का रास्तों पर ठौर है


महफिल मे आदाब सीख कर जाना

वहाँ सभी कहते है एक जाम और है


डॉ.अजीत