Saturday, December 27, 2014

हर साल

बारहकड़ी...
------
जनवरी
कुहरे में लिपटी सुबह थी तुम
चाय की चुस्कियों में उड़ती भांप
नाक को नम करती थी
आँखें इन्ही बहानों से
सीख रही थी बोलचाल
मन की लिपि लिखने के अभ्यास
ठंड की स्लेट पर हुए
तुम्हारी ऊंगलियों पर
चॉक के निशाने मिलेंगे
हर साल।
***
फरवरी
चौदह थी शायद
जब तुमनें स्वीकार किया था
दोस्त से ज्यादा
प्रेमी से कम
कुछ हमारे मध्य होना
ये मध्य का रिश्ता
बुद्ध की याद दिलाता है
हर साल।
***
मार्च
हिंदी में बसंत था
मगर तुमसे उर्दू में
गुफ़्तगु करता था
लफ्ज़ लफ्ज़
प्यार की चाशनी में डूबा
ज़बान उसी मिठास से
करवट लेती है
हर साल।
***
अप्रैल
सुबह लहज़े में नरमी
दोपहर में तल्ख़ी
शाम को बेख्याली
रात में गुम हो जाना
इधर मौसम ने करवट ली
उधर तुम्हारे मन ने
सम्बन्धों का संधिकाल था
जिसका महीना बदल जाता है
हर साल।
***
मई
देह की गंध
मन के झरनें पर
पानी पीने आती थी ओक से
तुम्हारी नजदीकी
तपते माथे पर
खुशबू का तिलक लगती है
बिना स्पर्श किए
तुम्हारे गुम हुए रुमाल से
अब भी माथा साफ़ करता हूँ
हर साल।
***
जून
इधर ख़्वाबों की लू चलती तो
उधर बिना पूछे
तुम्हारा ग्रीन दुपट्टा लपेट लेता
मस्तक पर
खुद को यूं बांधना
मौसम से ज्यादा
दिल की जरूरत थी
डिटर्जेंट की खुशबू को
तुम्हारी खुशबू से अलग कर पाता था
हर साल।
***
जुलाई
वो पहली बारिश थी
जिसमें तन के साथ
भीग रहा था मन
भीगने के सुख में
सबसे बड़ा दुःख यह था
नही देख पाएं
एक दुसरे के आंसू
फिर यूं हुआ
आंसू सूखते गए
हर साल।
***
अगस्त
थोड़ी व्यस्त
थोड़ी त्रस्त
थोड़ी मस्त थी तुम
मैने मांगी तुमसे
एक मुठ्ठी खुशी
तुमनें दे दी दो मुठ्ठी
तब से इस महीनें
लड़खड़ा जाता हूँ
हर साल।
***
सितम्बर
अफवाहों
गलतफहमियों
का दौर था
स्पष्टीकरण अधूरे थे
शंका सन्देह के बीच
अपनत्व भटक रहा था अकेला
तमाम गुस्ताखियों के बावजूद
अंत तक रिश्ता सम्भल गया
इस बात पर
ईश्वर को धन्यवाद
भेजता हूँ
हर साल।
***
अक्टूबर
लगभग निर्वासित जीया
तुम्हारी दुनिया से
एक दुसरे में सांस लेती
जिंदगियों की नब्ज़ पढ़ने का हुनर
इस निर्वासन की अधिकतम
उपलब्धि थी
जिसकी शायद जरूरत न पड़े
हर साल।
***
नवम्बर
उम्र भर रहेगा याद
तुम्हें अंजुली भर देख पाया
तुम्हारी आँखों में
सपनें बो आया
मिली दी तुम्हारी रेखाओं से
खुद रेखा
मानकर यह
कल किसने देखा
यूं बेवजह भी याद आऊंगा तुम्हें
हर साल।
***
दिसम्बर
जैसे एक यात्रा का पूरा होना
तुम्हें पाकर खोना
खोकर पाना
खुद को खुद ही
समझाना
तुम्हें हमेशा आसपास पाना
वक्त का गुजरना
मगर
खुद का ठहरना
जैसे वक्त रहा था बीत
सघन होती गई प्रीत
साल का सदी होना
आता रहेगा याद
हर साल।

© डॉ. अजीत










Friday, December 26, 2014

दस्तक

जलाओं दिये नए मगर तेल पुराना हो
उम्मीद मत रखो रिश्ता गर निभाना हो

हंसकर बताना किस्से अपने बर्बादी के
तरीका यही है गम अपना गर छुपाना हो

वो बुलाता है महफ़िल में तुमको अक्सर
तन्हा चले जाना गर रुसवा हो जाना हो

कुछ नई गजल बचाकर रखना जरूर
लोग बहरे हो जाते है शेर गर पुराना हो

आसानी से हासिल नही होता वो सबको
दस्तक देते रहना गर उसको अपनाना हो

© डॉ. अजीत

Thursday, December 25, 2014

डर

अक्सर मुझे डराता बहुत है
वो शख्स मुस्कुराता बहुत है

किस्से सुनकर हैरत में हूँ
बताता कम छिपाता बहुत है

बुरे वक्त पर काम आता है
कमी एक है जताता बहुत है

जख्म खाना शौक है मेरा
वो मुझे समझाता बहुत है

निशां उसके मिटते नही है
आदतन वो मिटाता बहुत है

© डॉ. अजीत

Wednesday, December 24, 2014

ख़्वाब

कुछ ख़्वाब केवल 
आँखें देखती है 
उन्हें देखने की इजाज़त 
दिल और दिमाग नही देते 
ऐसी बाग़ी आँखों से 
नींद विरोध में विदा हो जाती है 
ऐसे ख़्वाब बहुत जल्द 
नींद की जरूरत से बाहर निकल आते है 
वो हमारी चेतना का हिस्सा बन
खुली आँखों हमें दिखते है 
दिल अपनी कमजोरी दिखाता नही
दिमाग को जताता है अक्सर
और दिमाग की होती है एक ही जिद
वो देखना चाहता हमें हर हालत में 
विजयी और सफल 
दिल धड़कनों की आवाज़ सुनता है 
सुनकर डरता है 
वो भांप लेता है 
मन के राग के आलाप 
जो बज रहे होते है 
बिना लय सुर ताल के 
इन ख़्वाबों को देखते हुए 
न रूह थकती है और न आँख 
दोनों ही करती है इन्तजार
एक ऐसे ख़्वाब के सच होने का 
यही इन्तजार बनता है जीने की वजह 
मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने में ऐसे ख़्वाब 
ईश्वर के नियोजित षडयन्त्र का हिस्सा होते है 
क्योंकि 
ऐसे ख़्वाब कभी पूरे नही होते 
बस उनका अधूरापन 
उन्हें न कभी बूढ़ा नही होने देता
और न मरने देता है।

© डॉ. अजीत

मुड़ना

कई बार
लौट कर शुरू करना चाहतें है
वहीं से
जहां से मिले थे
और चले थे साथ
अतीत की यात्रा
एक तरफा होती है
वहां केवल जा सकते है
आने के दरवाजे बंद कर देती है
सुखद स्मृतियां
वर्तमान की खीझ
अतीत पर नही लाद सकते
इसलिए भविष्य से डर जाते है
अचानक
फिर भटकते है
भूत वर्तमान और भविष्य के जंगल में
बेहद अकेले
अतीत मासूम
वर्तमान षडयंत्रकारी
और भविष्य उलझा हुआ लगता है तब
कभी खुद को प्रश्न उत्तर से छलते तो
कभी समझदार होने का अभिनय करते
अतीत सदैव आकर्षित करता है
वर्तमान की कीमत पर
भविष्य को नेपथ्य में धकेल
जीना चाहते है वे कुछ पल
जब सब कुछ कितना
साफ़ सहज और सरल था
यात्रा का मध्यांतर
उलझने पर
आरम्भ के चंद कदम याद आतें है अक्सर
चलते चलते पीछे मुड़कर देखना
शायद आदत या आस नही
एक किस्म की मजबूरी होती है।

© डॉ. अजीत

Monday, December 22, 2014

उसका कहना

उसका कहना मेरा बहना...
----
अक्सर उसने
बिछड़ते वक्त कहा
ख्याल रखिए अपना
मगर
कैसे रखा जाता है
ख्याल खुद का
यह नही बताया
शायद ज्यादा समझदार
समझती रही मुझको।
***
एक दिन उसनें कहा
तुम बुद्धु हो निरे
मैंने कहा
मै तो खुद बुद्ध समझता हूँ
फिर वो हंसती रही और बोली
अब पक्का यकीन हो गया है।
***
अक्सर वो कहती
डोंट ट्राई टू बी ओवरस्मार्ट
और मै कहता
कभी ऐसा बनने की जरूरत
महसूस नही हुई तुम्हारे साथ
वो खुश हो कहती
होगी भी क्यों
हम दोनों ही बेहद स्मार्ट है।
***
एक दिन वो जिद करके बोली
मेड फॉर ईच अदर का अर्थ समझाओं
मैंने कहा जिस दिन
कुछ समझाने की जिद न रहे
उस दिन खुद समझ जाओगी
इसका अर्थ
पहली बार
मेरे जवाब से संतुष्ट थी वो।
***
अक्सर वो कहती
तुम इतने आउटडेटड क्यों हो
मै चुप रह जाता
समझ भरे लहजे में वो कहती
चलो जो भी हो
बेहद अच्छे हो तुम
ऐसे ही रहना।
***
कई बार वो बातों में
अपनी शर्ते लगाती
और कहती
यूं है तो ठीक है
तब मै उसकी बात मान लेता
अगले ही दिन वो कहती
कल मै गलत थी
फिर भी तुमनें क्यों मानी
मेरी बात
मै मुस्कुरा भर देता
वो समझ जाती
रिश्तें की ख़ूबसूरती।
***
कभी कभी वो
बच्चों की तरह
अटक जाती एक ही बात पर
तब उसको समझाना पड़ता
बड़प्पन का दुःख
वो बचपन को जीते हुए
समझने का अच्छा अभिनय करती
मगर मै पकड़ लेता
उसका छूटा हुआ सुख।
***
अचानक उसनें एक दिन कहा
तुम बहुत समझदार हो
तुम्हारे काबिल नही हूँ मै
वो दिन मेरी समझ के लिहाज़ से
सबसे निर्धन दिन था।
***
एक दिन उसनें चिढ़ कर कहा
तुम बहुत इरिटेट करते हो कई दफा
मुझे थोड़ा बुरा भी लगा
वो मेरा मन पढ़ते हुए बोली
ज्यादा महान मत बनो
इरिटेट मै भी बहुत करती हूँ
चलों हिसाब बराबर हुआ
चाय पीतें हैं चलकर।
***
उसके अंदर बसते थे
कई किरदार
उसकी बातों में होती थी
किस्म किस्म की खुशबू
उसको समझना
खुद को समझने जैसा था
उसकी अनुपस्थिति में
उसको जान पाया
यह मेरे जीवन का
स्थाई खेद है।

© डॉ. अजीत 

गलतफहमियां

पांच गलतफहमियां...
------

पढ़ा है
इबोला जान लेकर रहता है
सम्भव है इसमें
वैज्ञानिक सच्चाई हो
अनुभव कहता है
अबोला जानलेवा होता है
मनोवैज्ञानिक सच है यह
भोगा है जिसे कई बार।
***
सुना है
वक्त हर जख्म भर देता है
मगर
कुछ जख्म बढ़ते वक्त के साथ
गहरे होते जाते है
वक्त उन्हें ताजा रखता है
मनुष्य को बैचैन देखना
वक्त का प्रिय शगल है।
***
देखा है
वक्त और इंसान को
बदलते हुए
बदलाव एक प्रक्रिया है
जिसकी गति संदिग्ध होती है
परन्तु
परिणाम निश्चित।
***
जाना है
तुम्हें अपना हिस्सा
इसलिए
तुम्हारा अधूरापन
मेरे एकांत का
छोटा भाई है
जो साथ लड़ते लड़ते
प्रेम करना सीखते है
अक्सर।
***
माना है
खुद को कमतर
तुम को बेहतर
इसलिए
दोष दिया/माफ़ किया
खुद को खुद ही
बिना तुम्हें बताए।
***
© डॉ. अजीत 

Friday, December 19, 2014

ईएमआई

अंतिम आठ ईएमआई...
-----

मेरे हिस्से का खर्च लौटाकर
तुम तटस्थ होना चाहती हो
भूल जाती हो
तुमसें कारोबार का नही
दिल का रिश्ता था
सच में लौटाना चाहती हो कुछ
तो लौटा दो साथ बिताएं लम्हें
शायद हो जाए फिर
हिसाब किताब बराबर।
***
तुम्हारा
पलायन अनापेक्षित था
ठीक जैसे
तुम्हारा मिलना भी
तुमनें हर बार चुनी सुविधा
मेरे माथे पर
असुविधा का विज्ञापन छपा था।
***
सिमटना और बिखरना
तुम्हारी एक फूंक पर
निर्भर था
शाम होने से पहलें
तुमनें शमां बुझा दी
अंधेरा हम दोनों के बीच
हिस्सों में पसर गया था।
***
हम खर्च होते रहे
शब्दों के जरिए
मौन रहकर
बचायी जा सकती थी
रिश्तों की जमा पूंजी।
***
तुमनें पढ़ा था
सम्बन्धों का भूगोल
अर्थशास्त्र के साथ
मेरा विषय
मन का विज्ञान था
दर्शन के साथ
असंगत विषयों का विमर्श
निष्प्रोज्य हो जाता है अक्सर।
***
दोष तय करना
उपचारिक प्रयास था
दोनों ने तय किए
अपनें अपनें हिस्सें के
अपराध और सजा भी
ऐसे मुकदमें
विचाराधीन रखना भी
मुश्किल था दोनों के लिए।
***
अच्छी बात यह थी
उम्मीद बाँझ नही हुई थी
वक्त के यहां गिरवी रख बैचेनियां
दोनों देखें गए थे
प्रार्थनारत
अपनें अपनें
निजी मंदिरों में।
***
चाहा था हंस पातें
अपनी भावुक मूर्खताओं पर
देख पातें विस्मय से
एक दुसरे की कमजोरियां
सम्बन्धों की प्रयोगशाला में
दो असफल वैज्ञानिक थे हम
स्नेह सम्बल के पुरूस्कार से वंचित।

© डॉ. अजीत

Thursday, December 18, 2014

शून्य सफर

शून्य से शून्य तक: दस सफर
----

एक विराट शून्य
तुम्हारी ऐडी बना गई
वापिस लौटते समय
तुम्हारे पदचिन्ह
मानचित्र थमा गए
निर्वासन के टापू का।
***
पीड़ाएं जो दी
शब्दों ने
भूल गया हूँ
नही भूल पाता
तुम्हारा लहज़ा।
***
तुम्हारी तटस्थता
एक युक्ति थी
मेरी निकटता
एक बिखरी हुई सच्चाई
तुम देख पाई
अपने हिस्से का सच
त्रासद बस यही था।
***
देह के गलियारें
स्पर्शों के मुहाने मिले
दो आईनें
नही देख पातें
आपसे में
एक दूसरे के चेहरें
आइनों और रिश्तों का सच
मिल जाता है कई बार।
***
सही या गलत
पाप या पुण्य
सच या झूठ
सबके अपनें अपनें
संस्करण
अपनें अपनें मुकदमें
कुछ असहमतियां
सम्प्रेषित नही हो पाती
शब्द भरम बन जाएं
ये ब्रह्म की चाल है।
***
मन का रास्ता
बुद्धि से छोटा था
और बुद्धि
भटकाव की शिकार
निर्णय सब के सब संदिग्ध
तुम्हारी आश्वस्ति
मेरी आसक्ति
डराती थी बस।
***
तुम्हारी हथेलियों पर
नही तलाश पाया
अपनत्व का नक्शा
बतौर यायावर
यह सबसे बड़ी
अज्ञात असफलता है।
***
तुम्हारी लौटती परछाई
देख रही थी
मेरी तरफ
पहली दफा देखा
पीठ पर उगती
आँखों को।
***
तुम्हारे उद्देश्य
स्पष्ट थें
और अभिव्यक्तियां अमूर्त
मेरे अनुमान गलत थे
और
कल्पनाएं सच।
***
तुम्हारे बाद
करना पड़ा खुद को खारिज़
सोचना पड़ा
अपनें निर्णयों पर
सुख हो या दुःख
अतीत को सम्पादित करना चाहते है
मजबूर मनुष्य
ईश्वर का कद बड़ा करता है
यही जाना तुम्हारे बाद।

© डॉ. अजीत

ताप प्रलाप

ताप के दस प्रलाप...
----

सारे चयन तुम्हारे थे
मिलना
नही मिलना
कभी-कभी मिलना
कभी नही मिलना
मै था
तुम्हारे मन के
अघोषित निर्वात का
ऐच्छिक स्थान पूरक
ये व्याकरण
समझ तो रहा हूँ
मगर स्वीकार नही पा रहा हूँ
अल्पबुद्धि के अल्पविराम
तलाशता हूँ
अपने एक तरफा
अपनेपन में।
***
सन्देह
ज्ञात उत्तर था
कल्पना
स्वयं एक प्रश्न
विवेचना
अर्जित ज्ञान की सीमा
अनुभव
धारणाओं के
बंधुआ मजदूर
और हम तुम
अज्ञानी
मानस वैज्ञानिक
सम्पादक अपनी अपनी
असुरक्षाओं के।
***
अभिलाषा की पूर्णता
अप्राप्यता की दासी लगी
और प्राप्यता
वर्जनाओं के द्वारपाल
इधर तुम कामनासिद्ध हुई
उधर तुम्हारे जीवन में
मै अप्रासंगिक
विकर्षण बना
बोध का अवैध पुत्र।
***
शब्दों का हिसाब
दिया जा सकता है
क्षणों को विस्मृत
किया जा सकता है
परन्तु
कुछ भाव जो केवल
तुम्हारे लिए जन्में थे
उनका स्थगन
किसी उच्च न्यायालय से
नही मिलता
उनकी इच्छामृत्यु की अर्जी
दाखिल करता हूँ
अज्ञात अदालत में
शायद अनुमति मिलें
और मृत्यु हो कम कष्टकर।
***
तुम्हारे आने ने
जितना सरल किया था
तुम्हारा जाना
उतना ही
जटिल कर गया है मुझे
अब शब्द बेफिक्र
बहते नही हवा से
सावधान हो
सड़ते जाते है
स्थिर जल से।
***
जानती हो
दुनिया में सबसे बड़ा
दुःख क्या है
बार बार खुद को
इस उम्मीद पर ठगना कि
दुनिया तुम्हें
ठीक से समझ रही है
दरअसल
दुःख मनुष्य की
भावुक मूर्खता का
ऐच्छिक चुनाव का प्रतिफल है।
***
खेद यह भी है
तुम ईश्वर के उस षडयन्त्र का
हिस्सा बनी
जिसमें वो
देखना चाहता है मुझे
हताश
दुःखी और
आत्महन्ता।
***
तुम्हारे अचेतन की
आदर्श कामना का
प्रतिबिम्ब
मुझे प्रकाशित करने की बजाए
क्षणिक आवेग का
हिस्सा बन
चल गया था अपनी चाल
मैं हंस रहा था दृष्ट भाव से
तुम रो रही थी
उसे पाप समझ।
***
निसन्देह
तुम्हारे प्रश्न
नैतिक थे
उनके उत्तर
दर्शन की शाखाओं से उड़
मनोविज्ञान की गोद में
लोरी सुन रहें थे
अपराधबोध में
तुमनें उनको जगाया
ये तुम्हारा अपराध है
इन्तजार करती
उनके नींद से जागने तक।
***
एक बूढ़ा स्वप्न देखता हूँ
जवानी के दिनों में
जब उम्र न बढ़ें और न घटे
इस अवस्था में
उस स्वप्न को
अतृप्त कामना नही कह सकता
क्योंकि उस स्वप्न में
तुम स्वीकारती हो
मुझमें बिना शर्त रूचि का होना
गौरतलब हो
मैं स्वप्न की बात कर रहा हूँ
यथार्थ की नही।

© डॉ. अजीत

Tuesday, December 16, 2014

ख़्वाब

यादों के बरक्स
महकतें है लम्हें
कुछ पुरकशिस
अहसास रिसते है
आहिस्ता आहिस्ता
स्पर्शों की महक
कपूर की डली बन
उड़ने लगती है
बहकती ही साँसे
नशे की तरह
देह की पीठ पर बैठ
मन करता है बातें
सिमटने लगता है वजूद
धड़कनो का बढ़ना
नब्ज़ का धीमा होना
तुम्हारी यादों के हवाले से
मन के नाद को सुनना
जहां तुम समाधिस्थ
उच्चारित करती हो
मेरा नाम
भोर के मंत्र की माफिक
काया के पुल पर
साँसों का विनिमय
कभी निशब्द
कभी बुदबुदाता
कभी मौन
तुम्हारी यादों के
बैरंग खत
लौट आते है
हर इतवार
जिन्हें चुपके चुपके
पढ़कर
कर देता हूँ
ख्वाबो के हवाले
ख़्वाब तुमसें मिलनें की
ब्रह्माण्ड की सबसे
सुरक्षित जगह है।

©डॉ.अजीत

वक्त के आरपार

वक्त के आर-पार...
-------

चौंबीस घंटे का
एक नियत चक्र
और रोज़ शाम
तुम्हारी याद की दस्तक
जैसे
हिस्सों में बंटना
किस्तों में कटना
तुमसे अधूरा ही मिलना होगा
इस जन्म में।
***
थोड़ी रात के ख़्वाबों की तसल्ली
थोड़ी सुबह की चाय
थोड़े दोपहर के काम
चार बजे तक खींच लाते है
शाम आती है
चाय पर तुम्हारा इंतजार करता हूँ
तुम्हारा न आना निश्चित है
मुझे जीवन में
अनिश्चितता से
इसलिए भी प्रेम है।
***
रात को सोने
सुबह को जागने
और दिन में भागने के बीच
तुमसे कब मुलाक़ात हो
सोचता रहा हूँ अक्सर
वक्त का बीतना
खुद के साथ
सबसे हसीन धोखा है।
***
दीवार पर टंगी घड़ी
डरा देती है कई बार
उसकी आवाज़ कहती है
तुम नही तुम नही तुम नही
एक घड़ी मन की दीवार पर टंगी है
जो कहती है तुम हो तुम हो तुम हो
मैं इन दोनों घड़ियों का
वक्त मिलाता रहता हूँ।
***
वक्त गुजरता नही
फिसलता भी
तुम्हारे साथ अक्सर
वक्त कम पड़ जाता है
और खुद के साथ
अक्सर ज्यादा
जैसे शाम होते होते ही होती है।
***
तुम्हारी कलाई पर बंधी घड़ी
मेरे घड़ी से आगे है
और मेरी घड़ी का दावा
आगे होने का है
समय के अपने
षडयन्त्र होते है
मनुष्य को अप्रासंगिक सिद्ध करने के।
***
तुम्हारी हंसी
सूरज पर उधारी चढ़ाती है
कायनात की रोशनी में
तुम्हारा भी हिस्सा है
मै सितारों से अवसाद मांगता हूँ
उनकी प्रकाश वर्ष में दूरी है
मगर वो जलते बुझते दिखते है
मेरी तुमसे दूरी ज्ञात है
मै न जलता हूँ
और न बुझता हूँ।
***
अच्छा वक्त या बुरा वक्त
होता भी है
समझ नही पाता हूँ
वक्त का होना प्रमाणिक लगता है
जब तुम साथ होती हो
तुम्हारे बिन
वक्त घड़ी में दौड़ता है
मगर नजरों में खो जाता है।
***
मौसम और वक्त को जोड़कर
अनुभूत करना मुश्किल लगता है
तुम्हारे सत्संग से
बिगड़ जाता है
मन का भूगोल
जलवायु को उलट देती हूँ तुम
दिसम्बर में तुम्हें याद करते हुए
मेरे माथे पर पसीना है।
***
वक्त बेहद चालाक है
ये बाँट देता है
खुशी गम रंज के घंटे
इनमें उलझाकर
तुमसे दूर करने के
तमाम जतन करता है
मै अगले दिन को उधार मांग
तुम्हें याद करता हूँ
मानों चाहे न मानों
इस मामलें में तुमसे
एकदिन बड़ा हूँ मैं।

© डॉ. अजीत

वापसी

लौट कर आना
एक उपक्रम है
जो नही लौटते
खो जाते है
दुनिया केवल
दिखते चेहरों का
हिसाब रखती है
खो जाने में और
मर जाने में कोई
बड़ा बुनियादी फर्क नही है
दोनों की ही स्मृतियों को
धीरे धीरे वक्त
चट जाता है
शेष बचती है
गुमशुदा लोगो की
फेहरिस्त वो भी
दीमक खाए मन के
नोटिस बोर्ड पर।

© डॉ. अजीत

वापसी

लौट कर आना
एक उपक्रम है
जो नही लौटते
खो जाते है
दुनिया केवल
दिखते चेहरों का
हिसाब रखती है
खो जाने में और
मर जाने में कोई
बड़ा बुनियादी फर्क नही है
दोनों की ही स्मृतियों को
धीरे धीरे वक्त
चट जाता है
शेष बचती है
गुमशुदा लोगो की
फेहरिस्त वो भी
दीमक खाए मन के
नोटिस बोर्ड पर।

© डॉ. अजीत

Saturday, December 13, 2014

बारिश

बारिश और तुम
----
अनजान शहर
बेमौसमी बारिश
सर्दी का मौसम
एक साथ इतने षडयंत्र
देखकर डर जाता हूँ
कभी खुद को याद करता हूँ
कभी तुम्हें
ईश्वर इस बात पर नाराज़ है।
***
बाहर बारिश का शोर है
एक शोर अंदर है
दोनों शोर मिलकर
रचते है विचित्र आलाप
जिसमें शास्त्रीयता तलाशता हूँ मैं।
***
बारिश आसमां से
बगावत कर रही है
कुछ बूंदे मांगती है पनाह
इनकार में
मै सुबक पड़ता हूँ
तुम्हें याद करके।
***
टिप टिप पड़ती बूंदे
बेघर है
बह रही है ढलान के साथ
यह देख
सूख जाते है आंसू
पलकों की हदों में।
***
दरवाजें बंद है
और खिड़कियाँ भी
कुछ बूंदे
एक झोंका
आता है देखने
सोया कि जाग रहा हूँ मैं।
***
बिस्तर पर
बैचैनियों की सिलवटें है
और ठंड की नमी
एक तकिये का एकांत
चिंतित करता है
करवट लेकर आश्वासन ओढ़ता हूँ।
***
धड़कनें दौड़ती है
कम ज्यादा
बाहर पानी है
गीले पैर
लौट आती है
दिल का तापमान
शून्य से नीचे चला जाता है।
***
बारिश इसलिए भी
खराब लगती है
ये ख्वाहिशों को
मरने नही देती
और उनका मरना
जीने की अनिवार्य शर्त है।
***
बादल खुद नही आ सकता
धरती से मिलनें
तो भेज देता है
खुद के आंसू
बारिश की शक्ल में
ये ठंड दरअसल
बादल के नम दिल की
ठंडक है।
***
और तुम
बारिश होने पर खुश हो
तुम्हारी खुशी
कभी कभी
कितनी भारी गुजरती है
मुझ पर
अंदाज़ा भी है तुम्हें।

© डॉ. अजीत

Friday, December 12, 2014

पॉज़

तो चलूँ
हम्म !
नही..
चलों जाओं
मिलतें हैं।
***
मुश्किल है
हम्म..
अब
देखतें है
देख लेना।
***
सुनों
क्या है यह
पता नही
बनो मत।
***
अच्छा !
बहुत बढ़िया !
खुश रहो
मेरी फ़िक्र छोड़ो।
***
क्या !
पागल हो गए हो
हाँ !
तुम्हारा कुछ नही हो सकता।
***
क्या है !
फिर
मेरी बला से
सुनों ना
सुन लिया
फोन रखो।
***
कहां हो
यहीं
नहीं
क्यों
ओके बाय।
***
ऐसा कैसे
अच्छा
रहने दो बस
ठीक है
जैसी तुम्हारी मर्जी।
***
अरे सुनो तो सही
सुन रही हूँ
हम्म
हो गया
झूठ बोलना
सीख लो पहले किसी से।
***
प्लीज़
ओके
अब
कुछ नही
जस्ट ग्रो अप !
बच्चें नही हो तुम।

© डॉ. अजीत

डिस्क्लेमर: ये कुछ टूटे हुए सम्वाद है इनके कविता होने का मेरा कोई दावा नही है। काव्य समीक्षकों से अग्रिम मुआफ़ी।शब्दों के पॉज़ के बीच बहती कविता यदि आप जी पाएं तो लिखना सफल है बाकि अच्छा बुरा सब मेरा है।



गज़ल

कभी कमजोरी थी तुम अब ताकत बना लिया
दिल को आज  हमनें मुस्तकिल समझा लिया

दुनिया भर की हंसी में तुम्हें कहां तलाशते हम
घर की दीवार पर तेरा एक फोटो सजा लिया

रोशनी के सफर में अंधेरों से तुमने दोस्ती की
तुम्हें नजर आ जाएं इसलिए दिल जला लिया

तेरी महफ़िल में तन्हाई का किरदार मिला हमें
हर बार बहाना करके तुमनें हमको बुला लिया

कभी खुद को भी सता कर देखों एक लम्हा
हमारा दिल तो तुमनें जी भर के सता लिया

© डॉ. अजीत

Wednesday, December 10, 2014

आग

एक आग जलती है
सीलन इतनी ज्यादा है
ताप को धुआं निगल जाता है
जलने का मतलब
प्रकाश ही नही होता है हर बार
कुछ आग अंधेरे में भी जलती है
जिसके ताप में
कतरा कतरा पिंघलते जाते है हम
रोशनी की आस में
ताप खो जाता है
खुद ही जलते है और
खुद को ही जलाते है
मन की दहलीज पर
इस आग की अंधी रोशनी होती है
वक्त हमें सेंकता है
अपनी शर्तों पर
समझदारी इसी को
कहते है शायद।

© डॉ.अजीत

Tuesday, December 9, 2014

बोलचाल

चंद लड़ाईयां वाया बोलचाल
----
उसने कहा कॉफी
पियोगे
मैंने कहा नही
मुझे चाय पसंद है
उसने चाय और कॉफी मिलाकर बनाई
अब ना वो चाय थी ना कॉफी
उसकी ऐसी जिद
हैरानी और प्यार से भरती थी मुझे।
***
उसने कहा
वेज खाते हो या नॉन वेज़
मैंने कहा शुद्ध शाकाहारी हूँ
फिर उसने
नॉन वेज मेरे सामने बैठकर खाया
मगर बोन लैस।
***
उसने कहा
चाय पीते वक्त
आवाज़ बहुत करते हो तुम
मैंने कहा हां आदत है
फिर उसने कहा
ये आदत कभी मत छोड़ना
चाहे मै भी कहूँ।
***
उसने कहा
रुमाल क्यों नहीं रखते तुम
मैंने कहा
आदत नही है
उसने कहा
हर वक्त मेरे पास
कॉटन का दुपट्टा नही होता है
आदत बदल लो अपनी।
***
उसने कहा
फोन क्यों नही रिसीव करते तुम
मैनें कहा
वाइब्रेशन मोड पर था
उसने कहा ये मोड बदलों जल्दी
फोन को रखों रिंगिंग मोड पर
और खुद को वाइब्रेशन मोड पर
आजकल तुम्हें महसूस नही पा रही हूँ मैं।
***
उसने कहा
कंधे झुकाकर क्यों चलतें हो
मैंने कहा कद की वजह से
उसने कहा
कद हद पद की परवाह मत किया करों
परवाह ही करनी है तो
मेरी गर्दन की करों
जो तुम्हारी वजह से हमेशा
ऊंची रहती है।
***
उसने कहा
बहुत कम बोलते हो
इतना चुप रहना अच्छा नही होता
मैंने कहा
ऐसा ही हूँ मै
उसने कहा
ऐसे ही रहना हमेशा
तुम्हें बदलना नही
तुम्हारे संग संवरना चाहती हूँ मैं।
***
उसने कहा
बाल बहुत छोटे रखते हो
फौज़ में भर्ती होने का
कोई अधूरा सपना है क्या
मैंने कहा
नही लम्बें बाल पसन्द नही है
उसने अनमना होकर कहा
कभी दुसरे की पसंद का भी
ख्याल रखना चाहिए तुम्हें।
***
उसने कहा
तुम इतने बोरडम से
क्यों भरे रहते हो
मैंने कहा
भरा हुआ ही तो हूँ
खाली तो नही हूँ
उदास होकर वो बोली
थोड़ी जगह खाली करों
मुझे आना है अभी इसी वक्त।
***
उसने कहा
मुझसे कभी मत मिलना
आज के बाद
मैंने कहा
ठीक है जैसी तुम्हारी मर्जी
वो गुस्सें में भी हंस पड़ी
और बोली
मेरी मर्जी की परवाह करने वाले से
एक बार तो मिलना ही पड़ेगा।

© डॉ. अजीत

Monday, December 8, 2014

सच

सात अधूरे सच
----

यात्रा बिंदु से बिंदु की है
चित्र में
वृत्त आयत वर्ग रेखा
हो सकता है
कोई एक
निर्भर करता है
समय की सुखद
अनुकूलताओं पर।
***
सच और झूठ
एक ही बात या घटना के
दो संस्करण है
हमारा चयन कितना
तटस्थ है
यह नितांत की
संयोग का मसला है।
***
विश्वास छल का
बंधुआ मजदूर है
जो जितने छले गए
उतने बड़े अविश्वासी
और उतने बड़े
विश्वासी।
***
समय रचता है भरम
मनुष्य रचता है अपेक्षा
दोनों मिलकर
देखना चाहते है
मनुष्य को मजबूर।
***
जन्म और मृत्यु
मनुष्य के निर्वासन के
मध्य की यात्रा है
उस निर्वासन की
जिसे ईश्वर देता है
वरदान की शक्ल में।
***
अतीत का मोह
वर्तमान को जीने नही देता
भविष्य की चिंता
वर्तमान को मरने नही देती
समय के सारे षडयंत्र
वर्तमान के विरुद्ध होते है।
***
खुद को तलाशना
बाहर
खुद से भागना
अंदर
खुद से अज्ञात रहनें के
आसान तरीके है
मनुष्य जिन्हें पसन्द
करता है बेहद।

© डॉ. अजीत

चुप

चुपचाप हो जाना
अचानक से
समझदार बनने जैसा है
कुछ चुप्पियाँ
नासमझी की भी होती है
कहते हुए याद आता है
ख़्वाब के बिछड़नें से बड़ा दुःख
ख़्वाब बदलनें का होता है
वक्त की करवट
आहस्ता कोण बदलती है
पीठ पर उगे
शंकाओं के जंगल से गुजर कर
चेहरा नही देखा जा सकता
भले वो आंसूओं से तर हो
सहसा टपकी बूँद
मौसम का अनुमान बिगाड़ देती है जैसे
ठीक वैसे ही
एक चुप बदल देती है
संबंधों का बीजगणित
खुद के प्रश्न खुद के उत्तर से हमेशा
बड़े पाये जाते है
सांसों का अंदर बाहर होना
एक भौतिक प्रक्रिया है
उनके अंतराल को गिनने लगना
एक यौगिक
कहे अनकहे के बीच
शब्दों को वापिस निगलना
अज्ञात किस्म का योग है
मौन और चुप के मध्य
ऊब का आश्रम है
वहां सुस्ताते हुए
नींद नही आती
वहां जो अनुभूतियां होती
उसे योग्यतम शिष्य से भी नही
बांटा जा सकता
रिक्तता से उपजी ऊर्जा का
शक्तिपात खुद पर कर
भस्म या चैतन्य हो जाना
खुद को बचाने का
एकमात्र अज्ञात तरीका है।

© डॉ. अजीत


Friday, December 5, 2014

सात दिन

'वो सात दिन...'
----

उसने अचानक कहा
अपनी कविताओं को नीचे
कॉपीराईट का निशान क्यों लगाते हो
मैंने कहा
कोई उन्हें चुरा न सकें इसलिए
फिर वो उदास होकर बोली
मेरे लिए भी कभी
कुछ ऐसा सोच लिया करो।
***
उसने लगभग
चिल्लातें हुए कहा
तुम खुद को समझते क्या है
मेरी हंसी छूट गई
और हंसते-हंसते बोला
आधा अधूरा इंसान
वो चिढ़कर बोली
जो हो वही रहो
मोहन राकेश न बनों।
***
उसने एक दिन
चाय का कप थमाते हुए कहा
तुम दिन ब दिन नापसन्द होते जा रहे हो
मैंने चाय की घूंट भरी और कहा
बढ़िया है
फिर से नए सिरे से पसन्द करना मुझे
वो इतनी हंसी कि चाय न पी पायी।
***
उसने एक दिन
हंसते हुए कहा
तुम्हें भूलना आसान नही है
उस हंसी में एक फ़िक्र घुली थी
उसके बाद
मै हंसना भूल गया।
***
उसने एक दिन
चिंतित होकर कहा
बाल उड़ते जा रहे है तुम्हारें
इतना मत सोचा करो
मैंने कहा
सच्ची ! छोड़ देता हूँ
फिर बोली
मेरे बारें में जरूर सोचते रहना।
***
एक शाम उसने
चिढ़कर कहा
तुमसे मिलना मेरी सबसे बड़ी भूल थी
मैंने कहा
भूल सुधार में मदद करूँ कुछ
वो बोली बनो मत !
इस भूल का कोई अफ़सोस नही है मुझे।
***
एक दिन उदास होकर
उसनें कहा
अब तुमसे मिलना सम्भव नही होगा
उस दिन
मै भी चुप हो गया
मेरी हाजिरजवाबी जवाब दे गई थी
उस दिन उदासी का सही अर्थ समझ पाया।

© डॉ. अजीत



रात

खो जाता हूँ रोज रात
सुबह तुम्हारी ध्वनि
कान में कहती है
खोना नही जीना है
खोना मेरी नियति है
और जगाना तुम्हारा प्रारब्ध
हमारा मिलना कहा जाएगा
ब्रह्माण्ड का षडयंत्र
महज बोलने से रात्रि
शुभ नही हो जाती
मेरे कान रोज़
दिल और दिमाग को
भड़काते है
तुम्हारी शुभकामनाओं के खिलाफ।

© डॉ. अजीत 

Wednesday, December 3, 2014

चंद आवारा ख्याल

चंद आवारा ख्याल...
---

ऐसे भी खो जाता हूँ
किसी दिन
जैसे बाथरूम में
तुम्हारा हेयरपिन।
***
भरता रहता हूँ
आहिस्ता-आहिस्ता
मन की पींग
जैसे हंसते हुए हिलते है
तुम्हारे इयररिंग।
***
नही बांधता कोई
स्नेह के बंधन
रहता हूँ ऐसे
जैसे
चूड़ियों के बीच
तुम्हारे कंगन।
***
मेरी खिड़की पर
बरसते है कभी कभी
ऐसे भी बादल
जैसे
आंसूओं के बीच
तुम्हारा फैला हो काजल।
***
भीगें पर से अक्सर
भरता हूँ मै उड़ान
जैसे
तुम्हारी अधूरी मुस्कान।
***
उड़ जाते है
तुमसें मिलनें के सारे ख्याल
जैसे
धूप में सूखते तुम्हारे बाल।
***
आईना देख आती है
कभी कभी  मुस्कान
जैसे
तुम्हारे चेहरे की थकान।
***
यादें तुम्हारी
रखती है मुझे एवरग्रीन
जैसे
सर्दी में ख्याल रखें तुम्हारा
तुम्हारी कोल्ड क्रीम।
***
बातें लगने लगती है मुझे
कभी कभी बेहद झूठी
जैसे
तुम्हारी अनामिका की
मैली अंगूठी।
***
पढ़ता हूँ
तेरी खुशबू में रंगे
पुराने खतों की
खूबसूरत लिखावट
जैसे
तुम्हारे तराशे गए नाखूनों की
हो बुनावट।

© डॉ. अजीत

यक्ष प्रश्न

हम उनकी गोद से
परित्यक्त प्रेमी थे
न हमें उनकी
उंगलियों की कंघी नसीब हुई थी
और न धूप में आंचल
हमारी पवित्र भावनाएं
झूठ और षडयंत्रो का पुलिंदा साबित हुई
हमारे होठ लगभग सिले हुए थे
उन पर शिकायतों की झूठी मुस्कान थी
बेहद सच्ची दिल की बातों को
अन्यथा लिए जानें के लिए शापित थे हम
तपते दुखते माथे को कभी
नसीब नही हुए उनकी जुल्फ के साए
हम प्रेमी थे भी या नही
इस पर सबको सन्देह था
शंका संदेह की कमान पर कसा रहा प्रेम
और घायल होते रहे हम
हमारी हथेलियों पर नीरसता का सीमेंट पुता था
हाथ मिलाते वक्त बेहद बोझिल होते थे हम
गले लगने से पहले
हीनता का जंगल हमारी छाती पर उग जाता था
तमाम विडम्बनाओं के मध्य
प्रेम को जीवित रखने के लिए
देते रहें हम खुद की बलि
इस उम्मीद पर कि
प्रेम बदल देता है इंसान को
किसको कितना बदला
मुश्किल है बता पाना
एक चीज़ जरूर बदल गई
अब कुछ बातों का बुरा लगने लगा था
हमारे आसपास उग आया था अब
विविधता भरा शुष्क जंगल
जहां प्रेम को तलाशना
खुद को खोने के जैसा था
अपनी गुमशुदगी को दर्ज कराना
अब अनिवार्य नही था
क्योंकि
दिल और दिमाग से निर्वासन जीते हुए हम
भूल गए थे
खुद की ठीक ठीक पहचान
हम परित्यक्त प्रेमी जी रहे थे
अपनेपन के बीच
शूद्रों से भी बदतर जीवन
प्रेम निसन्देह नई सामाजिक असमानता का जन्मदाता था
कोई आरक्षण जिसे खत्म नही कर सकता
एक ऐसी असमानता का हिस्सा थे हम
सम्बन्धों के समाजशास्त्र का सबसे
खतरनाक पक्ष यही था
सतत साथ चलते जाना अजनबीपन के साथ
और पहुँचना कहीं भी नही
हम कुछ प्रेमी इसे जीने ढोने के लिए
प्रकृति द्वारा सबसे उपयुक्त पाएं गए
ये बात हमारा दिल दुखाती रहेगी उम्र भर
न्याय अन्याय से परे
हम इस युग का नया सामाजिक सच बनें थे
समझ नही आता था
इस पर गर्व किया जाए या कोसा जाए खुद को
एकांत के सन्नाटे में
ये हमारे दौर का सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न था।

© डॉ. अजीत

कहा सुनी

'दस कहा-सुनी'
----

मैंने कहा
थोड़ा उलझ गया हूँ
सुलझा दो
उसने कहा
तुम उलझे हुए ही
अच्छे लगते हो
ये उस पल की
एक मात्र सुलझी हुई बात थी।
***
मैंने कहा
इतनी चुप क्यों हो
उसने कहा
तुम्हारे असर में हूँ
उसके बाद
देर तक हंसते रहें हम दोनों।
***
मैंने कहा
ऐसे कब तक चलेगा
उसने कहा
जब तक
डर को वक्त से नापना
नही छोड़ देते तुम।
***
मैंने कहा
तुम्हारी हंसी उधार चाहिए
वो बोली
मुस्कान ही दे सकती हूँ
हंसी तो खुद उधार लाती हूँ
तुम्हारे लिए।
***
मैंने कहा
चलों चलते है
उसके बाद
मंजिल पर जाकर उसने पूछा
अब किधर चलना है
ये मासूमियत यादगार थी।
***
मैंने कहा
क्या योजना है
भविष्य की
वो बोली
मै कुछ और हूँ तुम्हारी
प्रेमिका नही।
***
मैंने कहा
प्यार अधूरा ही रहता है अक्सर
वो हंसते हुए बोली
पूरा करके
खत्म नही करना है मुझे।
***
मैंने कहा
बिन मेरे रह सकोगी
उसने उदास होकर कहा
बिलकुल
समझदारी में
तुमसे कम नही हूँ मैं।
***
मैंने कहा
बिछड़ना शाश्वत है
वो बोली
जानती हूँ  मिलने से पहले से
कोई नई बात कहो
दर्शन से इतर
थोड़ी रूमानी।
***
मैंने कहा
अच्छा लगता है
तुम्हारा साथ
उसनें कहा
यही एक समान बात है हमारी
बाकि सब तो
मतलब के भरम है।

© डॉ. अजीत

Tuesday, December 2, 2014

चाहतें

'चाहतों का बाईपास'
-----

बस इतनी सी चाहत है
मै जो कहूँ
उसे उतना ही समझ जाओं
बिना सन्देह शंका की
जोड़ तोड़ किए।
***
बस इतनी चाहत है
सुनों तुम
शब्दों के पीछे ध्वनि
जो रह जाती है
उपेक्षा के शोर में गुम।
***
बस इतनी सी चाहत है
घटा दो खुद से कभी
चौबिस घंटे
फिर बातें हो
सिर्फ बेफिक्र बातें।
***
बस इतनी सी चाहत है
कहो तुम
सब अनकहा
तुम खाली हो जाओं
और मै भर जाऊं।
***
बस इतनी सी चाहत है
साथ बैठकर पीएं
चाय से लेकर शराब
तुम्हारी नसीहतें हो
और मै हंसता चला जाऊं
बेहिसाब।
***
बस इतनी सी चाहत है
किसी दिन
तुम्हें सुबह सुबह देखूँ
बिना मुंह धोए हुए
तुम्हारी आँख खुले
और चाय का कप थमा दूं
तुम्हें।
***
बस इतनी सी चाहत है
तुम्हें खुश देखकर
मुझे डर न लगें
तुम खुशी को
सम्भालना सीख जाओं
आदतन।
***
बस इतनी सी चाहत है
दुआओं में इतना असर बचा रहें
तुम्हें खुदा पर यकीन
और मुझे खुद पर
होता रहे बार बार।
***
बस इतनी सी चाहत है
वक्त भले ही फिसलें
तो तुम खर्च न हो
तुम्हारी हंसी ब्याज़ की तरह
मिलती रहें
हर तिमाही।
***
बस इतनी सी चाहत है
सफर और मंजिल
दोनों दूर हो जाए
तुम्हारी नजदीकियां
यूं भी करीब आएं
मेरे।

© डॉ.अजीत

Monday, December 1, 2014

लेनदेन

दस लेन-देन...
----

देना चाहता हूँ तुम्हें
ख्वाबों की कतरन
एक मुट्ठी प्रेम
और थोड़ी उदासी
ताकि खुशी का मतलब
तुम मुझसे समझ सको।
***
देना चाहता हूँ तुम्हें
नूतन सम्बंधों की प्रमेय
जहां सिद्ध करने के लिए
समीकरण या सूत्र की नही
विश्वास की
आवश्यकता हो।
***
देना चाहता हूँ तुम्हें
चंद अधूरे ख्याल
जिन्हें तुम मुक्कमल करों
अपने अधूरेपन से।
***
देना चाहता हूँ तुम्हें
अपनी पलकों का विस्तार
अपनी आँखें मूँद
तुम देख सको
मेरे आवारा ख्याल।
***
देना चाहता हूँ तुम्हें
एक निमन्त्रण
तलाशी लो
जेब में सूखते ख़्वाबों की
बेफिक्री से देखूँ
तुम्हें उनका उपचार करते हुए।
***
देना चाहता हूँ तुम्हें
हस्तरेखाओं का मानचित्र
ताकि अपने स्पर्श से
साफ़ कर सको
उस पर ज़मी
वक्त की गर्द और नमी को।
***
देना चाहता हूँ तुम्हें
कुछ आधे लिखे खत
उन पर खुद का पता लिखों
और सुरक्षित कर लो खुद को
उनकी लिखावट के बीच।
***
देना चाहता हूँ तुम्हें
अन्तस् का पता
जहां आ सको
तुम निर्बाध
नंगे पाँव।
***
देना चाहता हूँ तुम्हें
वह सबकुछ
जो फिलहाल
मेरे पास भी नही है
जिंदादिली का
इससे बड़ा प्रमाण
नही है मेरे पास।
***
देना चाहता हूँ तुम्हें
धड़कनों को गिनने का काम
शर्ट के बटन से उलझते
तुम्हारे कान
दिल के शास्त्रीय संगीत के साथ
सुन सकें खुद का नाम।


© डॉ. अजीत

Friday, November 28, 2014

तुम्हारा साथ

तुम्हारा साथ: कुछ बात
-----

तुम्हारे साथ
वक्त ही नही बीतता
बहुत कुछ रीतता भी है अंदर
चाहता हूँ अंदर से भरना
तुम अंजुली भर के
एक खाली जगह
छोड़ देती हो हमेशा।
***
तुम्हारे साथ
घंटो बात करने के बाद भी
चूक जाता हूँ बहुत कुछ कहने से
इस तरह खुद को बचाता हूँ
एक नई मुलाक़ात के लिए।
***
तुम्हारे साथ
हंसते हुए पढ़ लेता हूँ
तुम्हारी उदासी
फिर लिखता हूँ
उन पर प्रेम कविताएँ
इतना मतलबी तुम समझ सकती हो मुझे।
***
तुम्हारे साथ
नजर तलाशती है
एक खुला आकाश
एक साफ़ मौसम
जहां उड़ सके
मन के परिंदे
बेपरवाह।
***
तुम्हारे साथ
मन की गिरह
वेणी की गिरह की तरह
उलझी होती है
जो सुलझती है
वक्त की कंघी से
आहिस्ता आहिस्ता।
***
तुम्हारे साथ
गिन सकता हूँ
छूटे लम्हों की कतार
उनसे करता हूँ
रिक्त स्थानों की पूर्ति
बिना किसी विकल्प के साथ।
***
तुम्हारे साथ
सीखा है
खुद को साधना
निर्जन गुफा सा एकांत मिला
तुम्हारे कहकहों के बीच।
***
तुम्हारे साथ
स्पर्शों ने जीया
पवित्रता का सुख
सम्वेदना ने जाना
देह से इतर
चेतना का अमूर्त पता।
****
तुम्हारे साथ
मौन और चुप का अंतर पता चला
हंसी और उदासी का रिश्ता समझ आया
जुड़ने टूटने की खरोंचों को देख पाया
लिखने और जीने का फर्क महसूस किया
ये साथ पूर्णविराम जैसा है
शंका सन्देह के प्रश्नचिन्ह के बाद।
***
तुम्हारे साथ
बीज से घना दरख़्त बना
बोझ को ढोना नही जीना आया
तुम्हारे साथ खुद से मिल पाया
तुम्हारे साथ की कृतज्ञता
शब्दों से व्यक्त नही हो सकती
यह मेरी सबसे बड़ी ज्ञात
असफलता है।
© डॉ. अजीत

Thursday, November 27, 2014

दस बातें

हमारी दस बातें : वाया सवाल जवाब
-----

मैंने पूछा
तुम मेरी क्या हो
आँख निकालते हुए
उसने कहा
बताना जरूरी नही समझती।
***
मैंने पूछा
खुशी किसे कहती हो
हंसते हुए बोली
तुम्हें और किसे।
***
मैंने पूछा
उदासी अच्छी लगती है
उसने कहा
हाँ खुद की
मगर तुम्हारी नही।
***
मैंने पूछा
डर लगता है कभी
उसने कहा
ख़्वाब नही देखती मै।
***
मैंने पूछा
मुझमे क्या पसन्द है
उसने कहा
जो दुनिया को नापसन्द है।
***
मैंने पूछा
मुझमें क्या नापसन्द है
उसने कहा
जेब में रुमाल न रखना।
***
मैंने पूछा
क्या चीज़ बिना सोचकर करती हो
उसने कहा
तुम पर विश्वास।
***
मैंने पूछा
किस बात को लेकर निश्चिन्त  हो
उसने कहा
तुम्हें एक दिन खोना है।
***
मैंने पूछा
जिंदगी को कैसे देखती हो
चश्मा उतार कर बोली
तुम्हारी आँखों से।
***
मैंने पूछा
कोई ख्वाहिश बताओ अपनी
उसने कहा
एक नही तीन है
कभी खुलकर हंसा करो
अकेले शराब मत पिया करो
कभी कभी मिलते रहा करो।

© डॉ. अजीत




Wednesday, November 26, 2014

उसने कहा

दस बातें उसकी...
---

उसने कहा
तुम झूठे हो
उसके बाद
झूठ और सच का
भेद समाप्त हो गया।
***
उसने कहा
तुम सच्चे हो
उसके बाद
झूठ पकड़ा जाने लगा।
***
उसने कहा
तुम्हें बदलना चाहिए
उसके बाद
वो खुद बदल गईं
बदलाव एक अपेक्षित छल था।
***
उसने कहा
तुम्हारे अंदर
सच्चाई शेष है
उसके बाद
वो विभाजित हो गया
अपनी  बुराई के बीच।
***
उसने कहा
तुम कल्पना में जीते हो
उसके बाद
कल्पना यथार्थ में रूपांतरित हो गई।
***
उसने कहा
तुम्हारी चुप्पी खलती है
उसके बाद
मौन का गहरा शोर
पसर गया दोनों के बीच।
***
उसने कहा
तुम पागल हो
उसके बाद
समझ ने गहराई की गोद से
जन्म लिया।
***
उसने कहा
मुझे तुमसे कुछ कहना है
उसके बाद
उसने कहा कुछ नही
बस जीया उस लम्हें को।
***
उसने कहा
तुम्हारे अंदर बचपना है
उसके बाद
उसने बचपन को
बचाकर रखा खुद के अंदर।
***
उसने कहा
दफा हो जाओ
उसके बाद
वो दफन हो गया
उसके अंदर।
© डॉ. अजीत

Monday, November 24, 2014

ख्वाहिशें

सात अधूरी ख्वाहिशें...
----


कुछ ख़्वाब
बो देता हूँ रोज़ तुम्हारे सिराहने
तकिया गवाह है इसका
ख़्वाब जो देखती हो तुम
उनमें शामिल हूँ
एक साजिश की तरह।
****
देना चाहता हूँ तुम्हें
कुछ ख़्वाब उधार
लौटा देना मुझे
जब क्या तो मै थक जाऊं
या थक जाओं तुम।
****
मांगना चाहता हूँ
उधार
तुम्हारा कॉटन का दुपट्टा
वक्त का पसीने पौंछते हुए
आस्तीन गिली हो जाती है मेरी
अक्सर।
****
एक शाम ऐसा भी हो
तुम आओं चुपचाप
और जाओं
खिलखिलाती हुई
ऐसी चाय पर इन्तजार है
तुम्हारा।
****
करना चाहता हूँ
खुशी का कारोबार
तुम्हारे साथ
दोनों बेचकर अपनी अपनी उदासी
थोड़े खुश हो जाएं
तो इसमें बुराई क्या है।
****
सोचता हूँ अक्सर
बता दूं तुम्हें
अब तुम आदत में नही
जिंदगी में शामिल हो
मगर
सोचता ही रह जाता हूँ
सोचना बुरी चीज़ है।
****
कहता हूँ तुमसे
बेफिक्री पर
एक सफेद झूठ अक्सर
अब फर्क पड़ता है
तुम्हारे होने और
न होने पर
सच क्या है
तुम ही जानों।

© डॉ. अजीत

Friday, November 21, 2014

हिज्र

हिज्र पर जाते घटने लगा हूँ
हिस्सों में रोज कटने लगा हूँ

गुनाह कम भी नही है मेरा
ज़बान देकर पलटने लगा हूँ

खूबसूरत आँखों के फरेब थे
रोशनी में भी भटकने लगा हूँ

उदासी का असर गहरा था
हंसते हुए सिसकने लगा हूँ

नजर आता भी कैसे अब
दायरों में  सिमटने लगा हूँ
© डॉ. अजीत 

Tuesday, November 18, 2014

पाठ

वो पढ़ लेती थी
लिखे हुए अक्षरों के बीच पसरे निर्वात को
वो सूंघ लेती थी
सच को झूठ के जंगल के बीच
वो देख लेती थी
माथे की शिकन को मीलों दूर
वो समझ लेती थी
अनकही बात का मूल्य
किसी की फ़िक्र करते हुए जीना
उसकी आदत में शामिल था
नही देख सकती वो
उदास बच्चें
अवसाद में दोस्त
अनमनें परिजन
खुद को भूल दिन भर
ढोंती रहती न जाने
किस-किस के हिस्से का तनाव
खुद की पीड़ाओं पर बात करना
उसके लिए ऊब का विषय था
वो कविता की नही
जीने और समझने का विषय थी
जब यह न कर सका
तो लिख कर कुछ शब्द
निकला आया
उससे बेहद दूर
क्योंकि अपने मतलब के लिए
उसे खर्च नही करना चाहता था
उसका बचा रहना
वक्त और हालात से लड़ते
लोगो के लिए जरूरी था
केवल खुद के बारें में ही न सोचना
उसका पढ़ाया हुआ पाठ था
जो काम आया
इस मुश्किल वक्त में।

© डॉ. अजीत

Friday, November 14, 2014

जैसे

'जैसे-कैसे-वैसे...'
**********

तुम्हारा खफा होना
जैसे
वक्त का खुदा होना
----
तुम्हारा जुदा होना
जैसे
भीड़ में तन्हा खोना
----
तुम्हारी खुशी
जैसे
बुखार में दवा की शीशी
----
तुम्हारी हंसी
जैसे
कवियों में शशि
----
तुम्हारी मुस्कान
जैसे
उम्मीद की दुकान
----
तुम्हारे अश्क
जैसे
बड़ी उम्र का इश्क
----
तुम्हारा गुस्सा
जैसे
फकीर मांगे अपना हिस्सा
----
तुम्हारी बेरुखी
जैसे
जिन्दगी हो रुकी
----
तुम्हारी फ़िक्र
जैसे
आयतों का हो जिक्र !
----
तुम्हारा प्यार
जैसे
बारिश का बुखार
© डॉ.अजीत

Sunday, November 9, 2014

गजल

मुझे आदत नही है हंसने की
बेवजह भी हंसा देते हो तुम

थक कर कब्र में सो जाता हूँ मै
सुबह नींद से जगा देते हो तुम

जो गुनाह मैंने ख्वाबों में किए है
हकीकत में उनकी सजा देते हो तुम

रफ़्ता रफ़्ता दूर जा रहे हो हमसें
बातों ही बातों में ये बता देते हो तुम

तन्हाई में मिलो कभी तो बातें हो
भीड़ का अक्सर पता देते हो तुम

फ़िक्र बहुत करते हो मेरी सच है
अफ़सोस ये कि जता देते हो तुम

© डॉ. अजीत

Friday, November 7, 2014

गजल

सम्भालों अपने रंज ओ' गम कि खत्म होता हूँ मैं
अपने मतलब न निकालो कि हसंते हुए रोता हूँ मैं

वक्त की रंजिशें है कि पाकर सबको खोता हूँ मैं
रोशनी कमजोर है कि धागा गम का पिरोता हूँ मैं

जमीं परेशां में है कि कांटे रोज सुबह बोता हूँ मैं
आसमां हैरत में है कि फूलों पर क्यूँ सोता हूँ मैं

तन्हाई मायूस है कि बस तेरे साथ खुश होता हूँ मैं
हकीकत तल्ख है कि ख़्वाबों में तुझे संजोता हूँ मैं

© डॉ. अजीत



Thursday, November 6, 2014

स्त्री होना

तुम देवता बनने की
फिराक में थे
मैत्रयी पुष्पा कहती है
स्त्रियों को देवताओ से लगता है डर
वो खुश रहती है
एक आम इन्सान के साथ
बशर्ते उसे अपने आम होने का
अभिमान या ग्लानि न हो
स्त्री चाहती है
एक छोटा आकाश
जिसमें देख सके वो अपने चाँद को
बेहद अपने करीब
तुम्हारी बेहद मामूली बातें
स्त्री को प्रभावित कर सकती है
बशर्ते उनमें सच्ची संवेदना हो
तुम्हारा यह सोचना कि
एकदिन कोई भौतिक सफलता
दूर कर देगी उपेक्षा से उपजी दूरी
बेहद गलत है
स्त्री नही चाहती सफलता की कीमत पर
रोज रोज किस्तों में किसी अपने को खोना
स्त्री को एक ही बात डराती है
कोई उसका पढनें लगे मन
उस पुरुष की समझ पर संदेह और डर
दोनों एक साथ उपजता है
क्योंकि वो इसकी अभ्यस्त नही होती
स्त्री क्या चाहती है
यह समझने के लिए
दरअसल
स्त्री होना पड़ता है
जिसकी इजाजत
तुम्हारा पुरुष होने का अभिमान कभी नही देगा
वाचिक दिलासाएं
शब्दों का रचा भ्रम
प्रेम/अप्रेम का भेद
खूब समझती है स्त्री
चूँकि वो उम्मीद को जनना जानती है
इसलिए बचा कर रखती है
एक मुट्ठी उम्मीद कि
एक दिन तुम उसे समझोगे
ठीक उसी की तरह।

© डॉ.अजीत

Sunday, November 2, 2014

मंचन

दृश्य एक:

नदी नंगे पांव बिरहन सी चली आई
पत्थरों को न गोद नसीब हुई न आंचल
झरना अपने गुमान में बेशऊर गिरता रहा
पहाड बुजुर्ग सा नाराज़ रहा
हवा अपनी दिशा खो बैठी और समकोणों पर बहने लगी
पेड गवाही देने से मुकर गए
झाडियों ने खुसर फुसर की
रास्ते बगावत की उम्मीद में धूल फांकते रहें
फूलों ने सूरज़ की तरफ पीठ कर ली
काटों नें धागा पिरो लिया
सन्नाटा ने चादर फैला दी

दृश्य दो:

समन्दर बेहोश है
नदियां उलझ रही है आपस में
नदियां अपने वजूद को याद कर रोती है
मछलियों अपने दांव और दावें के खेल मे है
हरे शैवाल अपने निर्जन होने दुखी-सुखी है
समन्दर को वादे याद दिलाए जा रहे है
समन्दर न मुकरता है न अपनी बांह फैलाता है
समन्दर ऊकडू बैठा है
गीले रास्ते अपनी जगह बदलते जा रहे है

दृश्य तीन:
सूरज़ नें रोशनी का जाल फैंका
क्षितिज़ ने भ्रम रचा
लहर ने खुश होने का नाटक किया
पानी ने अपना खारापन और बैचेनी दोनो छिपाई
और शाम होते होते
आदतन सब कुछ सुन्दर और व्यवस्थित दिखा
सब कुछ तय सब कुछ निर्धारित।

सूत्रधार:
खुश दिखना और खुश होना दो अलग बातें है
सच कहना और सच जीना दो अलग-अलग संस्करण है
झूठ हर बार छल नही होता
और छल हर बार अज्ञात नही रह पाता
जो ज्ञात है वो अज्ञात का भ्रम है
ज्ञान का चिमटा अकेला नही बजता है
शून्य का सच वृत्त के सच से भिन्न होता है
हर त्रिकोण से त्राटक नही सधता
रेखाएं बिना मदद सीधी नही खींचती
भिन्नता इंसान की मानक त्रुटि है !
खेल खतम
पैसा हजम।

© डॉ.अजीत 

Friday, October 31, 2014

फेसबुक और ऊब

कुछ ऐसे लोगो से मिला मै
जो फेसबुक से बेहद उकताए हुए लोग थे
वो फेसबुक पर कितने दिन और थे
ये ठीक ठीक उन्हें भी नही पता था
दिन में कम से कम दो बार
अकाउंट डीएक्टिवेट करने के दौरे पड़ते
एक दफा अकाउंट डिलीट करने का ख्याल आता
और कम से कम एक बार वो
यहाँ से दरवाजा खुला छोड़ भाग जाने की सोचते
ऐसे लोग आपस में कम ही मिल पाए
यह फेसबुक के लिए अच्छी बात थी
वो अपने अपने किस्म के
बेहद सुलझे हुए मगर
थोड़े उलझे हुए लोग थे
वो यहाँ किस लिए थे
खुशी प्रशंसा व्यामोह या कोई और वजह थी
ये बता पाना थोड़ा मुश्किल है
उनकी प्रचार की भूख लगभग समाप्त थी
उनकी लेखनी पाठकों के लिए लत के जैसी थी
मगर लिखना उनके लिए
गर्म पानी से गरारे करने जैसा था
उनमें से कुछ थूक से स्लेट साफ़ करके
जिन्दगी का गणित सीख कर आए थे
कुछ क्रोशिए सलाई और डाइपर से उकता कर
कीबोर्ड को पीटने वाले थे
कुछ ने कीबोर्ड के उपयुक्त दबाव के लिए
अपने बढ़े हुए नाखून कुतर लिए थे
कुछ के एक हाथ में अदरख पीटने की कुंडी थी
और एक हाथ में स्मार्टफोन
फेसबुक उनकी चाय की चुस्कियों के साथ
सुस्ताने का एक अस्थाई अड्डा भर था
उनकी फेसबुक छोड़ने की
प्रतिबद्धता को रोज़ इनबॉक्स में
किसी एक की शातिर
बदतमीजी मजबूती देती थी
उन सब लोगो में एक बात का साम्य था
वे अपने वक्त से
थोड़ा आगे पीछे चल रहे थी
वक्त की घड़ी उनकी कलाई पर नही
उनकी पीठ पर बंधी थी
वे एक दुसरे को वक्त बताते और कहते
बस मै तब तक हूँ फेसबुक पर
मगर कब तक ये ठीक उन्हें भी नही पता होता
देखते ही देखते ऐसे लोगो का पुल बन जाता
जिसके सहारे कुछ भटके हुए लोग
इस पार से उस पार चले जाते
बदलते वक्त के साथ
पैतरें बदलते लोगो का साक्षी बनना
फेसबुक से उकताए लोगो का
सबसे बड़ा वर्चुअल श्राप था
जिसे भोगते हुए
वो आपस में म्यूच्यूअल फ्रेंड्स बनें रहते
मगर उनकी दोस्ती कब तक रहेगी
यह बात उतनी ही अनिश्चित थी
जितनी फेसबुक पर दिखती जीवंत जिन्दगी।


© डॉ. अजीत

Thursday, October 30, 2014

सजा

रोज़ सीवन उधड़ती जाती है
अंदर से झांकता है
एक गुस्ताख दिल
एक आहत मन
कुछ कमजोर लम्हों के हरे शैवाल
देह की गंध से रिसता है
शाम का धुआँ
रोज़ तुरपाई करता है
उघड़ी चमड़ी की
बिखरे रिश्तों की
झूलते आरोपों की
देह के अंदर कैद है
कुछ जटिल रिश्तें
कुछ मन की छटपटाहट
कुछ छद्म आवरण
डर पर जीत हर बार
खुद पर जीत नही होती
ठीक वैसे ही
जीत का अवसाद
हार के द्वंद से गहरा होता है
मन से अनबन का नुकसान यही है
रोज़ उलझा देता है यह
नए समीकरणों में
अतृप्त कामनाओं में
प्राप्य की अरुचियों में
खुद पर जमी गुस्ताखियों की गर्द को
झाड़तें पौंछतें  पहूँच जाते है
यादों के नखलिस्तान में
जूतों पर धूल
आँखों में सपनें लिए
आसमान को देखते हुए
खुद की जिरह के बीच
रोज़ मुकदमा हार जाते है
मगर न जाने क्या वजह है
सजा आज तक मुकर्रर नही हुई
सजायाफ्ता कैद से बडी कैद होती है
किसी मुकदमें का
विचाराधीन बनें रहना।

© डॉ.अजीत

Wednesday, October 29, 2014

मौत कविता की

कविता इतनी धीमी मौत
मर रही थी मेरे अंदर
कि मुझ तक उसकी
बमुश्किल खबर पहूँचती
उसका मरना उसी दिन तय हो गया था
जब मैने विषयों की संविदा का
विज्ञापन प्रकाशित किया था
उधार और मौत का सीधा रिश्ता है
दोनों अचानक से आते और डराते है
अपने डर से बचने के लिए
मेरे पास कविता की छोटी ढाल थी
जिस पर वक्त के कुछ ऐसे तीव्र वार हुए कि
एक तीर उसके आरपार होता
मेरी आंख से आ धंसा हो
मै एक आँख से लम्बे अरसे तक
कविता लिखता रहा
दरअसल वो कविता भी नही थी
वो कविताओं की शक्ल में
मेरी व्यक्तिगत बतकही थी
जिसमें सबको रस आना लाजमी था
कविता की धीमी मौत पर
मैंने शोक गीत नही
प्रेम के नोट्स लिखें
जिन्हें पढ़
आधे लोग हंसते
आधे रोतें
कुछ चुप हो जाते
कुछ पड़ताल में लग जाते
कविता की चुपचाप मौत की खबर पर
मेरी छद्म लोकप्रियता हमेशा हावी रही
इसलिए
अपने अंदर कविता की धीमी मौत का
मुझे भी जब पता चला
जब प्रशंसा की शराब से
मेरे कान लाल थे
और आत्ममुग्धता की ढेरी पर बैठा
मै कविता लिखने की सोच रहा था
और बस सोचता ही रह गया।

© डॉ.अजीत


Thursday, October 23, 2014

गजल

खुद से खफा हुए जाता हूँ
तुम पे फिदा हुए जाता हूँ

नजरें झुका कर उठाते हो
इल्म की किताब हुए जाता हूँ

बुलंदी से उतरना है जरुर
खुद में दफ़न हुए जाता हूँ

तन्हाई में जीना सीख लिया
खुद का कफन हुए जाता हूँ

दर्द अक्सर  बढ़ा ये सोचकर
बेगुनाह जलावतन हुए जाता हूँ

© डॉ.अजीत



Tuesday, October 21, 2014

गुनाह

खुद की गहराई से घबरा जाता हूँ
कभी हलकी बातें भी कर जाता हूँ

दवा का असर कम यूं भी होता है
उससे आधा मर्ज़ छिपा जाता हूँ

नजरों के धोखे ही खाएं अभी तक
आदतन चश्मा लगाकर सो जाता हूँ

ये रोज़ के तमाशे ये रोज़ का मज़मा
कभी  रंगे हाथ भी पकड़ा जाता हूँ

उनका शक का कारोबार यूं ही चले
दानिश्ता गुनाह करते चला जाता हूँ

© डॉ.अजीत

Sunday, October 19, 2014

कारोबार

ख़्वाब बेचकर
नींद खरीदी
नींद बेचकर
ख़्वाब
इस कारोबार में
मुद्रा की तरह
मेरा अवमूल्यन हुआ
मोल भाव के चक्कर में
ढेरों समझौते करने पड़े
यह वस्तु विनिमय सा
आसान न था
यह सेंसेक्स की तरह
अनिश्चित था
इक्विटी/कमोडिटी सा जोखिम भरा
जोखिम ही इसका
अधिकतम रोमांच था
नफा नुकसान का अनुमान
खुद नही लग पाता
इसके अर्थशास्त्र की यही
बड़ी कमजोरी है
और जो इसके जानकार है
वो दोस्त है कि दुश्मन
यह बता पाना जरा
मुश्किल है
दरअसल जब तक
रिश्तों की आढ़त पर
आप ख़्वाब नींद के इस कारोबार की
बारीकियां सीखते है
तब तक आप खुद को
भरे बाजार में अकेला खड़ा पाते है
जहां हर मोल भाव के बाद
एक ही बात लगती है
कहीं हमें
ठग तो नही लिया गया है !

© डॉ.अजीत

Saturday, October 18, 2014

तलाश

मिलना कभी किसी ऐसे शख्स से
न हो जिसके पास
मोबाइल
लैपटॉप
सेविंग अकाउंट
ए टी एम
डायरी
कलम
किताबें
गाड़ी-घोड़ा
मुक्त हो जो
योजनाओं से
कल्पनाओं से
अपेक्षाओं से
धारणाओं से
छोटा हो जिसका
अह्म
अध्ययन
और आधार
हो जिसके पास
एक जोड़ी घिसी हुई चप्पल
एक जोड़ी  गंठे हुए कपड़े की जुते
एक सूती तौलिया
दो जोड़ी कपड़े
एक उधड़ा हुआ थैला
मिल जाता हो जो
बाजार हाट नुक्कड़ गली में
बस ट्रेन में या पैदल चलते हुए
खोजना न पड़े जिसे
जंगल
गुफा
एकांत
या हिमालय में
जानता हो जो
अपना पूरा सच
उससे मिलकर मिल सकती है
सच्ची खुशी
सच्चा ज्ञान
स्पष्ट दृष्टि
स्थाई अभिप्ररेणा
हो सकता है बोध
खुद के लघु होने का
बेवजह उलझे होने का
तलाशिए अपने आस पास
हो सकता है
कोई बुद्ध
बेहद आम शक्ल में
खोजने जरूरी है
हाशिए पर जीते
ऐसे बुद्ध
प्रचार की भूख में
अहंकार की लौ में
अनुयायियों की भीड़ में
नही मिलते
ज्ञान दीक्षा या साधना के सूत्र
अक्सर मिलता है
भटकाव को विस्तार
ज्ञात का भ्रम
वाणी का अहंकार
मुक्ति से भी मुक्त होने के लिए
बेहद जरूरी हो जाता
ऐसे बुद्ध पुरुषों का सत्संग
इनका मिलना दुलर्भ है
असम्भव नही
एक बार तलाश कर तो देखिए
अपने आस पास।

© डॉ.अजीत

Tuesday, October 14, 2014

कुछ डायलॉग्स

तेरे-मेरे और हमारे डायलॉग्स...
******

उसने लगभग मुझ पर चीखते हुए कहा
यू आर गुड फॉर नथिंग !
मैंने गुड उसको वापिस किया
नथिंग अपनी जेब में डाला
और यू आर को
उड़ा दिया फूंक से
फॉर आजतक असमंजस में है !
-----------------
उसने एक दिन हँसते हुए कहा
आर यू क्रेजी
मैने आर और यू की सीढ़ी बनाई
और उतर गया खुद को जानने
क्रेजी की गुफा में !
-----------------
उसने एक दिन उदास होकर कहा
टाइम विल डिपार्ट अस वेरी सून
मैंने टाइम को मुट्ठी में बंद किया
विल को डिपार्ट किया
वेरी सून की तरफ पीठ की
अब मेरे तुम्हारे बीच में
अस मुस्कुरा रहा था धीरे-धीरे !
-------------------
उसनें एक दिन  लम्बी गहरी सांस ली
और कहा
सीरियस प्लीज़ !
मैंने सीरियस को छत पर टांग दिया
और प्लीज़ को गोद में उठाया
फिर तुम हंसती रही
सारा दिन !
-----------------------
उसने एक दिन कॉफ़ी पीते हुए कहा
डू यू लव मी
मैंने अपने कप में
डू यू की चमच्च से
लव की चीनी मिलाई
उस दिन पहली दफा तुम्हारी आँखों में
मी का अर्थ समझ पाया।
-------------------
उसने फिर एक दिन पूछा
हू आर यू
मैंने यू और आर का मास्क उतारा
फिर हू बहुत अकेला था
हमारे बीच।
--------------------
उसने आखिर एक दिन पूछ ही लिया
विल यू मैरी मी
मैंने बस इतना कहा उस दिन
गॉड नोज़ !
उसके बाद से हम दोनों
नास्तिक बन गए।

© डॉ. अजीत

डिस्क्लेमर: इस जातक की पढ़ाई प्राईमरी पाठशाला में हुई है सो अंग्रेजी के वाक्यों में त्रुटि होने की प्रबल सम्भावना है सो खुद ही करेक्ट करके पढ़ें । प्रेम के व्याकरण में जातक बेहद कमजोर है :)

सात बातें

बातें बहुत सी है फिलहाल केवल सात
-----------------------------

ये उन दिनों की बात है
जब
रास्तों की लम्बाई से ज्यादा
चौड़ाई नापी जाती थी
हम दोनों साथ चल नही
फिसल रहे थे।
********
ये उन दिनों की बात है
जब
चाँद रिश्तें में मामा नही
अपना यार लगता था।
*******
ये उन दिनों की बात है
जब
तुम्हारे ख़्वाब गिरवी रख
मिल जाती थी नींद उधार।
*******
ये उन दिनों की बात है
जब
तुम्हारे स्पर्शो की लिखावट
पढ़ता था
चाय की प्याली पर
हर रोज़ सुबह।
*********
ये उन दिनों की बात है
जब
तुम नदी सी बह रही थी
मै तालाब सा सूख रहा था
वक्त समन्दर सा ठहरा था
वो पानी की तासीर समझने के
दिन थे।
*********
ये उन दिनों की बात है
जब
खत भेजने के लिए नही
तुम्हें पढ़ने के लिए
लिखे जाते थे।
*******
ये उन दिनों की बात है
जब
हम अपनी समझदारी पर
हंस लिया करते थे
बेवकूफों की तरह
**********
"...अब उन दिनों की
चंद बातें बची है
याददाश्त में आधी अधूरी
मुलाकातें बची है
चंद रफू ख़्वाब है
थोड़ी अफ़सोस की गर्द है
उन दिनों की बातों ख्यालों जज्बातों का
बैरंग पार्सल भेज रहा हूँ तुम्हें
कविता की शक्ल में।"

© डॉ.अजीत

Monday, October 13, 2014

विदा

विदा के वक्त के भावुक वादें
गल जातें है वक्त के साथ
बचती है हासिल की गई समझदारी
कुछ शिकवें
चंद उल्हानें
विदा संधिकाल है उदासी का
एक यात्रा समाप्त दुसरी आरम्भ
हर शुरुआत एक अंत है
और हर अंत एक शुरुआत
इनके मध्यकाल में
पढ़ा जा सकता दर्शन,मनोविज्ञान या फिर
कविता
लिखे जा सकतें है व्यक्तिगत आलाप
कविता की शक्ल में
जीवन की धुरी पर घूमते अपनें
अक्षांश को देखने की जिद
सामाजिक बनाती है
जिसमें अपेक्षाओं की नमी में
उगते है कुछ रिश्तें
मिलने बिछड़ने के क्रम में
कथित रूप से जीना आ जाता है
अफ़सोस वो बेताल है जो लटका रहता
इस सीलन भरी दीवार पर
कुछ काश ! कुछ ग्लानि कुछ उपलब्धि की
की जुगलबंदी से
मांगते है उधार
थोड़ा सा साहस और थोड़ा सा दुस्साहस
और निकल पड़ते है
अवसाद के जंगल की तरफ
जूतों के फीते बांधते वक्त
याद आती है थोड़ी स्नेहिल छाँव
फिर देखते है कोरी धूप
और अनमने कोसते हुए दौड़ पड़ते है
उस गुफा की तरफ
जहां उपसंहार की रोशनी में
जिन्दगी मिलती है
आधी-अधूरी।
© डॉ. अजीत

Sunday, October 12, 2014

रफ्ता रफ्ता

रफ़्ता रफ़्ता
तुम्हारी समझाईश की चासनी में
अल्फाज़ कुछ तरह से लिपटे कि
उनका पेंचो खम जाता रहा
तुमसे हर मुलाक़ात के बाद
मै उधड़ता चला गया
और तुम बुनती चली गए
ख्वाबों के बिन नाप के स्वेटर
चाय की केतली को खोलते हुए
जमी बूंदों को देख
याद आ जाते थे तुम्हारें आंसू
फकीरों की जटा सा
उलझा हुआ था मै
तुम पानी सी तरल थी तब
बेवक्त पर यूं बेसबब मिलना
वक्त की साजिशों का हिस्सा लगता है कभी कभी
या फिर खुदा की कोई समझदारी
कतरा कतरा पिघलते हुए
रोज नई शक्ल इख्तियार कर लेता था वजूद
तुम्हारी जुस्तजु के खत
मुझ तक पहूंच जाते थे देर सबेर
तन्हाई का चिमटा बजाते
कई दफे तुम्हारे दर तक आया
मगर तुम उन दिनों
इबादत का हुनर सीख रही थी
तुम्हें तो इस बात का इल्म भी नही होगा कि
तुम्हारी साँसों की गिरह खोलता बांधता
मै गिनती भूल गया हूँ
मुमकिन है किसी मोड़ पर
तुमसे मुलाक़ात हो
मगर बात होगी इसकी उम्मीद कम है
दरअसल
तुम्हारी पीठ पर एक बरगद उग आया है
जिसकी छाँव मेरी खिड़की पर उतरती है
तुम्हारी यादों से झुलसते हुए
वहीं सुस्ता लेता हूँ अक्सर
हकीकत की सबसे स्याह बात यही है
इसने हमारी रोशनी बदल दी है
अब हम एक दुसरे की
फिक्रों बजाए जिक्रों में शामिल है
चलो फर्ज़ कर लेते है
इन बिखरे हुए रिश्तों के सहारे
जीना मुश्किल है
और इस मुश्किल दौर में
तुम्हे उलझा हुआ नही देखना चाहता
मेरी तरफ ताउम्र पीठ ही रखना
तुम्हारा चेहरा तुम्हारे अक्स में देखने का
मै हुनर रखता हूँ
बस दुआ करों
हम जब भी मिलें
रोशनी में मिलें
अंधेरों को बचा कर रखना पड़ेगा
तन्हाई में खुद से गुफ़्तगू के लिए
बेशक!

© डॉ.अजीत


Friday, October 10, 2014

यात्रा

मन की कहता चला गया
वक्त सा बहता चला गया

दुःख हर चौराहे पर मिले
बस मै सहता चला गया

खुदा की हसीं दुनिया में
बेवजह रहता चला गया

करी सब उसने मन की
मै बस कहता चला गया
© डॉ. अजीत

आइना

सबसे निराशा के पलों में
आत्महत्या जैसा कोई विचार नही आता
उत्सव कभी मन में कोई
उत्साह नही जगाता
अतीत की गति
और भविष्य का अनियोजन
वर्तमान को जीने की वजह देता है
परन्तु वर्तमान भी नीरवता से भरा है
भीड़ से दूरी है
एकांत से एकांत जरूरी है
सपनों से एक सुरक्षित दूरी है
जीवन के प्रश्न
समाधान नही प्रति प्रश्न तलाशते है
और प्रश्नों की भीड़ में
उत्तर अपनी प्रासंगिकता खोते जाते है
मन के वैज्ञानिकों के हिसाब से
यह चक्रीय अवसाद है
परिजन  इसे प्रमाद समझते है
और दोस्त पलायन
स्पष्टीकरण की प्रक्रिया
खुद को सही ठहराने की युक्ति है
और दुनिया में एक ही समय पर
दो लोग एक साथ सही सिद्ध नही हो सकते
इसलिए स्वीकार कर लेता हूँ
नसीहतों की रोटी
सलाह का पानी और
शुभचिंताओं का नमक
एक अरसे से इन्हीं पर जिन्दा हूँ
जिन्दा हूँ यह जानने के लिए एक सूत्र सबको ज्ञात है
वो यदा-कदा छेड़ देते है
दोस्ती दर्शन और मन की बातें
फिर उनका मनोरंजन
और मेरा विरेचन दोनों एक साथ चलता है
इसके सुर प्रवचन से सधे होते है
इसलिए कभी कभी भ्रम हो जाता है
ज्ञानी ध्यानी होने का
मुझे नही
मुझमे रूचि रख रहें लोगो को
दरअसल सच तो यह है
मेरी खुद में उतनी ही रूचि बची है
जितना दाल में नमक
मेरे इर्द गिर्द जो भीड़ जमा है
उन्हें मै आईना लगता हूँ कभी कभी
इसलिए
मेरी उपयोगिता में रोशनी की बड़ी भूमिका है
वो रोशनी खरीद लातें है
और मै साफ़ दिखने लगता हूँ ।
© डॉ.अजीत

Tuesday, October 7, 2014

मृत्यु

मृत्यु का चिन्तन
अवसाद के इतर
जीवन की कलात्मकता का
परिणाम भी हो सकता है
या फिर दर्शन पढ़ने की
एक जीवनपर्यन्त उपलब्धि
यात्रा की तैयारी का
जायज़ा लेने में हर्ज़ भी क्या है
सफर पर निकलने से पहले
आश्वस्ति समझदारी समझी जाती है
जीवन के टेढ़े मेढ़े रास्तों से
गुजर कर बिना थके
तरोताज़ा मंजिल तक पहूंचना
ज्ञान ध्यान का लक्ष्य हो सकता है
मृत्यु का दर्शन
जीवन के सरस प्रवाह से थोड़ा जटिल है
यदि तैयारी न हो तो
यह लग सकता है थोड़ा अप्रिय भी
परन्तु
मृत्यु एक खूबसूरत मंजिल है
जिसकी कल्पना के
अपने छिपे हुए रोमांच है
मृत्यु असामान्य या संदिग्ध कभी नही होती
मृत्यु बस मृत्यु होती है
साँसों के थमने या हृदय के स्पंदन रुकने से इतर
मृत्यु वरण है नए जीवन का
स्थगन है काल चिन्तन का
देह को देह बाहर निकल कर देखना
कितना विचित्र अनुभव होता होगा
कुछ कुछ स्वप्न जैसा
मृत्यु आत्महत्या से नही मिलती
मृत्युंजय मंत्र बाधक है साधक नही
मृत्यु के लिए
जीवन को झोंकने के अलावा कोई
विकल्प नही है
इसलिए जीवन की तरह
मृत्यु विचित्र संयोगों का सहारे ले
धीरे से हमारे कान में बुदबुदाती है
चलो ! बहुत सो लिए
अब जागने का समय है
और दुनिया इसे दे देती है
चिरनिद्रा का नाम
है ना बड़ा विचित्र विरोधाभास
दरअसल
मृत्यु जीवन का दूसरा पक्ष है
उतना ही जीवंत
जिससे जानने के लिए
बस मरना पड़ता है।

© डॉ. अजीत

कोयला

देखो !
फ़िलहाल
ख्याल ख्वाब और हकीकत के
महीन रेशों में मत उलझों
लम्हा-लम्हा रिसती जिन्दगी पर
वफाओं के पैबंद लगाते -लगाते
उम्र कम पड़ जाएगी
इससे पहले शिकवों की सीलन
तुम्हारे काजल को फैला दें
कुछ पलों के लिए ही सही
बंद आँखों से जी लो अपना हिस्सा
अब तक किस्तों में जीती आई हो तुम
अपनी धडकन की लय और
साँसों के आरोह-अवरोह की
एकसाथ तुरपाई कर दों
फिर मन ही मन गुनगुनाते
अपनी बिखरी सरगम को साधो
इससे पहले वक्त की तल्खी और
हकीकत की धुंध
तुम्हारी रोशनी में धुंधलका भर दें
पढ़ो वें सारे खत आहिस्ता-आहिस्ता
जो आंसूओं की स्याही से तुमने
मन के पीले पन्नों पर लिखे थे
एक गहरी लम्बी सांस लो किसी योगी की तरह
और खींच लो सारा अवसाद अपने अंतर में
अवसाद की छाँव में
मुहब्बतों की दरी पर कुछ देर सुस्ता लो
रोजमर्रा की खुद से लड़ाई
तुम्हे वक्त से पहले बुझा रही है
जानता हूँ तुम्हारा बुझना
कोयले की तरह बुझना है
जो अपनेपन की जरा सी आंच और
जरा सी हवा से
फिर से सुलगकर जल उठेगा
अपनी तमाम नमी के बाद भी
इस सर्दी में तुम्हें
धूप की तरह खिड़की से उतरता देखना चाहता हूँ
बंद कमरें में अंगीठी सी
बहुत जल चुकी हो तुम।

© डॉ.अजीत

Monday, October 6, 2014

जरिया

सुनो !
तुम्हारी आँखों में जो यें
मायूसी के रतजगे है
इन्होने तुम्हारी खूबसूरती में
इजाफ़ा ही किया है
तुम्हारी मुस्कान में अब फैलाव भले ही कम हो
मगर गजब की गहराई दिखती है
जिसे किनारे खड़ा देखते हुए
हर बार उतरने का होता है मन
तुम्हारे मन की सिलवटों को नापतें हुए
अब हांफना नही पड़ता
तुम्हारी उलझी पलकों की ओट में
देखता हूँ रोजमर्रा का छद्म युद्ध
तुम्हारे लबों की खुश्की
खुरदरी नही छोटी छोटी शिकायतों के
रेगिस्तान है
जिसे एक फूंक से उड़ा सकती हो तुम
मुद्दत से आंसूओं से चेहरा
धोती रही हो तभी तो कहता हूँ
तुम्हारा ये नूर
बेशकीमती है
तुम्हारी कीमत तुम्हें छोड़ सबको पता है
तुम्हारी बेफिक्री की एक वजह यह भी है
तुम हमारी फ़िक्र में शामिल हो
जब भी हंसती हो
हवाओं में घुल जाते है नए राग
कुछ पुरानी खुशबू
अभी एक लड़खडाता हुआ झोंका इधर आया
और मिल गई तुम्हारी खबर
तुम्हारी खबर के लिए तुमसे मिलना या
बात करना जरूरी नही
बस निकलना पड़ता है घर की चारदीवारी से
तकना पड़ता है आसमान
चाँद सूरज हवा तारे नदी झरनें
और कुछ रास्ते
तुम्हारे सच्चे खबरी है
इन दिनों बस यही जरिया है
तुमसे गूफ़्तगू करने का
तुम्हारा हालचाल जानने का
यकीनन।
© डॉ.अजीत

Saturday, October 4, 2014

नामुकम्मल

कहकहों से ऊब रहा हूँ मै
सूरज थाअब डूब रहा हूँ मै

तवज्जो नसीब नही अब
कभी बहुत खूब रहा हूँ मै

बेवफा जो कहते है मुझे
उनका महबूब रहा हूँ मै

भूलना कोई उनसें सीखे
जिनका मंसूब रहा हूँ मै

© डॉ. अजीत

Thursday, October 2, 2014

वजूद

जुड़े की स्टिक/पिन न मिलने पर
तुम्हारी झुंझलाहट
ठीक वैसी थी
जैसे घर से निकलते वक्त
नई जुराब न मिलने पर
मेरी होती थी
फर्क बस इतना था
तुम खुद इधर उधर तलाश रही थी
और मेरे लिए तलाशने को
तुम और  बच्चों सहित
सारा घर लगा हुआ था
सफर के दौरान यही सोचता रहा
यह फर्क कितना गहराता चला जाता है
मेरी हर छोटी बड़ी चीज को सहेजने की
नैतिक जिम्मेदारी तुम्हारी थी
और मेरे पास तुम्हारे खोए पाए का
कोई हिसाब नही था
तुम्हारी हंसी भी वैसे ही खो गई थी
जैसे मेरा
रुमाल खो गया था किसी होटल में
खोने पाने का हिसाब देखा जाए तो
मेरा केवल कुछ सामान ही गुमशुदा है
तुम्हारा तो सारा वजूद ही लापाता हो गया है
तुम्हारा केंद्र एक व्यक्ति एक परिवार है
जिसके इर्द गिर्द घुमती हो तुम उपग्रह सी
देखता हूँ तुम्हें रोज
घर के सपनों की मरम्मत करते हुए
मेरी बेफिक्री तुम्हारी फ़िक्र की फसल है
जिसे मै काटता रहा हूँ बरसों से
कभी कभी मेरा अपराधबोध
इतना गहरा जाता है कि
सप्तपदी के वचन
ऋषियों का षड्यंत्र लगने लगता है
जिसके सहारे रचा जाता है
समर्पण का खेल
माफी मांगने से अगर तुम्हारा खोया
वजूद वापिस मिल पाता तो
मांगता मै सार्वजनिक माफी
मगर तुम्हें जो सिखाया गया है
मेरा ऐसा करने से
तुम्हारा अपराधबोध बढ़ेगा
तुम्हें संदेह होगा खुद के प्रेम पर
तुम्हें कैसे लौटाऊँ
तुम्हारा पूरा वजूद
सारे सफर यही सोचता रहा
अब मंजिल पर उतर रहा हूँ
उतना ही निशब्द
जितना तुम्हें देखता हूँ अक्सर।
© डॉ. अजीत

Tuesday, September 30, 2014

चुपचाप

चुपचाप चले जाना बेहतर है
शोर के बीच
जैसे
गुमनान जीना बेहतर है
भीड़ के बीच
बेहतर या कमतर की बहस पुरानी है
यह मध्यांतर का बढ़िया विषय है
इसे केंद्र भी समझा जा सकता है
बता कर जाना
कह कर आने की सम्भावना
जिन्दा रखता है
चुपचाप के पदचाप
आधे दिखते है
आधे उड़ जाते है वक्त की गर्द में
न जाने रोज़
कितने लोग चले जाते है
चुपचाप
समेटे कर अपने हिस्से का एकांत
चुपचाप दरअसल एक
तरीका भर है
मन की सीढ़ी से अपनी ही कैद में उतरने का
जहां हमारे सजायाफ्ता अहसास
रोज़ बाट जोहते है हमारी
एक दिन जाना होगा
उस चारदीवारी में
जिसका अभ्यास ध्यानी करते है
जिस दिन चला जाऊं
मै चुपचाप
समझ लेना मै
आधा मौन आधा निशब्द हो
उतर रहा हूँ
अपने अंतर की कैद में
फिर मै लौट कर आऊंगा
ऐसा मेरा इन्तजार मत करना
जीना तुम भी
चुपचाप
ठीक मेरी तरह
इसे  सलाह निवेदन अपेक्षा श्राप
कुछ भी समझ सकती हो
अपने विवेक से निर्णय करना
चुपचाप।
© डॉ. अजीत

Sunday, September 28, 2014

बहानें

सात: बहाने जीने के
--------
सपनें
रोज नही बदलते
कुछ कभी नही बदलतें
कुछ यदा-कदा बदलतें है
सपनों की फितरत
बदलना है
कभी हमें कभी खुद को।
--------
वादें
उम्र के बढ़ने पर
बहुत याद आतें है
जिनको पूरा कर सकते थे
मगर नही कर पाएं।
--------
यादों का
अपना
ब्लैक एंड वाइट
चश्मा होता है
जिनकी मदद से देख पाते है
बूढ़ा अतीत।
---------
खुशी
किस्तों में उधार मिलती है
खर्च होती है
एकमुश्त !
-----------
गम
एक बहाना है
खुद को नायक साबित करने का
रोजमर्रा की जंग की
एक सबसे बड़ी
जरूरत
-----------
नाराजगी
देर तक जिसके हिस्से में
रहती है
वो बन जाता है
लोक सिद्ध।
-----------
संघर्ष
कभी खुद से
कभी जग से
हिसाब नही होता
कभी बराबर।

© डॉ.अजीत

Saturday, September 27, 2014

अक्सर

गलतियाँ करके अक्सर भूला देता हूँ
थोडा सच ज्यादा झूठ मिला देता हूँ

गुनाह का बोझ ताउम्र उठाना है पड़ता
वफा के नाम पर  आँख झुका देता हूँ

तुम्हारी समझदारी कब मेरे काम आई
अपनी नादानी से ही काम चला लेता हूँ

उसकी चालाकियां मुहब्बतों का है सबब
गुस्ताखियों पर मै अक्सर मुस्कुरा देता हूँ

ऐब तमाशा बनें जब से  महफिल में
हुनर अपने सब के सब छिपा लेता हूँ

© डॉ. अजीत

Friday, September 26, 2014

उसकी दुनिया

उसकी दुनिया: जो मेरी दुनिया थी कभी
-----------

उसकी दुनिया का
एक छोटा सा हिस्सा था मै
हिस्सा था भी या नही
यह मेरे आकार जितना
संदिग्ध था हमेशा।
********
उसकी दुनिया
भूगोल की नही
अर्थशास्त्र की दुनिया थी
जहां मै
इतिहास सा विवादित था।
*******
उसकी दुनिया
खुशी का मांग पत्र थी
और मै
उदासी का चक्रवृद्धि ब्याज़।
*****
उसकी दुनिया
सपनों की आढ़त थी
जहां रोज तुलती थी
अपेक्षाओं की फसल
छमाही की उधार।
******
उसकी दुनिया में
बैचेनियों के रतजगे थे
करवटों के जंगल थे
वो नदी थी
बिना पत्थरों की।
*******
उसकी दुनिया
उसकी परिभाषाओं पर
टिकी थी
जिसमें सम्पादन की
गुंजाईश कम थी
वो बिना शर्त उल्टी घूमती थी
अपनी धुरी पर।
*******
उसकी दुनिया
सपने दिखाती थी
जिनका टूटना तय होता
फिर सपने देखने की लत लगती
उसकी दुनिया में।
*******
उसकी दुनिया
मेरी दुनिया से अलग थी
मेरी दुनिया इनकार करती
उससे मिलने से
उसकी दुनिया आवाज़ देती जब
खुद को रोक न पाता मै।
********
उसकी दुनिया में
एक चीज सम्मानीय थी
प्रेम
प्रेम के प्रपंचों से उसे घृणा थी
अव्यक्त प्रेम करना
उसी से सीखा मैंने।
*********
उसकी दुनिया
समय की सत्ता को अस्वीकार करती
भाग्य का उपहास करती
काल गणना को उलट देती
वहां जीवन का मतलब
जीना था
गणना नही।

© डॉ. अजीत


Wednesday, September 24, 2014

महफिल

लाख समझों संवरते जा रहे हो
नजरों से तुम उतरते जा रहे हो

बदलना  दुनिया की फितरत है
हैरत है तुम  बदलते जा रहे हो

दीवानगी में कमी कोई जरुर है
फकीरी में  सम्भलतें जा रहे हो

महफिल में आए थे पीने शराब
पानी खाली तुम पीते जा रहे हो

किरदार की ऊंचाई ले आई कहां
किस्सों से तुम निकलते जा रहे हो

© डॉ. अजीत

Tuesday, September 23, 2014

दुःख-सुख

दस दुःख दस सुख

---------

दुख तलाश लेता है
अपने जैसा दुख
जबकि सुख नही तलाश पाता
अपने जैसा सुख।
-----------

दुख हमेशा होता है अनकहा
कहे गए दुख
सुख के जुडवा बच्चें बन जाते है
अक्सर।
---------
दुख का भार हमेशा
रीढ नही झुकाता
जैसे सुख हमेशा
गर्दन ऊंची नही करता।
-----------
सुख की उम्मीद
दुख को सहने का हौसला है
बिना उम्मीद का दुख
सुख को चाट जाता है।
-----------
दुख सुख की पीठ पर लदकर आता है
मगर टहलता अकेला है
प्रेम के दमे मे रची छाती पर
ऊकडूं बैठकर
आंखों के तालाब मे हाथ धोता है
जिसके छींटे तपते बदन पर
भाप बन उडते रहते है।
----------------
तुम्हारा दुख
मेरे जैसा नही हो सकता
तुम्हारा सुख भी अलग होगा
मगर हमारे दुख की बातें
एक जैसी हो सकती है।
----------
दुख के आंसू
सुख के आंसू से ज्यादा तरल होते है
सुख के आंसू
भोगे हुए दुख
का ब्याज़ होते है।
-----------
आंसू दुख या सुख के नही होते
आंसू होते है
मन की थकावट
का पसीना।
----------------
उदासी का दुख
सुख की मुस्कान
से गहरा होता है
दुख सुख से
इकहरा होता है।
------------
माथे की दरारों में
दुख की सीलन पाई जाती है
और गालों पर
मुस्कान के डिम्पल।

© डॉ.अजीत

Sunday, September 21, 2014

किस्सा

उसकी बातों
किस्सों
और अनुभवों को
सबसे पहले गम्भीरता से न लेना
दोस्तों ने शुरू किया
फिर पत्नि ने
उसके बाद मां-बाप ने
और सबसे बाद उसके बच्चों ने
उसकी गालबजाई को गल्प माना
अपने दौर में वो
इस तरह से खारिज हुआ कि
उसे खुद से ही चार बार पूछना पड़ता
कुछ भी कहने से पहले
ऐसा नही उसकी बातों में
दार्शनिक या साहित्यिक
गुणवत्ता का अभाव था
उसकी बातों में भरपूर रस था
मगर वो समय से तादात्म्य न बना सका
वो क्या तो अतीत में जीता
या भविष्य का नियोजन प्रस्तुत करता
उसके वर्तमान का सबसे
स्याह पक्ष यही था
वो काल गणना में निरक्षर रह गया
उसके पास  समय के षड्यंत्रो के
कुछ चुस्त समाधान थे
मगर उन दिनों वो मौन में था
अन्यथा की एक सीमा से अधिक
अन्यथा लिया गया उसे
एक बुरे दौर में वो
स्पष्टीकरण  की प्रमेय सिद्ध करता पाया जाता
शराब पीने के उसके पास
अकाट्य दार्शनिक तर्क थे
उसने इतनी धीमी गति से सिमटना शुरू किया कि
नजरों से कब ओझल हुआ
किसी को पता न चला
कुछ तलबगार उसे तलाशते
उसके टीले तक पहूंचे
मगर वो नए और पुराने पते को मिला
एक ऐसा नया पता देता
जहां न कोई सवारी पहूँचती
और न खत
पिछले दिनों उसकी एक चिट्ठी मिली
जिस पर एक त्रिकोण बना था
और नीचे एक सपाट रेखा खींची थी
इसके अलवा खत कोरा था
तबसे उस बेफिक्र की
फ़िक्र बढ़ गई है
न जाने कहां और कैसा होगा
ये तो तय है
वो जहां भी होगा
ठीक वैसा ही होगा
जैसा कभी मिला था
पहले दिन।

© डॉ. अजीत

वो

उसकी बातों
किस्सों
और अनुभवों को
सबसे पहले गम्भीरता से न लेना
दोस्तों ने शुरू किया
फिर पत्नि ने
उसके बाद मां-बाप ने
और सबसे बाद उसके बच्चों ने
उसकी गालबजाई को गल्प माना
अपने दौर में वो
इस तरह से खारिज हुआ कि
उसे खुद से ही चार बार पूछना पड़ता
कुछ भी कहने से पहले
ऐसा नही उसकी बातों में
दार्शनिक या साहित्यिक
गुणवत्ता का अभाव था
उसकी बातों में भरपूर रस था
मगर वो समय से तादात्म्य न बना सकी
वो क्या तो अतीत में जीता
या भविष्य का नियोजन प्रस्तुत करता
उसके वर्तमान का सबसे
स्याह पक्ष यही था
वो काल गणना में निरक्षर रह गया
उसके पास  समय के षड्यंत्रो के
कुछ चुस्त समाधान थे
मगर उन दिनों वो मौन में था
अन्यथा की एक सीमा से अधिक
अन्यथा लिया गया उसे
एक बुरे दौर में वो
स्पष्टीकरण  की प्रमेय सिद्ध करता पाया जाता
शराब पीने के उसके पास
अकाट्य दार्शनिक तर्क थे
उसने इतनी धीमी गति से सिमटना शुरू किया कि
नजरों से कब ओझल हुआ
किसी को पता न चला
कुछ तलबगार उसे तलाशते
उसके टीले तक पहूंचे
मगर वो नए और पुराने पते को मिला
एक ऐसा नया पता देता
जहां न कोई सवारी पहूँचती
और न खत
पिछले दिनों उसकी एक चिट्ठी मिली
जिस पर एक त्रिकोण बना था
और नीचे एक सपाट रेखा खींची थी
इसके अलवा खत कोरा था
तबसे उस बेफिक्र की
फ़िक्र बढ़ गई
न जाने कहां और कैसा होगा
ये तो तय है
वो जहां भी होगा
ठीक वैसा ही होगा
जैसा कभी मिला था
पहले दिन।

© डॉ. अजीत

फेसबुक....एक लम्बी कविता



भले ही दिन भर आपको अद्यतन रखने का
त्वरित तकनीकी प्रपंच रचती हो
मगर सच तो यह भी उतना ही है
उखड़े मूड और बेवजह की उदासी में
कोई ख़ास काम की नही है
फेसबुक
इस आभासी दुनिया का
सबसे विचित्र सच यह है कि
यह आपके अकेलपन पर कब्जा करती है
मगर अकेला छोड़ देती है आपका एकांत
यहाँ कहने सुनने बतियाने गपियाने
के तमाम विकल्प होने में बाद भी
बहुत कुछ रह जाता है अनकहा
इस माध्यम के अपने अपराधबोध है
अपनी सीमाएं है
ब्लॉक/अनफ्रेंड होने के अपने डर है
जो पीछा करते है ख्वाबों तलक
यहाँ हरी बत्ती का जला होना
एक सतही आश्वस्ति भर है
जरूरी नही आपके दुखद/सुखद पलों में
ऑनलाइन मित्रों की हमेशा
दिलचस्पी बनी रहें
वो हो सकते है व्यस्त या फिर अनमने
अक्सर मैसेज़ सीन न होने पर
आप भर सकते है खीझ और हताशा से
यह सच है फेसबुक का होना
हमें जोड़े रखता है
थोड़े अपने थोड़े अजनबी मित्रों से
मगर यह नही जोड़ पाता
स्थाई स्मृति के वट वृक्षों से
जिसकी शाखाओं पर
हम मन के बारहमासी सावन में
झूला झूल सके सखा भाव से
भर सकें प्रेम की शर्त रहित पींग
लगभग साल भर में
करीबी चेहरें बदल जातें है
इसलिए ठीक ठीक कहा नही जा सकता
कौन मित्र है कौन अमित्र
यहाँ आपको ठीक वैसे ही भूला जा सकता है
जैसे कभी भूल जाते है लंच करना
या फिर जेब पर कलम लगाना
यदा-कदा
संदेह शंका अविश्वास की विचित्र
प्रयोगशाला दिखती है फेसबुक
कुछ सिद्धो का अनुमान है
मनुष्य को ध्यान मार्ग से भटकाने का यह एक
पश्चिम का तकनीकी षड्यंत्र है
जिन मित्रों ने अपने अकाउंट डीएक्टिवेट क़िए
उनके भजन भी कुछ इससे
मिलते- जुलते थे जाने से पहले
वो यहाँ रहते ब्रेक के महात्म्य पर
प्रवचन किया करते थे
पता नही बाद में खुश रहे होंगे या मौन
मनोवैज्ञानिक इसे जरूरी और गैर जरूरी
दोनों बताते हुए
गजब का भ्रम पैदा कर रहें है
फेसबुक पर सदैव उत्साही नजर आना
एक किस्म की वैचारिक प्रतिबद्धता है
जिससे मित्रगण ऊर्जा लें
करते है अपना अवसाद नियंत्रित
यहाँ मन से दिगम्बर दिखना
कयासों का बीज हो सकता है
या फिर संदेह की बेल
जो नही चढ़ पाती मित्रों की दीवार पर
दरअसल,
फेसबुक एक गुरुत्वाकर्षण मुक्त ग्रह है
जहां हम अपना अपना यान लेकर
पहूंच गए है बिना प्रशिक्षण के
अब उड़ना टकराना बिखरना
हमारा भविष्य हो सकता है
या फिर भूत वर्तमान और भविष्य से परे
कुछ अति उत्साही कुछ सामान्य कुछ निर्वासित
लोगो की बस्ती बनें फेसबुक
और भी व्यापक हो सकता है
यहाँ उपस्थित जनों का वर्गीकरण
फेसबुक के इस नए समाजशास्त्र में
कभी कभी मेरे जैसा भगौड़ा शख्स
विस्मय से भर सोचता है
आखिर क्या चीज़ है यह फेसबुक
विचित्र अकल्पनीय आभासी
मगर सत्य
कुछ कुछ शराब के लत के जैसी
जो मौका मिलते ही तलब की वजह तलाश
लेती है।

© डॉ. अजीत

मुमुक्षु

मेरी गति से तुम डर गई
जबकि मै तो हांफता हुआ
पहूँचा था तुम तक
मेरे कदमों में लडखडाहट थी
तुम रेगिस्तान की मृग मरीचिका
के माफिक दिखी
और मैंने दौड़ना शुरू कर दिया
भूल कर यह कि
डर एक मनोवैज्ञानिक सच है
अनुभवों का
आँखे और मन दोनों
मिलकर जितना देख पाती है
उससे कई गुना होता है अनदेखा
तुम्हारे चेहरा का कौतुहल
डर में तब्दील होता देखा
तब यह जाना
विश्वास भी एक बलात कर्म है
जिसमें सहमति शायद ही कभी बन पाती है
आषाढ़ के आवारा बादल सा
बरस कर बह जाऊँगा जल्द ही
सौंप दूंगा तुम्हे
तुम्हारे हिस्से का एकांत
डरो मत !
मै मुमुक्षु हूँ
छलिया नही।

© डॉ.अजीत

*मुमुक्षु= मोक्ष का अभिलाषी

Saturday, September 20, 2014

गजल

अपने वजूद में सिमटने लगा हूँ मै
कई कई हिस्सों में बंटने लगा हूँ मै

तुम मेरी फ़िक्र न किया करो दोस्त
फिर से वादों से मुकरने लगा हूँ मै

हिज्र के सफर पर जाने वाला हूँ
यादों से तेरी लिपटने लगा हूँ मै

हकीकत इतनी कड़वी क्यों है
डर कर सच निगलने लगा हूँ मै

तबीयत नासाज़ है जिगर खराब
संग तेरे पीने को मचलनें लगा हूँ मै
© डॉ. अजीत

Friday, September 19, 2014

खूबसूरती

ख़ूबसूरती आँखों में
बसती है
मगर यह व्याप्त रहती है
जगह-जगह
किसी एक को कभी नही
कहा जा सकता
सबसे खूबसूरत
कई प्रेमी बोलते है
यह कोरा झूठ
नेत्र सम्पर्क के आत्मविश्वास के साथ
ख़ूबसूरती तरल होती है
यदि ईमानदारी से देखा जाए
भिन्न भिन्न परिस्थितयों में
ख़ूबसूरती बदल जाती है
जो व्यक्ति खूबसूरत दिखता है
एक ख़ास समय में
हो सकता है कुछ समय बाद
वो लगने लगे बेहद सामान्य
यह सामान्य लगना
हमारे मन की एक खूबसूरत चालाकी है
जिसमें आँखों की मदद लेता है वो
यदा-कदा
एक साथ कई खूबसूरत चेहरे देखने पर
हम कन्फ्यूज्ड नही होते
बल्कि सबमें महीन फर्क
करना जानते है
खूबसूरती मन और समय सापेक्ष होती है
इसलिए ख़ूबसूरती की तारीफ़
सावधानी से करनी चाहिए
खूबसूरत व्यक्ति को ठीक ठीक
पता होता है अपनी ख़ूबसूरती का
वो हंसता है या फिर आत्म मुग्ध होता है
ख़ूबसूरती की तारीफ़ सुनकर
तन और मन की ख़ूबसूरती  पर
सहमति नही बन सकती कि
कौन पहले आती है या
चल सकती है दोनों साथ साथ
ख़ूबसूरती की समझ की वजह से
कुछ आत्मविश्वास से भरे रहतें है
तो कुछ ढोंते है उम्र भर हीनता की ग्रन्थि
खूबसूरती भेद करती है
और करना सिखाती है
इसलिए यह
बेहद बदसूरत भी दिखती है
कभी-कभी।

© डॉ. अजीत

Thursday, September 18, 2014

हवा

हवा पेड़ के सारे पत्ते नही हिलाती
वो टोकती है सूखे पत्तों को
थोड़ी इनकार के बाद वो
चल पड़ते है धरती से मिलने
हवा का प्रलोभन एक सम्मोहन है
वो रचती है हरे पत्तो की मदद से संगीत
उनकी फडफडाहट सूखे पत्तो को
उकसाने का प्रायोजन मात्र होता है
बेचारी कमजोर शाखाएं
चाहकर भी नही रोक पाती
अपने कमजोर पुत्रों को
स्पंदन के झटके हवा लगाती
पत्तो के कान में गुदगुदी करती
फिर सबसे कमजोर पत्ते
खुद को अलग कर नाचते हुए
जमीन की तरफ बढ़ते
थोड़े बेहोश थोड़े बेफिक्र
उनकी कलाबाजी पर हरे पत्ते
झूठे गीत गाते या फिर
उनकी भावुक मूर्खता पर
तालियां बजाते
ये जो हवा की सरसराहट से
पत्तो का हिलना हम देखतें है
वो हवा के षड्यंत्र और
हरे पत्तो की मूक सहमति का
विजयनाद होता है
सूखे पत्ते कभी नही जान पाते
ये सब
क्योंकि उनका
सम्मोहन तब तक रहता है
जब तक पत्ते गीली जमीन में न धंस जाएं
और पेड़
वो अक्सर हवा से रहता है नाराज़
हवा सुहावनी होने के बाद भी
भंग करती है उसका एकांत
सुहानी हवा का यह एक क्रूर पक्ष है
जिसे जानने के लिए
पेड़ होना पड़ता है
सूखे पत्ते जेब में रख
सोना पड़ता है भूखे पेट
तब नींद में खुलता है यह सब भेद
इनदिनों हवा अच्छी नही लगती
जिसकी वजह मौसम नही
हवा की ये चालाकियां है।
© डॉ.अजीत 

Wednesday, September 17, 2014

खफा

यादें बड़ी सजा होती है
भूलना भी दवा होती है

हमें आजमाना छोडिए
बेमतलब भी वफा होती है

इश्क मर्ज ही ऐसा है
दर्द खुद दुआ होती है

सपनें बेचकर अपने
रोशन शमां होती है

अंदाजे गलत ही लगते है
किस्मत जब खफा होती है
© डॉ.अजीत

Tuesday, September 16, 2014

इज़ाजत

जो हो इजाजत...
----------

जो हो इज़ाजत तो
कुछ देर सुबकता रहूँ
तेरी गोद में
शिकायत करते
बच्चे की तरह।

-------------
जो हो इज़ाजत
सपनों को तकसीम करूं
तमन्नाओं को जमा- नफ़ी करूं
और हासिल आए
सिफर ।
---------------
जो हो इज़ाजत तो
तेरी कान की बालियों
की घंटी बजा
कान में फूंक दूं
महामृत्युंजय मंत्र।
------------------
जो हो इज़ाजत
तेरे हाथ पर अपना हाथ
रख दूं पल दो पल
ताकि रेखाएं
अपने रास्ते मिला
बना सके कोई मानचित्र।
-------------------
जो हो इज़ाजत
पूछूं तेरा पता
अधूरे तसव्वुर और
अपनी चाहतों के
खत रवाना करूं
बैरंग।
-----------------
जो हो इज़ाजत
तेरी आँखों से
गुफ्तगू करूं
पलकों की खिड़कियाँ हो
काजल के रास्ते हो
और
सपनों की चादर।
-----------------
जो हो इज़ाजत
तेरी मुस्कान
उधार लूं
हंसी बाँट दूं
आंसू सोख लूं
उदासी ओढ़ लूं
कभी-कभी।

© डॉ.अजीत

सात बातें

तुम्हारी सात बातें
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तुम और तुम्हारी बातें
समझने की नही
जीने की चीज़ है
जबकि
मै हमेशा करता हूँ
ठीक इसके उलटा।
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तुम्हारी बातों में
सिलवट देखता हूँ जब
तुम मुस्कुरा पड़ती हो
बेपरवाह
आँखे झूठ बोलना
कब सीख पाएंगी
इसकी परवाह करो।
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कभी कभी तुम
चुप हो जाती हो
कम बोलने के बाद
यह चुप्पी
सबसे ज्यादा डराती है
मुझे।
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तुम्हारे खतों की स्याही
बता देती है कि
तुमने बोल-बोल कर
लिखें है
ये खत।
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लब और
ज़बान के बीच
अटके शब्दों का
शब्दकोश तैयार करना
कभी फुरसत मिले तो
किसी के तो
काम आएगा
कभी।
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तुम्हारी बातें
सिर्फ तुम्हारी बातें है
उनमे दुनिया का हिस्सा नही
यह सबसे अच्छी बात है
इन बातों की
जो तुम्हें नही पता।
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बातें कितना बड़ा
सहारा बन जाती है
काम करती है
दवा के माफिक
जब सिर्फ और सिर्फ
तुम्हारी बातें
सोचता हूँ
अवसाद/खुशी के पलों में।

© अजीत

Friday, September 12, 2014

ढलान

मत समझिए  आसमान पर हूँ
दोस्तों इन दिनों ढलान पर हूँ

ना जाने किस की जान लूँगा
फिर से वक्त की कमान पर हूँ

तुम क्या परख सकोगे मुझे
जन्म से ही इम्तिहान पर हूँ

शोहरतें न रास आई फकीर को
जिन्दा मुफलिसी के गुमान पर हूँ

सफर में मुलाक़ात की उम्मीद नही
मंजिल की आख़िरी थकान पर हूँ

© अजीत



गजल

खुद को यूं भी आजमाना चाहिए
बेवजह भी जीना आना चाहिए

दुश्मनों का जिक्र नही करता अब
दोस्तों को भी  भूल जाना चाहिए

कातिल मेरे ने जुल्म क़ुबूल किया
गवाह को अब मुकर जाना चाहिए

नाराजगी में भी दुआ भेज दी उसने
मर्ज़ तुम्हारा  ठीक हो जाना चाहिए

मयकदे में सहारा देने लगे है लोग
महफिल से अब  उठ जाना चाहिए

© अजीत

Thursday, September 11, 2014

गजल

किसी को और सताना नही चाहता
खुद बारें में कुछ बताना नही चाहता

खुश रहना अच्छी आदत बताते है
खुश रहें कैसे  कोई ये नही बताता

अहसानों का जिक्र करते है सब
गैरतमंद यूं भी तलब नही जताता

दुआओं में असर  नही रहा अब
फकीर अलख जगाने नही जाता

हंसते-हंसते आँख भर आए मेरी
कोई अब ऐसा किस्सा नही सुनाता

© अजीत

Wednesday, September 10, 2014

निशब्द

जब समाप्त होने को था प्रेम का आरक्षण
तब तुम वर्गीकृत हुए वंचितो में
जब लड़ाई बाहर से ज्यादा  अंदर की थी
तब तुमने सोचा लड़ने के बारे में
जब भाषा जूझ रही थी अपनी पहचान के लिए
तब तुमने अपनी बोली में लिखा प्रेम पत्र
जब रोने में हास्य तलाशा जा रहा था
तब निकले तुम्हारे आंसू
जब प्रेमी का भावुक होना अनिवार्य नहीं था
तब तुम अभिमान में रहे भावुकता के
जब धरती पर लेटा चाँद  आसमान को चिढ़ा रहा था
तब तुम तारों की भाषा सीख रहे थे
जब पहाड़ ऊकड़ू बैठा मन्त्र फूंक रहा था
तब तुम नदियों का मिलन देख रहे थे
तुम समय से आगे थे या पीछे
यह बता पाना मुश्किल है
क्योंकि आज भी
प्रेम तुम्हे चौंकता नही है
अवसाद रुलाता नही है
धोखा समझाता नही है
तुम आज भी उतने ही आत्मविश्वास से
लिख सकते हो
प्रेम कवितायेँ
नदियों के गीत
दरख्तो के उलाहने
साँझ की उदासी
भेज सकते हो एक  गुमसुम मैत्री निवेदन
तुमने रोने और हंसने के मध्य का
एक भाव विकसित कर लिया है
जिसकी कोई भाव-भंगिमा नही है
इसलिए लोग हमेशा
इसी अचरज में रहते है कि
तुम खुश हो या दुखी
इस अचरज पर कभी
तुम्हे कुछ कहते लिखते नही देखा
बस देखा है हमेशा
समय के आर-पार
या फिर आगे-पीछे
टहलते हुए
कभी मौन तो कभी निशब्द.

© अजीत