Friday, October 31, 2014

फेसबुक और ऊब

कुछ ऐसे लोगो से मिला मै
जो फेसबुक से बेहद उकताए हुए लोग थे
वो फेसबुक पर कितने दिन और थे
ये ठीक ठीक उन्हें भी नही पता था
दिन में कम से कम दो बार
अकाउंट डीएक्टिवेट करने के दौरे पड़ते
एक दफा अकाउंट डिलीट करने का ख्याल आता
और कम से कम एक बार वो
यहाँ से दरवाजा खुला छोड़ भाग जाने की सोचते
ऐसे लोग आपस में कम ही मिल पाए
यह फेसबुक के लिए अच्छी बात थी
वो अपने अपने किस्म के
बेहद सुलझे हुए मगर
थोड़े उलझे हुए लोग थे
वो यहाँ किस लिए थे
खुशी प्रशंसा व्यामोह या कोई और वजह थी
ये बता पाना थोड़ा मुश्किल है
उनकी प्रचार की भूख लगभग समाप्त थी
उनकी लेखनी पाठकों के लिए लत के जैसी थी
मगर लिखना उनके लिए
गर्म पानी से गरारे करने जैसा था
उनमें से कुछ थूक से स्लेट साफ़ करके
जिन्दगी का गणित सीख कर आए थे
कुछ क्रोशिए सलाई और डाइपर से उकता कर
कीबोर्ड को पीटने वाले थे
कुछ ने कीबोर्ड के उपयुक्त दबाव के लिए
अपने बढ़े हुए नाखून कुतर लिए थे
कुछ के एक हाथ में अदरख पीटने की कुंडी थी
और एक हाथ में स्मार्टफोन
फेसबुक उनकी चाय की चुस्कियों के साथ
सुस्ताने का एक अस्थाई अड्डा भर था
उनकी फेसबुक छोड़ने की
प्रतिबद्धता को रोज़ इनबॉक्स में
किसी एक की शातिर
बदतमीजी मजबूती देती थी
उन सब लोगो में एक बात का साम्य था
वे अपने वक्त से
थोड़ा आगे पीछे चल रहे थी
वक्त की घड़ी उनकी कलाई पर नही
उनकी पीठ पर बंधी थी
वे एक दुसरे को वक्त बताते और कहते
बस मै तब तक हूँ फेसबुक पर
मगर कब तक ये ठीक उन्हें भी नही पता होता
देखते ही देखते ऐसे लोगो का पुल बन जाता
जिसके सहारे कुछ भटके हुए लोग
इस पार से उस पार चले जाते
बदलते वक्त के साथ
पैतरें बदलते लोगो का साक्षी बनना
फेसबुक से उकताए लोगो का
सबसे बड़ा वर्चुअल श्राप था
जिसे भोगते हुए
वो आपस में म्यूच्यूअल फ्रेंड्स बनें रहते
मगर उनकी दोस्ती कब तक रहेगी
यह बात उतनी ही अनिश्चित थी
जितनी फेसबुक पर दिखती जीवंत जिन्दगी।


© डॉ. अजीत

Thursday, October 30, 2014

सजा

रोज़ सीवन उधड़ती जाती है
अंदर से झांकता है
एक गुस्ताख दिल
एक आहत मन
कुछ कमजोर लम्हों के हरे शैवाल
देह की गंध से रिसता है
शाम का धुआँ
रोज़ तुरपाई करता है
उघड़ी चमड़ी की
बिखरे रिश्तों की
झूलते आरोपों की
देह के अंदर कैद है
कुछ जटिल रिश्तें
कुछ मन की छटपटाहट
कुछ छद्म आवरण
डर पर जीत हर बार
खुद पर जीत नही होती
ठीक वैसे ही
जीत का अवसाद
हार के द्वंद से गहरा होता है
मन से अनबन का नुकसान यही है
रोज़ उलझा देता है यह
नए समीकरणों में
अतृप्त कामनाओं में
प्राप्य की अरुचियों में
खुद पर जमी गुस्ताखियों की गर्द को
झाड़तें पौंछतें  पहूँच जाते है
यादों के नखलिस्तान में
जूतों पर धूल
आँखों में सपनें लिए
आसमान को देखते हुए
खुद की जिरह के बीच
रोज़ मुकदमा हार जाते है
मगर न जाने क्या वजह है
सजा आज तक मुकर्रर नही हुई
सजायाफ्ता कैद से बडी कैद होती है
किसी मुकदमें का
विचाराधीन बनें रहना।

© डॉ.अजीत

Wednesday, October 29, 2014

मौत कविता की

कविता इतनी धीमी मौत
मर रही थी मेरे अंदर
कि मुझ तक उसकी
बमुश्किल खबर पहूँचती
उसका मरना उसी दिन तय हो गया था
जब मैने विषयों की संविदा का
विज्ञापन प्रकाशित किया था
उधार और मौत का सीधा रिश्ता है
दोनों अचानक से आते और डराते है
अपने डर से बचने के लिए
मेरे पास कविता की छोटी ढाल थी
जिस पर वक्त के कुछ ऐसे तीव्र वार हुए कि
एक तीर उसके आरपार होता
मेरी आंख से आ धंसा हो
मै एक आँख से लम्बे अरसे तक
कविता लिखता रहा
दरअसल वो कविता भी नही थी
वो कविताओं की शक्ल में
मेरी व्यक्तिगत बतकही थी
जिसमें सबको रस आना लाजमी था
कविता की धीमी मौत पर
मैंने शोक गीत नही
प्रेम के नोट्स लिखें
जिन्हें पढ़
आधे लोग हंसते
आधे रोतें
कुछ चुप हो जाते
कुछ पड़ताल में लग जाते
कविता की चुपचाप मौत की खबर पर
मेरी छद्म लोकप्रियता हमेशा हावी रही
इसलिए
अपने अंदर कविता की धीमी मौत का
मुझे भी जब पता चला
जब प्रशंसा की शराब से
मेरे कान लाल थे
और आत्ममुग्धता की ढेरी पर बैठा
मै कविता लिखने की सोच रहा था
और बस सोचता ही रह गया।

© डॉ.अजीत


Thursday, October 23, 2014

गजल

खुद से खफा हुए जाता हूँ
तुम पे फिदा हुए जाता हूँ

नजरें झुका कर उठाते हो
इल्म की किताब हुए जाता हूँ

बुलंदी से उतरना है जरुर
खुद में दफ़न हुए जाता हूँ

तन्हाई में जीना सीख लिया
खुद का कफन हुए जाता हूँ

दर्द अक्सर  बढ़ा ये सोचकर
बेगुनाह जलावतन हुए जाता हूँ

© डॉ.अजीत



Tuesday, October 21, 2014

गुनाह

खुद की गहराई से घबरा जाता हूँ
कभी हलकी बातें भी कर जाता हूँ

दवा का असर कम यूं भी होता है
उससे आधा मर्ज़ छिपा जाता हूँ

नजरों के धोखे ही खाएं अभी तक
आदतन चश्मा लगाकर सो जाता हूँ

ये रोज़ के तमाशे ये रोज़ का मज़मा
कभी  रंगे हाथ भी पकड़ा जाता हूँ

उनका शक का कारोबार यूं ही चले
दानिश्ता गुनाह करते चला जाता हूँ

© डॉ.अजीत

Sunday, October 19, 2014

कारोबार

ख़्वाब बेचकर
नींद खरीदी
नींद बेचकर
ख़्वाब
इस कारोबार में
मुद्रा की तरह
मेरा अवमूल्यन हुआ
मोल भाव के चक्कर में
ढेरों समझौते करने पड़े
यह वस्तु विनिमय सा
आसान न था
यह सेंसेक्स की तरह
अनिश्चित था
इक्विटी/कमोडिटी सा जोखिम भरा
जोखिम ही इसका
अधिकतम रोमांच था
नफा नुकसान का अनुमान
खुद नही लग पाता
इसके अर्थशास्त्र की यही
बड़ी कमजोरी है
और जो इसके जानकार है
वो दोस्त है कि दुश्मन
यह बता पाना जरा
मुश्किल है
दरअसल जब तक
रिश्तों की आढ़त पर
आप ख़्वाब नींद के इस कारोबार की
बारीकियां सीखते है
तब तक आप खुद को
भरे बाजार में अकेला खड़ा पाते है
जहां हर मोल भाव के बाद
एक ही बात लगती है
कहीं हमें
ठग तो नही लिया गया है !

© डॉ.अजीत

Saturday, October 18, 2014

तलाश

मिलना कभी किसी ऐसे शख्स से
न हो जिसके पास
मोबाइल
लैपटॉप
सेविंग अकाउंट
ए टी एम
डायरी
कलम
किताबें
गाड़ी-घोड़ा
मुक्त हो जो
योजनाओं से
कल्पनाओं से
अपेक्षाओं से
धारणाओं से
छोटा हो जिसका
अह्म
अध्ययन
और आधार
हो जिसके पास
एक जोड़ी घिसी हुई चप्पल
एक जोड़ी  गंठे हुए कपड़े की जुते
एक सूती तौलिया
दो जोड़ी कपड़े
एक उधड़ा हुआ थैला
मिल जाता हो जो
बाजार हाट नुक्कड़ गली में
बस ट्रेन में या पैदल चलते हुए
खोजना न पड़े जिसे
जंगल
गुफा
एकांत
या हिमालय में
जानता हो जो
अपना पूरा सच
उससे मिलकर मिल सकती है
सच्ची खुशी
सच्चा ज्ञान
स्पष्ट दृष्टि
स्थाई अभिप्ररेणा
हो सकता है बोध
खुद के लघु होने का
बेवजह उलझे होने का
तलाशिए अपने आस पास
हो सकता है
कोई बुद्ध
बेहद आम शक्ल में
खोजने जरूरी है
हाशिए पर जीते
ऐसे बुद्ध
प्रचार की भूख में
अहंकार की लौ में
अनुयायियों की भीड़ में
नही मिलते
ज्ञान दीक्षा या साधना के सूत्र
अक्सर मिलता है
भटकाव को विस्तार
ज्ञात का भ्रम
वाणी का अहंकार
मुक्ति से भी मुक्त होने के लिए
बेहद जरूरी हो जाता
ऐसे बुद्ध पुरुषों का सत्संग
इनका मिलना दुलर्भ है
असम्भव नही
एक बार तलाश कर तो देखिए
अपने आस पास।

© डॉ.अजीत

Tuesday, October 14, 2014

कुछ डायलॉग्स

तेरे-मेरे और हमारे डायलॉग्स...
******

उसने लगभग मुझ पर चीखते हुए कहा
यू आर गुड फॉर नथिंग !
मैंने गुड उसको वापिस किया
नथिंग अपनी जेब में डाला
और यू आर को
उड़ा दिया फूंक से
फॉर आजतक असमंजस में है !
-----------------
उसने एक दिन हँसते हुए कहा
आर यू क्रेजी
मैने आर और यू की सीढ़ी बनाई
और उतर गया खुद को जानने
क्रेजी की गुफा में !
-----------------
उसने एक दिन उदास होकर कहा
टाइम विल डिपार्ट अस वेरी सून
मैंने टाइम को मुट्ठी में बंद किया
विल को डिपार्ट किया
वेरी सून की तरफ पीठ की
अब मेरे तुम्हारे बीच में
अस मुस्कुरा रहा था धीरे-धीरे !
-------------------
उसनें एक दिन  लम्बी गहरी सांस ली
और कहा
सीरियस प्लीज़ !
मैंने सीरियस को छत पर टांग दिया
और प्लीज़ को गोद में उठाया
फिर तुम हंसती रही
सारा दिन !
-----------------------
उसने एक दिन कॉफ़ी पीते हुए कहा
डू यू लव मी
मैंने अपने कप में
डू यू की चमच्च से
लव की चीनी मिलाई
उस दिन पहली दफा तुम्हारी आँखों में
मी का अर्थ समझ पाया।
-------------------
उसने फिर एक दिन पूछा
हू आर यू
मैंने यू और आर का मास्क उतारा
फिर हू बहुत अकेला था
हमारे बीच।
--------------------
उसने आखिर एक दिन पूछ ही लिया
विल यू मैरी मी
मैंने बस इतना कहा उस दिन
गॉड नोज़ !
उसके बाद से हम दोनों
नास्तिक बन गए।

© डॉ. अजीत

डिस्क्लेमर: इस जातक की पढ़ाई प्राईमरी पाठशाला में हुई है सो अंग्रेजी के वाक्यों में त्रुटि होने की प्रबल सम्भावना है सो खुद ही करेक्ट करके पढ़ें । प्रेम के व्याकरण में जातक बेहद कमजोर है :)

सात बातें

बातें बहुत सी है फिलहाल केवल सात
-----------------------------

ये उन दिनों की बात है
जब
रास्तों की लम्बाई से ज्यादा
चौड़ाई नापी जाती थी
हम दोनों साथ चल नही
फिसल रहे थे।
********
ये उन दिनों की बात है
जब
चाँद रिश्तें में मामा नही
अपना यार लगता था।
*******
ये उन दिनों की बात है
जब
तुम्हारे ख़्वाब गिरवी रख
मिल जाती थी नींद उधार।
*******
ये उन दिनों की बात है
जब
तुम्हारे स्पर्शो की लिखावट
पढ़ता था
चाय की प्याली पर
हर रोज़ सुबह।
*********
ये उन दिनों की बात है
जब
तुम नदी सी बह रही थी
मै तालाब सा सूख रहा था
वक्त समन्दर सा ठहरा था
वो पानी की तासीर समझने के
दिन थे।
*********
ये उन दिनों की बात है
जब
खत भेजने के लिए नही
तुम्हें पढ़ने के लिए
लिखे जाते थे।
*******
ये उन दिनों की बात है
जब
हम अपनी समझदारी पर
हंस लिया करते थे
बेवकूफों की तरह
**********
"...अब उन दिनों की
चंद बातें बची है
याददाश्त में आधी अधूरी
मुलाकातें बची है
चंद रफू ख़्वाब है
थोड़ी अफ़सोस की गर्द है
उन दिनों की बातों ख्यालों जज्बातों का
बैरंग पार्सल भेज रहा हूँ तुम्हें
कविता की शक्ल में।"

© डॉ.अजीत

Monday, October 13, 2014

विदा

विदा के वक्त के भावुक वादें
गल जातें है वक्त के साथ
बचती है हासिल की गई समझदारी
कुछ शिकवें
चंद उल्हानें
विदा संधिकाल है उदासी का
एक यात्रा समाप्त दुसरी आरम्भ
हर शुरुआत एक अंत है
और हर अंत एक शुरुआत
इनके मध्यकाल में
पढ़ा जा सकता दर्शन,मनोविज्ञान या फिर
कविता
लिखे जा सकतें है व्यक्तिगत आलाप
कविता की शक्ल में
जीवन की धुरी पर घूमते अपनें
अक्षांश को देखने की जिद
सामाजिक बनाती है
जिसमें अपेक्षाओं की नमी में
उगते है कुछ रिश्तें
मिलने बिछड़ने के क्रम में
कथित रूप से जीना आ जाता है
अफ़सोस वो बेताल है जो लटका रहता
इस सीलन भरी दीवार पर
कुछ काश ! कुछ ग्लानि कुछ उपलब्धि की
की जुगलबंदी से
मांगते है उधार
थोड़ा सा साहस और थोड़ा सा दुस्साहस
और निकल पड़ते है
अवसाद के जंगल की तरफ
जूतों के फीते बांधते वक्त
याद आती है थोड़ी स्नेहिल छाँव
फिर देखते है कोरी धूप
और अनमने कोसते हुए दौड़ पड़ते है
उस गुफा की तरफ
जहां उपसंहार की रोशनी में
जिन्दगी मिलती है
आधी-अधूरी।
© डॉ. अजीत

Sunday, October 12, 2014

रफ्ता रफ्ता

रफ़्ता रफ़्ता
तुम्हारी समझाईश की चासनी में
अल्फाज़ कुछ तरह से लिपटे कि
उनका पेंचो खम जाता रहा
तुमसे हर मुलाक़ात के बाद
मै उधड़ता चला गया
और तुम बुनती चली गए
ख्वाबों के बिन नाप के स्वेटर
चाय की केतली को खोलते हुए
जमी बूंदों को देख
याद आ जाते थे तुम्हारें आंसू
फकीरों की जटा सा
उलझा हुआ था मै
तुम पानी सी तरल थी तब
बेवक्त पर यूं बेसबब मिलना
वक्त की साजिशों का हिस्सा लगता है कभी कभी
या फिर खुदा की कोई समझदारी
कतरा कतरा पिघलते हुए
रोज नई शक्ल इख्तियार कर लेता था वजूद
तुम्हारी जुस्तजु के खत
मुझ तक पहूंच जाते थे देर सबेर
तन्हाई का चिमटा बजाते
कई दफे तुम्हारे दर तक आया
मगर तुम उन दिनों
इबादत का हुनर सीख रही थी
तुम्हें तो इस बात का इल्म भी नही होगा कि
तुम्हारी साँसों की गिरह खोलता बांधता
मै गिनती भूल गया हूँ
मुमकिन है किसी मोड़ पर
तुमसे मुलाक़ात हो
मगर बात होगी इसकी उम्मीद कम है
दरअसल
तुम्हारी पीठ पर एक बरगद उग आया है
जिसकी छाँव मेरी खिड़की पर उतरती है
तुम्हारी यादों से झुलसते हुए
वहीं सुस्ता लेता हूँ अक्सर
हकीकत की सबसे स्याह बात यही है
इसने हमारी रोशनी बदल दी है
अब हम एक दुसरे की
फिक्रों बजाए जिक्रों में शामिल है
चलो फर्ज़ कर लेते है
इन बिखरे हुए रिश्तों के सहारे
जीना मुश्किल है
और इस मुश्किल दौर में
तुम्हे उलझा हुआ नही देखना चाहता
मेरी तरफ ताउम्र पीठ ही रखना
तुम्हारा चेहरा तुम्हारे अक्स में देखने का
मै हुनर रखता हूँ
बस दुआ करों
हम जब भी मिलें
रोशनी में मिलें
अंधेरों को बचा कर रखना पड़ेगा
तन्हाई में खुद से गुफ़्तगू के लिए
बेशक!

© डॉ.अजीत


Friday, October 10, 2014

यात्रा

मन की कहता चला गया
वक्त सा बहता चला गया

दुःख हर चौराहे पर मिले
बस मै सहता चला गया

खुदा की हसीं दुनिया में
बेवजह रहता चला गया

करी सब उसने मन की
मै बस कहता चला गया
© डॉ. अजीत

आइना

सबसे निराशा के पलों में
आत्महत्या जैसा कोई विचार नही आता
उत्सव कभी मन में कोई
उत्साह नही जगाता
अतीत की गति
और भविष्य का अनियोजन
वर्तमान को जीने की वजह देता है
परन्तु वर्तमान भी नीरवता से भरा है
भीड़ से दूरी है
एकांत से एकांत जरूरी है
सपनों से एक सुरक्षित दूरी है
जीवन के प्रश्न
समाधान नही प्रति प्रश्न तलाशते है
और प्रश्नों की भीड़ में
उत्तर अपनी प्रासंगिकता खोते जाते है
मन के वैज्ञानिकों के हिसाब से
यह चक्रीय अवसाद है
परिजन  इसे प्रमाद समझते है
और दोस्त पलायन
स्पष्टीकरण की प्रक्रिया
खुद को सही ठहराने की युक्ति है
और दुनिया में एक ही समय पर
दो लोग एक साथ सही सिद्ध नही हो सकते
इसलिए स्वीकार कर लेता हूँ
नसीहतों की रोटी
सलाह का पानी और
शुभचिंताओं का नमक
एक अरसे से इन्हीं पर जिन्दा हूँ
जिन्दा हूँ यह जानने के लिए एक सूत्र सबको ज्ञात है
वो यदा-कदा छेड़ देते है
दोस्ती दर्शन और मन की बातें
फिर उनका मनोरंजन
और मेरा विरेचन दोनों एक साथ चलता है
इसके सुर प्रवचन से सधे होते है
इसलिए कभी कभी भ्रम हो जाता है
ज्ञानी ध्यानी होने का
मुझे नही
मुझमे रूचि रख रहें लोगो को
दरअसल सच तो यह है
मेरी खुद में उतनी ही रूचि बची है
जितना दाल में नमक
मेरे इर्द गिर्द जो भीड़ जमा है
उन्हें मै आईना लगता हूँ कभी कभी
इसलिए
मेरी उपयोगिता में रोशनी की बड़ी भूमिका है
वो रोशनी खरीद लातें है
और मै साफ़ दिखने लगता हूँ ।
© डॉ.अजीत

Tuesday, October 7, 2014

मृत्यु

मृत्यु का चिन्तन
अवसाद के इतर
जीवन की कलात्मकता का
परिणाम भी हो सकता है
या फिर दर्शन पढ़ने की
एक जीवनपर्यन्त उपलब्धि
यात्रा की तैयारी का
जायज़ा लेने में हर्ज़ भी क्या है
सफर पर निकलने से पहले
आश्वस्ति समझदारी समझी जाती है
जीवन के टेढ़े मेढ़े रास्तों से
गुजर कर बिना थके
तरोताज़ा मंजिल तक पहूंचना
ज्ञान ध्यान का लक्ष्य हो सकता है
मृत्यु का दर्शन
जीवन के सरस प्रवाह से थोड़ा जटिल है
यदि तैयारी न हो तो
यह लग सकता है थोड़ा अप्रिय भी
परन्तु
मृत्यु एक खूबसूरत मंजिल है
जिसकी कल्पना के
अपने छिपे हुए रोमांच है
मृत्यु असामान्य या संदिग्ध कभी नही होती
मृत्यु बस मृत्यु होती है
साँसों के थमने या हृदय के स्पंदन रुकने से इतर
मृत्यु वरण है नए जीवन का
स्थगन है काल चिन्तन का
देह को देह बाहर निकल कर देखना
कितना विचित्र अनुभव होता होगा
कुछ कुछ स्वप्न जैसा
मृत्यु आत्महत्या से नही मिलती
मृत्युंजय मंत्र बाधक है साधक नही
मृत्यु के लिए
जीवन को झोंकने के अलावा कोई
विकल्प नही है
इसलिए जीवन की तरह
मृत्यु विचित्र संयोगों का सहारे ले
धीरे से हमारे कान में बुदबुदाती है
चलो ! बहुत सो लिए
अब जागने का समय है
और दुनिया इसे दे देती है
चिरनिद्रा का नाम
है ना बड़ा विचित्र विरोधाभास
दरअसल
मृत्यु जीवन का दूसरा पक्ष है
उतना ही जीवंत
जिससे जानने के लिए
बस मरना पड़ता है।

© डॉ. अजीत

कोयला

देखो !
फ़िलहाल
ख्याल ख्वाब और हकीकत के
महीन रेशों में मत उलझों
लम्हा-लम्हा रिसती जिन्दगी पर
वफाओं के पैबंद लगाते -लगाते
उम्र कम पड़ जाएगी
इससे पहले शिकवों की सीलन
तुम्हारे काजल को फैला दें
कुछ पलों के लिए ही सही
बंद आँखों से जी लो अपना हिस्सा
अब तक किस्तों में जीती आई हो तुम
अपनी धडकन की लय और
साँसों के आरोह-अवरोह की
एकसाथ तुरपाई कर दों
फिर मन ही मन गुनगुनाते
अपनी बिखरी सरगम को साधो
इससे पहले वक्त की तल्खी और
हकीकत की धुंध
तुम्हारी रोशनी में धुंधलका भर दें
पढ़ो वें सारे खत आहिस्ता-आहिस्ता
जो आंसूओं की स्याही से तुमने
मन के पीले पन्नों पर लिखे थे
एक गहरी लम्बी सांस लो किसी योगी की तरह
और खींच लो सारा अवसाद अपने अंतर में
अवसाद की छाँव में
मुहब्बतों की दरी पर कुछ देर सुस्ता लो
रोजमर्रा की खुद से लड़ाई
तुम्हे वक्त से पहले बुझा रही है
जानता हूँ तुम्हारा बुझना
कोयले की तरह बुझना है
जो अपनेपन की जरा सी आंच और
जरा सी हवा से
फिर से सुलगकर जल उठेगा
अपनी तमाम नमी के बाद भी
इस सर्दी में तुम्हें
धूप की तरह खिड़की से उतरता देखना चाहता हूँ
बंद कमरें में अंगीठी सी
बहुत जल चुकी हो तुम।

© डॉ.अजीत

Monday, October 6, 2014

जरिया

सुनो !
तुम्हारी आँखों में जो यें
मायूसी के रतजगे है
इन्होने तुम्हारी खूबसूरती में
इजाफ़ा ही किया है
तुम्हारी मुस्कान में अब फैलाव भले ही कम हो
मगर गजब की गहराई दिखती है
जिसे किनारे खड़ा देखते हुए
हर बार उतरने का होता है मन
तुम्हारे मन की सिलवटों को नापतें हुए
अब हांफना नही पड़ता
तुम्हारी उलझी पलकों की ओट में
देखता हूँ रोजमर्रा का छद्म युद्ध
तुम्हारे लबों की खुश्की
खुरदरी नही छोटी छोटी शिकायतों के
रेगिस्तान है
जिसे एक फूंक से उड़ा सकती हो तुम
मुद्दत से आंसूओं से चेहरा
धोती रही हो तभी तो कहता हूँ
तुम्हारा ये नूर
बेशकीमती है
तुम्हारी कीमत तुम्हें छोड़ सबको पता है
तुम्हारी बेफिक्री की एक वजह यह भी है
तुम हमारी फ़िक्र में शामिल हो
जब भी हंसती हो
हवाओं में घुल जाते है नए राग
कुछ पुरानी खुशबू
अभी एक लड़खडाता हुआ झोंका इधर आया
और मिल गई तुम्हारी खबर
तुम्हारी खबर के लिए तुमसे मिलना या
बात करना जरूरी नही
बस निकलना पड़ता है घर की चारदीवारी से
तकना पड़ता है आसमान
चाँद सूरज हवा तारे नदी झरनें
और कुछ रास्ते
तुम्हारे सच्चे खबरी है
इन दिनों बस यही जरिया है
तुमसे गूफ़्तगू करने का
तुम्हारा हालचाल जानने का
यकीनन।
© डॉ.अजीत

Saturday, October 4, 2014

नामुकम्मल

कहकहों से ऊब रहा हूँ मै
सूरज थाअब डूब रहा हूँ मै

तवज्जो नसीब नही अब
कभी बहुत खूब रहा हूँ मै

बेवफा जो कहते है मुझे
उनका महबूब रहा हूँ मै

भूलना कोई उनसें सीखे
जिनका मंसूब रहा हूँ मै

© डॉ. अजीत

Thursday, October 2, 2014

वजूद

जुड़े की स्टिक/पिन न मिलने पर
तुम्हारी झुंझलाहट
ठीक वैसी थी
जैसे घर से निकलते वक्त
नई जुराब न मिलने पर
मेरी होती थी
फर्क बस इतना था
तुम खुद इधर उधर तलाश रही थी
और मेरे लिए तलाशने को
तुम और  बच्चों सहित
सारा घर लगा हुआ था
सफर के दौरान यही सोचता रहा
यह फर्क कितना गहराता चला जाता है
मेरी हर छोटी बड़ी चीज को सहेजने की
नैतिक जिम्मेदारी तुम्हारी थी
और मेरे पास तुम्हारे खोए पाए का
कोई हिसाब नही था
तुम्हारी हंसी भी वैसे ही खो गई थी
जैसे मेरा
रुमाल खो गया था किसी होटल में
खोने पाने का हिसाब देखा जाए तो
मेरा केवल कुछ सामान ही गुमशुदा है
तुम्हारा तो सारा वजूद ही लापाता हो गया है
तुम्हारा केंद्र एक व्यक्ति एक परिवार है
जिसके इर्द गिर्द घुमती हो तुम उपग्रह सी
देखता हूँ तुम्हें रोज
घर के सपनों की मरम्मत करते हुए
मेरी बेफिक्री तुम्हारी फ़िक्र की फसल है
जिसे मै काटता रहा हूँ बरसों से
कभी कभी मेरा अपराधबोध
इतना गहरा जाता है कि
सप्तपदी के वचन
ऋषियों का षड्यंत्र लगने लगता है
जिसके सहारे रचा जाता है
समर्पण का खेल
माफी मांगने से अगर तुम्हारा खोया
वजूद वापिस मिल पाता तो
मांगता मै सार्वजनिक माफी
मगर तुम्हें जो सिखाया गया है
मेरा ऐसा करने से
तुम्हारा अपराधबोध बढ़ेगा
तुम्हें संदेह होगा खुद के प्रेम पर
तुम्हें कैसे लौटाऊँ
तुम्हारा पूरा वजूद
सारे सफर यही सोचता रहा
अब मंजिल पर उतर रहा हूँ
उतना ही निशब्द
जितना तुम्हें देखता हूँ अक्सर।
© डॉ. अजीत